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धर्मांध मुसलमानों की करतूतों से, शर्मिंदा है आम मुसलमान / सैयद सलमान
Friday, June 21, 2024 - 10:34:23 AM - By सैयद सलमान

धर्मांध मुसलमानों की करतूतों से, शर्मिंदा है आम मुसलमान / सैयद सलमान
क़ुर्बानी एक आध्यात्मिक प्रक्रिया है
​साभार - दोपहर का सामना 21 06 2024  

मुसलमानों के दो बड़े त्योहार हैं। एक है ईद-उल-फ़ित्र, जो एक महीने के रोज़े के बाद मनाया जाता है और दूसरा है ईद-उल-अज़हा, जिसे 'क़ुर्बानी' का त्योहार कहा जाता है। इस वर्ष इसी त्याग और बलिदान के पर्व को कुछ जाहिल मुसलमानों ने विवादित बना दिया। इनमें से एक मामला नवी मुंबई का है, जहां ईद-उल-अज़हा से पहले एक बकरे पर 'राम' लिखकर हिंदू भाइयों की भावनाएं आहत की गईं। दुकान के दो मालिकों मोहम्मद शफ़ी शेख और साजिद शफ़ी शेख सहित दुकान के कर्मचारी क़य्यूम के विरुद्ध धार्मिक भावनाएं भड़काने की धाराओं में मामला दर्ज कर लिया गया। एक अन्य घटना में जावेद नामी शख़्स ने हिमाचल प्रदेश के सिरमौर जिले में ईद-उल-अज़हा पर गोवंश की क़ुर्बानी करते हुए व्हाट्सएप पर स्टेटस लगा दिया। ज़ाहिर है, गाय को माता मानने वाले बिरादरान-ए-वतन की भावनाएं आहत होंगी। बदले में उन्होंने जावेद की दुकान में तोड़-फोड़ की और उसका सारा सामान फेंक दिया। जावेद के ख़िलाफ़ भी मामला दर्ज कर लिया गया। 

इस तरह की कुछ और घटनाएं अख़बारों और टीवी मीडिया पर तो नहीं, लेकिन सोशल मीडिया पर ख़ूब वायरल हुईं। कुछ का संबंध बाहरी मुल्कों से भी था, जिसे अपने यहां का बताकर माहौल को तनावपूर्ण बनाने की कोशिश हुई। लेकिन जो ग़लत है, वह ग़लत है। जिन लोगों ने भी हिंदू भाइयों की भावनाओं के साथ खेलने की कोशिश की, उन पर सख़्त से सख़्त कार्रवाई होनी चाहिए। ऐसे धर्मांध और जाहिल तत्वों के कृत्यों के लिए उन मौलवियों को भी सज़ा मिलनी चाहिए जो ग़ैर-ज़रूरी फ़तवे जारी करते हैं। मिसाल के तौर पर गुजरात के भरूच स्थित दारुल उलूम बरकत ख़्वाजा के मौलवी अब्दुल रहीम राठौड़ ने सोशल मीडिया पर कहा कि, 'इस्लाम में गाय की क़ुर्बानी जायज़ है।' कौन पूछने गया था उससे, कि क्या जायज़ है, क्या नाजायज़ है? सांप्रदायिक शांति भंग करने का इस व्यक्ति को किसने हक़ दिया? इस्लाम कहता है, कि आप जिस भी वतन के नागरिक हैं वहां का क़ानून मानना आप पर लाज़िम है। हमारे देश में केवल गाय ही नहीं, बल्कि गोवंश की हत्या पर ही अगर पाबंदी है, तो यह जायज़ और नाजायज़ का प्रश्न ही क्यों उठाया गया? मौलवी के ख़िलाफ़ भी कार्रवाई की गई है। देश में जब विभाजनकारी शक्तियां अपने उफ़ान पर हैं, तब ऐसे समय में बजाय देश की एकात्मता और सांप्रदायिक सौहार्द की रक्षा करने के, यह लोग धर्मांध शक्तियों को ईंधन प्रदान कर रहे हैं। यह केवल नामधारी 'मुसलमान' हैं, इनका 'इस्लाम' से कोई वास्ता नहीं है। इनकी करतूतों से आम मुसलमान शर्मिंदा होता है। मुस्लिम उलेमा और तमाम बुद्धिजीवी मुसलमान अगर अन्य सांप्रदायिक शक्तियों के ख़िलाफ़ बोलते हैं, तो अपने धर्म की धर्मांध शक्तियों के ख़िलाफ़ भी उन्हें बोलना होगा।

