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विभाजनकारी राजनीति से बचें मुसलमान / सैयद सलमान
Friday, August 11, 2023 - 11:32:43 AM - By सैयद सलमान

विभाजनकारी राजनीति से बचें मुसलमान / सैयद सलमान
देश उस मुहाने पर खड़ा है जहां लोकाचार, मानवाधिकार और सामाजिक-राजनीतिक नैतिकता को अर्थहीन बना दिया गया है
साभार- दोपहर का सामना  11 08 2023 

देश के विभिन्न हिस्सों से हिंसा और दंगों की ख़बरों से अख़बार भरे हुए हैं। टीवी मीडिया हो या सोशल मीडिया, जातीय-सांप्रदायिक तनाव की ख़बरों को अपने-अपने तरीक़े से परोस रहे हैं। माना यही जा रहा है कि लोकसभा चुनाव २०२४ और आगामी कुछ महीनों में कुछ राज्यों में होने वाले चुनावों ने इस हिंसा और दंगों की पटकथा तैयार की है। मणिपुर, हरियाणा सहित महाराष्ट्र, बिहार, पश्चिम बंगाल और अन्य राज्यों में कहीं बड़े पैमाने पर तो कहीं छिटफुट हिंसा की घटनाएं हुई हैं। यानी यह स्पष्ट हो गया है कि सत्ता में वापसी के लिए नफ़रत और हिंसा का वही पुराना नुस्ख़ा आजमाया जा रहा है। वोटों के ध्रुवीकरण के लिए सांप्रदायिक विभाजन और नफ़रत की राजनीति की अपनी नीति और कार्यक्रम को तेज़ करने के लिए केंद्र में सत्तासीन भाजपा और उसके सहयोगियों के पास कोई अन्य विकल्प नहीं बचा है। इस दिशा में पहले क़दम के रूप में गुजरात मॉडल की तर्ज पर मणिपुर को नफ़रत की नवीनतम प्रयोगशाला में बदला गया। विभाजनकारी राजनीति को फिर से सक्रिय किया गया और मतदाताओं का ध्रुवीकरण मैतेई और कुकी के रूप में किया गया। अगला टारगेट हरियाणा बना। मेवात का नूंह और उसके बहाने गुरुग्राम समेत एनसीआर के कई इलाक़ों में हुई हिंसा उसी श्रृंखला का उदाहरण है। अल्पसंख्यक समूहों के ख़िलाफ़ घृणा अपराधों में व्यापक वृद्धि के बावजूद देश के प्रधानमंत्री ख़ामोश हैं। 

मणिपुर में पिछले तीन महीनों से ज़्यादा समय से फैली जातीय हिंसा के बावजूद प्रधानमंत्री मोदी ने राज्य का दौरा करने और लोगों को सांत्वना देने के लिए अब तक समय नहीं निकाला है। उनका फ़ोकस मणिपुर की शांति के बजाय विपक्ष के अविश्वास प्रस्ताव गिराने पर ज़्यादा रहा। मणिपुर नरसंहार और महिला उत्पीड़न की निंदा न करना सरासर मोदी के रणनीतिकारों की साज़िश को उजागर करता है। देश उस मुहाने पर खड़ा है जहां लोकाचार, मानवाधिकार और सामाजिक-राजनीतिक नैतिकता को अर्थहीन बना दिया गया है। याद कीजिये, कर्नाटक, गुजरात, उत्तराखंड जैसे राज्यों में चुनाव से पहले अलग-अलग कारणों से मुख्यमंत्री बदल दिए गए थे। लेकिन मोदी ने हिंसाग्रस्त मणिपुर के मुख्यमंत्री बीरेन सिंह को ‘राज धर्म’ का पालन करने के लिए आगाह करना भी उचित नहीं समझा। उन्हें ख़ुद २००२ में पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने यही सलाह दी थी। लेकिन जब उन्होंने ख़ुद राजधर्म नहीं माना था तो किस मुंह से बीरेन सिंह से कहेंगे। सिर्फ़ दंगे फ़साद ही नहीं देश की संसदीय गरिमा के साथ भी खिलवाड़ हो रहा है। संसद सदन निशिकांत दुबे और नारायण राणे जैसे गली-मोहल्ले के दादाओं की भाषा का साक्षी बना है। 

इस देश का बड़ा हिंदू वर्ग देशहित में बड़ी और व्यापक सोच रखता है। वह मुसलमानों से नफ़रत तो नहीं करता, हां उसे कुछ शिकायतें ज़रूर हैं। उनकी शिकायतों पर ग़ौर करना मुसलमानों की ज़िम्मेदारी है। चुनिंदा ही सही लेकिन कुछ मुसलमानों की अशिक्षा, उनकी कट्टरपंथी सोच, उनका बर्ताव सामाजिक ताने-बाने के लिए ठीक नहीं होता। मुसलमान इसके लिए कट्टरपंथी हिंदू संगठनों की ओर इशारा करते हैं, लेकिन उन्हें यह समझना होगा कि देश का बहुत बड़ा तबक़ा ऐसे लोगों के साथ नहीं है। भारत की विशाल जनसंख्या विविध होने के साथ-साथ धर्मनिष्ठ भी है। भारत न केवल हिंदुओं, जैनियों और सिखों का घर है, बल्कि दुनिया की सबसे बड़ी आबादी में से एक मुसलमानों के साथ ही लाखों ईसाइयों और बौद्धों का भी घर है। यह सभी राष्ट्रीय स्तर पर अपने अस्तित्व के केंद्र में धार्मिक सहिष्णुता को देखते हैं। अधिकांश प्रमुख धार्मिक समूहों का मानना है कि 'सच्चा भारतीय' होने के लिए सभी धर्मों का सम्मान करना ज़रूरी है और यहां की सहिष्णुता, धार्मिक और नागरिक मूल्यों की विरासत है।  

जहां तक बात विभाजनकारी राजनीति है तो एक साज़िश के तहत सारे मसले कुछ इस तरह खड़े किये जा रहे हैं कि ध्रुवीकरण हो और अल्पसंख्यक अलग-थलग पड़ जाएं। मुस्लिम समाज को इसी बात को समझना है। मुस्लिम समुदाय की असल संपत्ति उसके कारीगर और शिल्पकार हैं। यहां के साहित्य, संगीत और वास्तुकला में मुसलमानों का योगदान अतुलनीय है। इन ख़ूबियों के रहते हुए भी, मुस्लिम रूढ़िवादी धार्मिक नेताओं ने मानवीय विकास को नज़रअंदाज़ कर तुष्टिकरण को महत्व दिया है। ऐसे में चुनाव जीतने के लिए फैलाई गई नफ़रत का जवाब देने के लिए मुसलमानों को ठोस रणनीति बनानी होगी। हिंसा किसी मसले का हल नहीं है। दंगे-फ़साद की राजनीति से अलग अल्पसंख्यक और अलग पहचान का राग अलापने की बजाय सरकारी योजनाओं में भागीदारी पर उन्हें अपना ध्यान केंद्रित करना चाहिए। देश में तानाशाही और मनमानी के ख़िलाफ़ जो लोग लामबंद होकर आवाज़ उठा रहे रहे हैं, उनके साथ खड़ा होना चाहिए। यही वक़्त की सबसे बड़ी ज़रूरत है। 


(लेखक मुंबई विश्वविद्यालय, गरवारे संस्थान के हिंदी पत्रकारिता विभाग में समन्वयक हैं। देश के प्रमुख प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं।)