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मज़हब, मस्जिद और मुस्लिम महिलाओं की मांग / सैयद सलमान
Friday, February 17, 2023 - 8:47:22 AM - By सैयद सलमान

मज़हब, मस्जिद और मुस्लिम महिलाओं की मांग / सैयद सलमान
सवाल यह है कि अगर पुरुष अपने धार्मिक कर्तव्यों को निभाने के लिए मस्जिद जा सकते हैं तो महिलाएं क्यों नहीं जा सकतीं?
साभार- दोपहर का सामना  17 02 2023

इन दिनों मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का सुप्रीम कोर्ट में दिया गया हलफ़नामा चर्चा में है। कारण है एक याचिका। आमजनों के साथ-साथ अक्सर मुस्लिम महिलाओं के भी मन में यह सवाल उठता है कि क्या धार्मिक ग्रंथों, नियमों और धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, महिलाओं को नमाज़ पढ़ने के लिए मस्जिदों में प्रवेश करने की अनुमति है? जहां तक बात असल इस्लाम की है, जवाब है हां, मुस्लिम महिलाएं मस्जिद में जा सकती हैं और इस्लामिक कानून ने इसकी अनुमति दी है। यह बात अब जाकर सुप्रीम कोर्ट में मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने अपने हलफ़नामे में कही है। बशर्ते कि मस्जिद के सामान्य क्षेत्र में पुरुष और महिलाएं आमने-सामने न हों। दरअसल मुस्लिम महिलाओं के मस्जिद में नमाज़ अदा करने को लेकर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई चल रही है। एक मुस्लिम महिला वकील द्वारा दायर याचिका में महिलाओं को मस्जिद में नमाज़ पढ़ने की अनुमति देने और उनके प्रवेश पर प्रतिबंध को अवैध और असंवैधानिक घोषित करने का अनुरोध किया गया है। अब बोर्ड की ओर से जवाब में दिए गए हलफ़नामे में कहा गया है कि मुस्लिम महिलाएं नमाज़ पढ़ने के लिए मस्जिद में प्रवेश करने के लिए स्वतंत्र हैं। अब यह फ़ैसला उन पर निर्भर करता है कि वे मस्जिद में नमाज़ पढ़ने के अपने अधिकार का प्रयोग करना चाहती हैं या नहीं। बोर्ड के अनुसार मुस्लिम महिलाओं को सामूहिक रूप से पांच दैनिक नमाज़ या शुक्रवार की नमाज़ जमात के साथ अदा करना फ़र्ज़ नहीं है। शायद इसीलिए अब तक महिलाएं मस्जिदों में नमाज़ पढ़ने के लिए जाने को बहुत तवज्जह नहीं देती थीं।

महिलाएं चाहे घर में नमाज़ पढ़ें या मस्जिद में, उन्हें बराबर सवाब मिलेगा। पुरुषों के मामले में ऐसा नहीं है। उन्हें मस्जिद में ही नमाज़ पढ़ने का हुक्म है। कुछ उलेमा अपने अध्ययन के आधार पर अपनी बात को पवित्र क़ुरआन के माध्यम से साबित करते हैं जहां पहले पारे की आयत ११४ से लेकर २९वें पारे की ११८वीं आयत तक मस्जिद में नमाज़ पढ़ने का ११ बार ज़िक्र आया है। इससे साफ़ पता चलता है कि इस्लाम में मस्जिद में नमाज़ की कितनी अहमियत है। हालांकि, यात्रा के दौरान नमाज़ अदा करने की कोई बंदिश नहीं है। ऐसे उलेमा की मानें तो मस्जिद में नमाज़ अदा करना इस्लाम का अहम हिस्सा है। यहां यह समझना ज़रूरी है कि समय के साथ मुस्लिम समाज ने ख़ुद में काफ़ी बदलाव भी किए हैं। इस्लाम के शुरूआती दौर में गांव-देहात और आसपास के इलाक़ों में लोगों से आग्रह किया जाता था कि वे दिन में पांच बार अपने क्षेत्र की मस्जिद में सामूहिक रूप से नमाज़ अदा करें। इसके अलावा सप्ताह में एक दिन शुक्रवार को दो-चार मुहल्ले के लोग एक साथ इकट्ठा होकर नमाज़ पढ़ें और साल में दो बार ईद के मौक़े पर पूरा क़स्बा या शहर इबादत के लिए इकठ्ठा हो। अब तो गली-गली मस्जिदें हो गई हैं। हज के मौक़े पर दुनिया भर से लोग मक्का के काबा-शरीफ़ में इबादत के लिए जुटते हैं। इस प्रकार की सामूहिक इबादत के पक्षकार उलेमा हदीसों के हवाले से बताते हैं कि घर और व्यक्तिगत रूप से नमाज़ पढ़ने के बजाय मस्जिद में नमाज़ पढ़ने से २७ गुना अधिक सवाब यानी पुण्य मिलता है। इसीलिए इस्लाम ने मस्जिद बनाने पर ज़ोर दिया है। इसका सीधा सा मतलब है कि मस्जिद में ही नमाज़ अदा की जाए। ऐसे उलेमा की मानें तो इस्लाम में इबादत व्यक्तिगत नहीं बल्कि सामूहिक ज़्यादा महत्वपूर्ण है। जबकि बहुत से बुद्धिजीवी मानते हैं कि रब और बंदे के बीच जब कोई पर्दा नहीं तो जुमा और ईदैन की नमाज़ों को छोड़कर सामूहिक इबादत का उन पर किसी तरह का दबाव नहीं होना चाहिए।  

