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कथनी और करनी में फ़र्क़ / सैयद सलमान
Friday, February 3, 2023 - 9:48:02 AM - By सैयद सलमान

कथनी और करनी में फ़र्क़ / सैयद सलमान
मुस्लिम समाज तो इस बात से भी निराश है कि उनको राजनीतिक पार्टियां सिर्फ़ वोटबैंक समझती हैं
साभार- दोपहर का सामना 03 02 2023

देश में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण, अनर्गल बयानबाज़ियों और फ़िल्मी बॉयकॉट ट्रेंड जैसे विवादों के बीच पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मुस्लिम समाज के साथ संवाद साधने की नसीहत दी थी। यहां तक कि उन्होंने फ़िल्मों के बॉयकॉट कल्चर को भी आड़े हाथों लिया था। लेकिन उसका कोई सकारात्मक प्रभाव देखने को नहीं मिल रहा। फिल्म 'पठान' का बॉयकॉट उसी आक्रामकता से जारी रहा। वोट मिले न मिले लेकिन मुसलमानों से बातचीत जारी रखने की बात कहे अभी कुछ ही दिन बीते थे कि हरियाणा के मेवात ज़िले की एक घटना ने प्रधानमंत्री की नसीहत की असलियत खोल दी। यहां एक संगठन की कथित गोरक्षक इकाई ने गो-तस्करी के आरोप में मुस्लिम युवक वारिस और उसके साथियों को बेरहमी से इतना पीटा कि वारिस की मौत हो गई। दो अन्य घायल हुए। उस पर तुर्रा यह कि पुलिस ने मौत की वजह गाड़ी से टकराना बताया। मृतक के परिजनों के अनुसार पुलिस विवादित संगठन के लोगों को बचाने के लिए हत्या को दुर्घटना बता रही है। परिजनों का आरोप है कि वारिस का एक वीडियो लिंचिंग से पहले बनाया गया था, जिसमें वारिस को बेरहमी से पीटने का सबूत है जिससे उसकी मौत हो गई। यह वीडियो सोशल मीडिया पर भी ख़ूब वायरल हुआ। वायरल वीडियो में यह स्पष्ट रूप से दिख रहा है, कि कैसे वारिस और उसके साथ के दो अन्य लोगों से धमकी भरे अंदाज़ में उनका नाम और गांव पूछा जा रहा है। यह वही मॉब लिंचिंग पैटर्न है जो पहले भी कई जगह पर हो चुका है। यह बेहद परेशान करने वाली बात है कि हिंसा पर उतारू लोगों पर कोई अंकुश नहीं लग रहा। क्या पुलिस के पास वह वीडियो नहीं पहुंचा होगा? उसके बावजूद पुलिस ने गाड़ी टकराने वाला बयान क्यों दिया, यह जांच का विषय है। लेकिन यह तो तय है कि प्रधानमंत्री की कोई सुनवाई या तो हो नहीं रही या वह बस बयान देकर अपने आप को पाक-साफ़ बना लेते हैं। बाकी जिसे जो मर्ज़ी आए करता रहे, उनकी बला से। प्रधानमंत्री की ऐसी भूमिका से लगता है कि देश भर में मुस्लिम समाज के लिए यह दौर कड़ी परीक्षा का है।

