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भेदभाव नहीं, संवाद और सद्भाव की है ज़रूरत / सैयद सलमान
Friday, February 10, 2023 - 10:02:24 AM - By सैयद सलमान

भेदभाव नहीं, संवाद और सद्भाव की है ज़रूरत / सैयद सलमान
हिंदू संगठनों के साथ मुस्लिम समुदाय को अपनी बातचीत के सिलसिले को बरक़रार रखना चाहिए
साभार- दोपहर का सामना 10 02 2023

देश में सद्भाव कम हुआ है और भेदभाव बढ़ा है, इस बात से शायद ही किसी को इनकार हो। देश के विकास, उसकी अर्थव्यवस्था, औद्योगिक उत्पादन, निर्यात, इंफ्रास्ट्रक्चर, बजट घाटा, बेरोज़गारी, महंगाई, ग़रीबी, कृषि जैसे मुद्दों पर चर्चा करने और समाधान की राह खोजने के बजाय देश में विद्वेष की राजनीति बढ़ी है। ख़ासकर हिंदू-मुस्लिम विवाद बेहद निचले स्तर पर आ गया है। अपने-अपने धर्म की बातें करना, सत्संग करना, सबका मार्गदर्शन करना जैसा कार्य छोड़कर मर्यादा की लक्ष्मण रेखा लांघने वाले कथित धार्मिक गुरुओं की तादाद में इज़ाफ़ा होना देश की सार्वभौमिकता और सद्भाव के लिए ख़तरा बढ़ा रहा है। कोई देवी-देवताओं का अपमान कर रहा है, कोई पैग़ंबर साहब के ख़िलाफ़ टिप्पणी कर रहा है। मार डालो, काट डालो, गोली मारो जैसे नारे मौलवियों और महंतों की ज़ुबान से सुनने को मिल रहे है। धर्म के अपमान के बहाने शब्दों की सीमाओं को रौंदने वाले ऐसे महंत, मौलवी और बाबा बिरादरी की संख्या बढ़ गई है। यह लोग धर्मगुरु हैं या नफ़रत के सौदागर यह शोध का विषय है। ऐसे लोग धर्म के नाम पर हिंदू और मुसलमानों को लड़ाकर न जाने अपने किस भगवान, ईश्वर और अल्लाह को ख़ुश करना चाहते हैं।

इसका दूसरा पहलू भी है। कुछ लोगों द्वारा गढ़ी गई मानसिकता के कारण अगर कोई सनातन या हिंदू धर्म की वैचारिक चर्चा शुरू करता है, तो वह सांप्रदायिक है और नफ़रत फैला रहा है। अगर कोई इस्लाम को लेकर अपने मज़हब की तारीफ़ करता है तो वह भी कट्टरवाद का शिकार है। यानी धर्मगुरुओं की अच्छी बातें भी विवादित बना दी जाती हैं। हालांकि यह स्वीकार करना होगा कि सकारात्मक संदेश देने वाले धर्मगुरुओं की संख्या में गिरावट आई है। कोई बाबा योग और आयुर्वेद की बात करते-करते दूसरे धर्म को बुरा बताने लगता है। कोई बाबा अंधविश्वास के खिलाफ लड़ने वालों की मुख़ालिफ़त में उनका विरोध करने के बजाय दूसरे धर्म की अदावत में बयान देने लगता है। कोई बाबा अपने धर्म के झाड़-फूंक और दुआ-तावीज़ के बचाव में दूसरे धर्म पर उंगली उठाने लगता है। यह हर धर्म के रहनुमा और मार्गदर्शक कर रहे हैं। जबकि आम इंसानों से उलट इन महानुभावों की बड़ी ज़िम्मेदारी है कि वे अपने-अपने समाज के भटके लोगों को ग़लत रास्ते से सही रास्ते पर ले आएं। लेकिन अफ़सोस, जब मार्ग दिखाने वालों की आखों पर ही कट्टरता वाली पट्टी बंध जाए तो सही और ग़लत का फ़र्क़ मिट जाता है।

आजकल देश के माहौल में कई विवादित मुद्दे गश्त कर रहे हैं। सनातन धर्म को 'राष्ट्रीय धर्म' का दर्जा देने, 'हिंदू राष्ट्र' बनाने और 'रामचरितमानस' को 'राष्ट्रीय ग्रंथ' घोषित करने की मांग हो रही है। उसी धर्म के अनुयायी कुछ नेताओं द्वारा शूद्रों, पिछड़ों, महिलाओं की वकालत की जा रही है। सीधे-सीधे महाकवि तुलसीदास को कटघरे में खड़ा कर दिया गया है। असम में बाल विवाह का मामला गरमाया है। मुस्लिम समुदाय उसे अपने ख़िलाफ़ बता रहा है। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड प्रस्तावित समान नागरिक संहिता को 'अलोकतांत्रिक' बताते हुए उसका विरोध कर रहा है। मुस्लिम बोर्ड १९९१ के 'प्लेस ऑफ वर्शिप एक्ट' को लागू रखे जाने की मांग कर रहा है। तर्क दिया जा रहा है कि संविधान धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार की गारंटी देता है। जहां ओवैसी जैसे मुस्लिम नेताओं पर मुसलमानों को बरग़लाने के आरोप लगता है वहीं भाजपा पर आरोप लग रहा है कि वह हिंदू संगठनों, साधु-संतों के जरिए धर्म का राजनीतिकरण कर रही है। एक तरफ़ देश की बदहाली का ज़िम्मेदार मुसलमानों को माना जा रहा है तो दूसरी तरफ़ मुसलमानों को लगता है कि केंद्र सरकार समर्थक वर्ग देश में नफ़रत का ज़हर घोल रहा है। कुल मिलाकर निष्कर्ष यह कि, पूरे माहौल को हिंदू बनाम मुस्लिम बना दिया गया है। यही एक आधार बचता है जिसके माध्यम से अपने-अपने आक़ाओं को अपना वोट बैंक साधने में मदद की जा सकती है।