जहां तक बात ईद-उल-अज़हा की है, तो इस दिन क़ुर्बानी देने का रिवाज हज़रत इब्राहिम के दौर से चला आ रहा है। यहूदी, ईसाई और मुसलमान उनकी इस परंपरा को क़ायम रखे हुए हैं। यहूदी, ईसाई और इस्लाम धर्म में पैदा होने वाले लोग पैग़ंबर इब्राहिम के ही वशंज हैं और उन्हें ईशदूत मानते हैं। हज़रत इब्राहिम को अपने बेटे हज़रत इस्माइल की क़ुर्बानी देने का ख़्वाब आया था और फिर उनकी जगह ईश्वरीय चमत्कार से दुंबा रख दिया गया था। तब से तीनों धर्मों के लोग उनकी याद में क़ुर्बानी देते आ रहे हैं। लेकिन ईसाई और यहूदियों का पर्व पता भी नहीं चलता, जबकि मुसलमान पूरे ढिंढोरा पीटते हुए क़ुर्बानी का प्रदर्शन करता है। हालांकि, हदीसों के अनुसार पैग़ंबर मोहम्मद साहब का फ़रमान है कि, 'जानवर की क़ुर्बानी अकेले में की जानी चाहिए, अन्य जानवरों की मौजूदगी में नहीं।' यहां जानवरों को तो छोड़िये, खुले आम क़ुर्बानी की जाती है और सोशल मीडिया पर पोस्ट भी की जाती है। जबकि प्रबुद्ध इस्लामी उलेमा हर साल यह अपील करते रहते हैं कि क़ुर्बानी सादगी से की जाए, साफ़-सफ़ाई रखी जाए, अन्य धर्मावलंबियों की भावनाओं का ख़ास ख़्याल रखा जाए। लेकिन मुसलमानों में जाहिलियत इतनी घर कर गई है कि धर्म के नाम पर किये जा रहे तमाम फूहड़पन को ही असल धर्म मान लिया गया है। क्या मुसलमानों को यह नहीं समझता कि अल्लाह सबके दिल का हाल जानता है और जानता है कि क़ुर्बानी देने वाले की मंशा क्या है? क़ुरआन कहता है, 'अल्लाह तक ख़ून, मांस या हड्डियां नहीं पहुंचतीं, केवल विनम्रता, देने का जज़्बा, धर्मनिष्ठता और मन की पवित्रता पहुंचती है (२२:३७- अल-क़ुरआन)।' ईद-उल-अज़हा पर क़ुर्बानी का मतलब दूसरों के लिए किया गया त्याग और बलिदान है। किसी मुसलमान को किसी की भावना से खेलने का कोई हक़ नहीं है। क़ुर्बानी एक आध्यात्मिक प्रक्रिया है। पशुबलि या क़ुर्बानी केवल प्रतीकात्मक है। धर्म के नाम पर संवेदनहीन प्रदर्शन असल इस्लामी दृष्टिकोण से पूर्णतः अनुचित एवं अक्षम्य है। 


(लेखक मुंबई विश्वविद्यालय, गरवारे संस्थान के हिंदी पत्रकारिता विभाग में समन्वयक हैं। देश के प्रमुख प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं।)