बात करते हैं मुस्लिम महिलाओं को मस्जिद में नमाज़ पढ़ने देने की मांग करने वालों की। इस मामले में इन महिलाओं के पक्षधर लोगों का मानना है कि इस्लाम समानता का संदेश देता है। सम्मान और समानता के साथ रहना इस्लाम का सबसे पवित्र मौलिक अधिकार है। ऐसे में मुस्लिम महिलाओं को मस्जिद में प्रवेश करने से आख़िर कैसे रोका जा सकता है। हालांकि सऊदी अरब जैसे इस्लामिक देशों में महिलाओं के लिए मस्जिद में अलग जगह का बाक़ायदा इंतज़ाम होता है और वे हर नमाज़ में शामिल भी होती हैं। हिंदुस्तान में भी कुछ मस्जिदों में महिलाओं के लिए जगह का प्रावधान होता है, लेकिन ज़्यादातर मस्जिदों में महिलाओं के लिए जगह नहीं होती है। ग़ौरतलब है कि, इस्लाम ने अपने अनुयायियों पर धार्मिक रूप से पांच बातें फ़र्ज़ घोषित की हैं। शहादत अर्थात ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास, नमाज़ यानी प्रार्थना, रोज़ा यानी उपवास, ज़कात यानी दान और हज यानी मक्का-मदीना की तीर्थ यात्रा। इन पांच चीज़ों के मामले में पुरुषों और महिलाओं के बीच कोई अंतर नहीं है। पुरुषों या महिलाओं के लिए कोई रियायत नहीं है। फिर सवाल यह है कि अगर पुरुष अपने धार्मिक कर्तव्यों को निभाने के लिए मस्जिद जा सकते हैं तो महिलाएं क्यों नहीं जा सकतीं? इसका तर्कपूर्ण उत्तर देने के बजाय कहा गया कि, महिलाएं मस्जिद जा तो सकती हैं लेकिन उसमें एक लाइन जोड़ दी गयी कि महिलाओं के लिए बेहतर है कि घर में ही नमाज़ पढ़ें। कुछ उलेमा कहते हैं कि कि युग बदलने के साथ साथ सामाजिक माहौल भी बदला है। माहौल इतना ख़राब है कि घर से बाहर महिलाएं सुरक्षित नहीं हैं इसलिए मुस्लिम महिलाएं मस्जिद में जाने की ज़िद छोड़ें। यही नहीं दिन डूबने के बाद मग़रिब और ईशा की दो नमाज़ पढ़ी जाती है। रात में मस्जिद में महिलाओं का प्रवेश सुरक्षित नहीं है। इसलिए भी मस्जिद में महिलाओं के नमाज़ पढ़ने पर पाबंदी है। उलेमा यही बात मुस्लिम मर्दों को नहीं सिखाते कि इस्लाम महिलाओं को कितना सम्मान देता है। अगर इस्लाम को सही तरीक़े से माना जाए तो मर्द महिलाओं की हिफ़ाज़त करेगा न कि महिलाओं को असुरक्षित महसूस कराएगा।

एक हदीस के अनुसार, पैग़म्बर मोहम्मद साहब ने फ़रमाया 'तुम में से किसी से उसकी स्‍त्री मस्‍ज‍िद जाने की इजाज़त तलब करे तो वह उसे मना न करे।' एक जगह आया, 'जब तुम्‍हारी महिलाएं रात में मस्जिद जाने की इजाज़त मांगें तो उन्‍हें इजाज़त दे दो।' ध्यान देने की बात है कि यह बातें कौन, किससे, कब और क्यों कह रहा है? यह बात साढ़े चौदह सौ साल पहले की है जब इस्लाम के पैग़म्बर मोहम्मद साहब ने यह आदेश पुरुषों को दिया था। साफ़ पता चलता है कि मामला मस्जिद में आने-जाने का है। ज़ाहिर है इसमें बात महिलाओं की है। जब मामला इतना स्पष्ट है तो आज कोई मुद्दा नहीं होना चाहिए था। हमारे पितृसत्तात्मक समाज में आम जगहों पर महिलाओं की उपस्थिति, उनकी संख्या पुरुषों की तुलना में बहुत कम है। यही बात मस्जिदों पर भी लागू होती है। हां, कई बार यहां धर्म का इस्तेमाल महिलाओं पर आधिपत्य दर्शाने के लिए किया जाता है। जैसे महिलाओं के अकेले जाने के ख़िलाफ़ तर्क दिए जाते हैं वैसे ही महिलाओं के कभी भी, कहीं भी मस्जिद जाने के ख़िलाफ़ तर्क दिए जाते हैं। इसीलिए मुस्लिम महिलाओं के मस्जिदों में आने-जाने और नमाज़ अदा करने का मामला सामने आता रहता है जो अब सुप्रीम कोर्ट की दहलीज़ पर भी है। इस मुद्दे से ऐसी छवि बनती है कि इस्लाम की मूल भावना मस्जिद में महिलाओं की आवाजाही के ख़िलाफ़ है। आख़िर मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड को भी इस बात को कोर्ट में स्वीकार करना ही पड़ा कि धार्मिक आधार पर कोई बंदिश नहीं है। तो फिर सारे मामले में यूटर्न लेने की नौबत ही क्यों आने दी जाती है? क्यों नहीं ऐसी मस्जिदें बनाई जातीं जहां महिलाओं के लिए अलग से नमाज़ पढ़ने का इंतज़ाम हो।



(लेखक मुंबई विश्वविद्यालय, गरवारे संस्थान के हिंदी पत्रकारिता विभाग में समन्वयक हैं। देश के प्रमुख प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं।)


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