दुर्भाग्य है कि हमारे यहां मूलभूत मुद्दों पर चुनाव तय नहीं होते। चुनाव हिंदू-मुसलमान, जाति और कथित राष्ट्रवाद के इर्द-गिर्द ही तय होते रहे हैं। सब कुछ चुनाव को ध्यान में रखकर किया जाता रहा है। आने वाले दिनों में लोकसभा और कुछ राज्यों में विधानसभा चुनाव का सीज़न शुरू हो जाएगा। निश्चित है कि २०२४ के आम चुनाव के लिए अपना-अपना एजेंडा तय करने के लिए ही यह सारी क़वायद हो रही है। आख़िर इन बातों का इलाज क्या है? एक तो उन लोगों को दरकिनार किया जाना चाहिए जो अपने फ़ायदे के लिए धर्म का इस्तेमाल करते हैं। इसके लिए किसी एसिड टेस्ट की ज़रूरत नहीं, न ही यह कोई रॉकेट साइंस है। थोड़ी सी समझदारी, देश के प्रति ज़िम्मेदारी और निष्पक्ष भाव रखकर नफ़रत के सौदागरों को पहचाना जा सकता है। दूसरा माध्यम है संवाद। संवाद ने हर दौर में बड़े से बड़े मसले को सुलझाया है। राजनीति से इतर कई स्तर पर आपसी संवाद होना ज़रूरी है। अपनी मुस्लिम विरोधी छवि को तोड़ने और मुसलमानों के एक वर्ग को अपने साथ जोड़ने के प्रयास में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी वर्तमान में 'संपर्क और संवाद' अभियान चला रहा है। हालांकि आरएसएस पर मुसलमानों की तरफ़ से सबसे ज़्यादा उंगलियां उठाई गई हैं। संघ को लेकर मुसलमानों की राय अच्छी नहीं मानी जाती।

लेकिन दूसरी ओर कई मुस्लिम संगठन आरएसएस सहित विभिन्न हिंदू संगठनों के साथ मुस्लिम बुद्धिजीवियों और उलेमा द्वारा शुरू की गई बातचीत को जारी रखने के पक्षधर हैं। जमात-ए-इस्लामी हिंद का मानना है कि युद्ध में रहने वाले भी आपस में बात करते हैं, संवाद साधते हैं तो फिर मुसलमान ऐसा क्यों न करें? जमात का मानना है कि हम तो कहीं से कहीं 'वॉर' में नहीं हैं। अगर संघ के लोग बात जारी रखना चाहते हैं तो मुस्लिम समाज का कर्तव्य है कि वह उनसे संवाद की प्रक्रिया जारी रखे। ऐसे में जमात को उम्मीद है कि आरएसएस के साथ जारी चर्चा के सकारात्मक नतीजे निकलेंगे क्योंकि सरकार पर इनका गहरा प्रभाव है। भाजपा सरकार की दशा और दिशा तय करने में आरएसएस की अहम भूमिका जगज़ाहिर है। बिरादरान-ए-वतन की गोहत्या और राष्ट्रवाद जैसे मुद्दों को लेकर मुसलमानों से बड़ी शिकायत है। वहीं, मुस्लिम पक्ष को लगता है कि हिंदुस्तानी मुसलमानों को पाकिस्तानी, जिहादी, बढ़ती आबादी और बहुविवाह की प्रथा के बारे में ग़लत प्रचार कर बदनाम किया जाता है। एक दूसरे के धर्म के ख़िलाफ़ की जा रही अभद्रता चिंता का विषय है। निःसंदेह अगर कोई गोहत्या में शामिल है तो उसे क़ानून के तहत सज़ा मिलनी चाहिए। जमीयत-उलेमा-ए-हिंद के अरशद मदनी तो गाय को राष्ट्रीय पशु घोषित करने की मांग उठा चुके हैं। मुस्लिम संगठनों का मानना है कि जिन मुद्दों से दो समुदायों के बीच टकराव हो रहा है, उन्हें जल्द से जल्द सुलझा लिया जाना चाहिए। गोहत्या और हिंदुओं की भावनाओं का मुद्दा उठाने पर मुसलमानों की तरफ़ से स्पष्ट संदेश जाना चाहिए कि वह अपने हिंदू भाइयों के साथ हैं। इसी तरह हिंदू भाइयों को मॉब लिंचिंग जैसे मुद्दों के ख़िलाफ़ बोलना चाहिए। इतना तो तय है कि चुनाव आते-जाते रहेंगे, लेकिन हिंदू-मुसलमान को साथ रहना है। ऐसे में दोनों के बीच गहरी होती जा रही खाई को संवाद के ज़रिए ही पाटा जा सकता है। इसके लिए हिंदू संगठनों के साथ मुस्लिम समुदाय को अपनी बातचीत के सिलसिले को बरक़रार रखना चाहिए। बिना संवाद के मामले हल नहीं हो सकते। अगर आपसी भाईचारा ख़त्म हो गया तो देश को बहुत बड़ा नुक़सान होगा। भेदभाव नहीं देश को सद्भाव की ज़रूरत है और मुसलमानों की तरफ़ देश की निगाहें टिकी हुई हैं।




(लेखक मुंबई विश्वविद्यालय, गरवारे संस्थान के हिंदी पत्रकारिता विभाग में समन्वयक हैं। देश के प्रमुख प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं।)



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