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'भुला देने की भूल' / सैयद सलमान
Friday, March 3, 2023 - 9:12:52 AM - By सैयद सलमान

'भुला देने की भूल' / सैयद सलमान
क्या १३७ साल पुरानी कांग्रेस के इतिहास में कोई ऐसा मुस्लिम लीडर नहीं मिला जिसे पोस्टर पर जगह दी जा सके?
साभार- दोपहर का सामना  03 03 2023 

हाल ही में संपन्न हुआ कांग्रेस का महाधिवेशन काफ़ी चर्चित रहा। कई नए फ़ैसले हुए। कांग्रेस के संविधान में कई बदलाव हुए। कार्यसमिति यानी सीडब्ल्यूसी में पिछड़ा-अति पिछड़ा वर्ग, महिलाओं, युवाओं और अल्पसंख्यकों के लिए ५० फ़ीसदी आरक्षण का ऐलान किया गया। ऐलान से कांग्रेस में शामिल मुस्लिम नेता और कांग्रेस समर्थक ख़ुश हुए ही थे कि, कांग्रेस का कई अख़बारों में दिया गया एक विज्ञापन विवादों में आ गया। विज्ञापन में कांग्रेस के पूर्व अध्यक्षों और प्रधानमंत्रियों सहित १० महत्वपूर्ण नेताओं को जगह मिली जिसमें महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, सरदार वल्लभ भाई पटेल, सुभाष चंद्र बोस, डॉ. भीमराव अंबेडकर, सरोजिनी नायडू, इंदिरा गांधी, लाल बहादुर शास्त्री, राजीव गांधी और पीवी नरसिम्हा राव की तस्वीरें तो थीं, लेकिन मुस्लिम नेताओं के फ़ोटो ग़ायब थे। एक उल्लेखनीय बहिष्कार मौलाना अबुल कलाम आज़ाद का था, जिन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन में १० साल से अधिक ब्रिटिश जेलों में बिताए और दो बार कांग्रेस के अध्यक्ष रहे। विज्ञापन में महात्मा गांधी से लेकर राहुल गांधी तक की मौजूदगी से किसी को शिकायत नहीं थी, लेकिन मौलाना आज़ाद, रफ़ी अहमद क़िदवई, डॉ. ज़ाकिर हुसैन, फ़ख़रुद्दीन अली अहमद जैसे किसी मुस्लिम नेता या स्वतंत्रता सेनानी की तस्वीर के न होने से मुस्लिम समाज को धक्का लगा। कांग्रेस की राजनीति को समझने वालों के लिए यह चौंकाने वाला विज्ञापन था क्यों कांग्रेस अपने आपको हमेशा मुस्लिम हितचिंतक पार्टी कहती रही है। सबसे ज़्यादा विवाद विज्ञापन में मौलाना अबुल कलाम आज़ाद को दरकिनार कर पीवी नरसिम्हा राव को शामिल करने को लेकर रहा। इस मामले पर कांग्रेस पार्टी के अल्पसंख्यक नेताओं ने भी आपत्ति जताई। कांग्रेस के पूर्व नेता ग़ुलाम नबी आज़ाद ने तो कटाक्ष करते हुए यहां तक कह दिया कि, कांग्रेस से मेरे निकलने के बाद पार्टी का भाजपाकरण हो गया है। हालांकि इस विवाद पर कांग्रेस महासचिव जयराम रमेश ने माफ़ी मांगी। उन्होंने मौलाना आज़ाद को कांग्रेस और पूरे देश के लिए एक प्रतिष्ठित और प्रेरक शख़्सियत बताकर मुसलमानों को शांत करने का प्रयास किया। बात बहुत बिगड़ गई थी लेकिन कांग्रेस ने इसे संभालने में देर नहीं की यह अच्छी बात रही।

इस पूरे प्रकरण से अंदाज़ा लगाया जाने लगा कि कांग्रेस भाजपा के ट्रैप में आ गई है। ऐसा लगा मानो उस पर मुस्लिम तुष्टिकरण का जो आरोप लगता रहा है, उससे पीछा छुड़ाने के नाम पर वह मुस्लिम नेताओं से पीछा छुड़ाना चाहती है। कांग्रेस को वोट तो मुसलमानों का चाहिए लेकिन अपने पोस्टर पर मुसलमान नहीं चाहिए। सवाल उठे कि क्या १३७ साल पुरानी कांग्रेस के इतिहास में कोई ऐसा मुस्लिम लीडर नहीं मिला जिसे पोस्टर पर जगह दी जा सके? एक बात ग़ौर करने की है कि मौलाना अबुल कलाम आज़ाद अब तक कांग्रेस के पोस्टर पर रहा करते थे। उनको भी हटा दिया जाना कांग्रेस की पीआर टीम, सोशल मीडिया टीम और कांग्रेस नेतृत्व पर सवाल उठाने के लिए काफ़ी था। इसे अपरिपक्व सोच को दर्शाने वाला कदम बताया जाने लगा। लगा कि कांग्रेस का एक तबक़ा भाजपा की आक्रामक छवि से किस क़दर भयभीत है। ग़ौरतलब है कि कांग्रेस की स्थापना से अब तक आठ मुस्लिम नेताओं ने कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष का पद संभाला है। जिसमें बदरुद्दीन तैयबजी, रहमतुल्लाह एम सियानी, नवाब सैयद मोहम्मद बहादुर, सैयद हसन इमाम, हकीम अजमल खान, मौलाना मोहम्मद अली जौहर, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद और डॉ मुख़्तार अहमद अंसारी का नाम शामिल है। मौलाना आज़ाद को तो दो बार भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष पद के लिये चुना गया। पहली बार १९२३ में जब वह सिर्फ़ पैंतीस साल के थे और दूसरी बार १९४० में वह कांग्रेस के अध्यक्ष बने और १९४६ तक बने रहे। हालांकि उस दौरान कोई चुनाव नहीं हुआ, क्योंकि कांग्रेस का लगभग हर बड़ा नेता 'भारत छोड़ो आंदोलन' के कारण जेल में था।

कांग्रेस के वर्तमान नेताओं ने कांग्रेस के इतिहास को शायद पढ़ा ही नहीं है। युवाओं में पढ़ने-लिखने की समझ जाती रही। सोशल मीडिया देखने वाले ज़िम्मेदार नेताओं से जुड़े युवाओं को अपनी पार्टी का इतिहास शायद ही पता हो। तभी तो मुस्लिम नेताओं को 'भुला देने की भूल' उनसे हुई। कम से कम उन्हें मौलाना आज़ाद के बारे में तो पता होना चाहिए था। उन्हें पता होना चाहिए कि मौलाना आज़ाद एक महान विद्वान, लेखक, कवि, पत्रकार और इस्लामी शिक्षा के एक विशाल स्तंभ थे, जिन्होंने अपना पूरा जीवन राष्ट्रवाद और एकता के लिए समर्पित कर दिया। यह वही मौलाना आज़ाद थे जिन्हें साल १९५७ में देश के सर्वोच्च सम्मान 'भारत रत्न' की पेशकश की गई थी, लेकिन नैतिक रूप से उन्होंने ये कहकर लेने से मना कर दिया कि मंत्रिमंडल में होते हुए वह कोई सरकारी सम्मान नहीं लेंगे। हालांकि, १९९२ में उन्हें मरणोपरांत भारत रत्न से सम्मानित किया गया। अगर इतनी जानकारी आज के सोशल मीडिया से जुड़े और प्रचार-प्रसार, पोस्टर-विज्ञापन की ज़िम्मेदारी संभाल रहे नेताओं को होती तो शायद इतनी बड़ी ग़लती उनसे न हुई होती।

सवाल उठने लगे कि कांग्रेस कहीं सॉफ़्ट हिंदुत्व की तरफ़ तो नहीं बढ़ रही है? पार्टी की गतिविधियों के परिप्रेक्ष्य में दिखाई दे रहा है कि इस वक़्त राष्ट्रीय स्तर पर कोई भी मुस्लिम नेता ऐसा नहीं है जिसे कांग्रेस में कोई बहुत महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी दी गई हो। वह चाहे सलमान खु़र्शीद हों तारिक़ अनवर हों या फिर कोई और। कांग्रेस के वर्तमान ज़िम्मेदारों को समझ ही नहीं रहा कि उसे सिर्फ़ मुसलमानों के वोट नहीं लेना है बल्कि उन्हें मुख्यधारा में भी शामिल रखना है। कांग्रेस की स्थापना के साथ ही मुस्लिम समाज बड़ी संख्या में उस से जुड़ा रहा है। कांग्रेस में बड़ी संख्या में ऐसे मुस्लिम नेता रहे हैं, जिन्होंने विभाजनकारी प्रवृत्तियों के ख़िलाफ़ संघर्ष किया था। विशेष रूप अपने समुदाय के भीतर उठने वाली आवाज़ों से भी उन्होंने लड़ाई लड़ी। पाकिस्तान के निर्माण के बावजूद ख़ुद को हिंदुस्तान के साथ जोड़े रखा। लेकिन कांग्रेस के इस इतिहास से अनजान कुछ तत्व शायद इतिहास से उनके योगदान को मिटा देना चाहते हैं। कांग्रेस विचारधारा के केंद्र में रहने के बावजूद मौलाना आज़ाद या अन्य स्वतंत्रता सेनानी अगर भुला दिए जाएं तो अफ़सोस लाज़मी है। मुसलमान यह मानने को तैयार नहीं कि उनके पास ऐसा कोई मुस्लिम लीडर नहीं जिसकी तस्वीर तक को नहीं अपनाया जा सकता।

ऐसे में एक सवाल यह भी उठा कि मुसलमान भाजपा और कांग्रेस में फ़र्क़ कैसे करे? कांग्रेस से हुई जानी-अनजानी ग़लती के बीच आमतौर पर मुस्लिम वोटों से परहेज़ की राजनीति करने वाली पार्टी भाजपा मुस्लिम वोटों के लिए हाथ-पांव मारती नज़र आने लगी। पिछले कुछ माह से मुस्लिम ओबीसी वर्ग और बोहरा मुसलमानों पर डोरे डालने के बाद भाजपा आम मुसलमानों के बीच भी अपनी पैठ जमाने की भरपूर कोशिश कर कर रही है। मुस्लिम समुदाय और भाजपा के बीच की खाई को पाटने के लिए भाजपा का अल्पसंख्यक मोर्चा सक्रिय हो गया है। मुस्लिम समुदाय को भरोसे में लाने की इस कोशिश के तहत देश के प्रमुख शहरों और जिलों में सूफ़ी और उलेमा सम्मेलन आयोजित करते हुए मुसलमानों से अपना संवाद क़ायम करने की योजना तैयार की गई है। भाजपा और मुस्लिम समाज के बीच की दूरी को पाटने के लिए मुस्लिम आबादी वाले देश के लगभग १०० लोकसभा क्षेत्रों में इस तरह के सम्मेलनों का आयोजन करने का ख़ाका तैयार किया गया है। अपनी पार्टी के जरिए लोकसभा और राज्यसभा तक से मुस्लिम प्रतिनिधित्व ख़त्म करने वाली भाजपा किस मुंह से मुसलमानों के बीच जाएगी यह देखना दिलचस्प होगा। अब देखना है कांग्रेस अपनी छवि को कैसे पेश करती है। यह सब इस बात पर निर्भर करता है कि मुस्लिम समुदाय में अपने पंख फैलाने के भाजपा के प्रयासों का कांग्रेस कैसे जवाब देती है।



(लेखक मुंबई विश्वविद्यालय, गरवारे संस्थान के हिंदी पत्रकारिता विभाग में समन्वयक हैं। देश के प्रमुख प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं।)