बात यहां तक भी होती कि कहीं विवाद हुआ, कहीं हत्या हुई, कानून अपना काम कर रहा है तब तो ग़नीमत थी, लेकिन इस तरह की घटनाओं को जिस तरह ग्लैमराइज़ करके परोसा जाता है उस से सद्भाव बिगड़ने का ख़तरा बना रहता है। यह चिंता की बात है। मुस्लिम समाज के अविश्वास की वजह भी है, क्योंकि वर्तमान सरकार में कोई मुस्लिम नुमाइंदा है ही नहीं। सत्तारूढ़ भाजपा का लोकसभा या राज्यसभा में अब एक भी मुस्लिम सांसद नहीं है। आख़िर मुसलमान यह कैसे मान ले कि 'सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास' पर काम हो रहा है। मुस्लिम समाज तो इस बात से भी निराश है कि उनको राजनीतिक पार्टियां सिर्फ़ वोटबैंक समझती हैं। न समझतीं तो प्रधानमंत्री उनके साथ संवाद की बात तो करते हैं, लेकिन लोकसभा या राज्यसभा में एक भी मुस्लिम नुमाइंदा न होने पर कोई पहल नहीं करते। शायद यह रणनीति उनकी राजनीति के अनुकूल है कि 'अच्छा-अच्छा' बोलकर मुसलमानों को बहलाए रखा जाए। किया वही जाए जो अपने मन को भाए और पार्टी के हित में जाए। मुस्लिम देशों की यात्राएं करना, मुस्लिम देश के राष्ट्रपति को गणतंत्र दिवस पर मुख्य अतिथि बनाना वगै़रह क्या मात्र छलावा नहीं है? मुसलमानों को लगता है कि वर्तमान सरकार उनके ख़िलाफ़ है और उन्हें यह डर भी है कि जैसे-जैसे २०२४ के चुनाव नज़दीक आएंगे दो समुदायों के बीच नफ़रत फिर बढ़ा दी जाएगी। भाजपा को शायद उनके इसी 'डर के आगे अपनी जीत' नज़र आती है।

सच यह भी है कि देश को भले ही कोई भी परोक्ष-अपरोक्ष संदेश दिया जाए लेकिन जहां ज़रा भी दाल गलने की उम्मीद हो या जिस राज्य में विपक्ष की सरकार हो वहां मुस्लिम प्रेम का झूठा प्रपंच ज़रूर रचा जाता है। उदहारण पश्चिम बंगाल का है जहां के मुस्लिम मतदाताओं को ममता से दूर करने की पूरी कोशिश की जा रही है। मसलन, भाजपा ने निर्णायक मुस्लिम बहुलता वाले राज्य पश्चिम बंगाल की १३ लोकसभा सीटों पर अपना ध्यान केंद्रित करने का फ़ैसला किया है। इसके लिए पार्टी इन क्षेत्रों में विशेष अभियान चलाने की योजना पर काम कर रही है। योजना के तहत पार्टी कार्यकर्ता घर-घर जाकर मुस्लिम मतदाताओं की समस्याओं और शिकायतों को सुनेंगे और पार्टी स्तर पर उनका समाधान करेंगे। इस क़वायद में उन लोगों पर विशेष ज़ोर दिया जाएगा जो आर्थिक रूप से पिछड़ी पृष्ठभूमि से आते हैं। यानी भाजपा अब बंगाल में भी पसमांदा मुस्लिम कार्ड खेलने की तैयारी में है। आख़िर यह सब तामझाम क्यों? क्योंकि प्रधानमंत्री मोदी ने कुछ महीने पूर्व पार्टी नेतृत्व को देश के मुस्लिम मतदाताओं तक पहुंचने का निर्देश दिया था। तत्पश्चात भाजपा के शीर्ष नेतृत्व की बैठक में यह निर्णय लिया गया कि पार्टी अब मुस्लिम समुदाय में पैठ बनाएगी। उसके बाद विभिन्न राज्यों के नेतृत्व को भी मुस्लिम बहुल क्षेत्रों की पहचान कर वहां के मतदाताओं तक पहुंचने को कहा गया। पश्चिम बंगाल में बड़ी संख्या में मुस्लिम मतदाताओं वाले १३ निर्वाचन क्षेत्रों को इस विशेष संपर्क अभियान के लिए चिन्हित किया गया है जहां पार्टी मुस्लिम मतदाताओं को आकर्षित करने का काम करेगी। यह मुसलमानों को भरमाने और विपक्ष से दूर करने की रणनीति है ताकि पूरे देश में मुस्लिम मतों को विपक्ष की ओर जाने से रोका जाए और उनमें बिखराव पैदा किया जाए। क्या सांप्रदायिक सद्भाव बढ़ाने के लिए ऐसा ही संपर्क अभियान मेवात या उन इलाक़ों में भाजपा नहीं चला सकती जहां मॉब लिंचिंग की घटनाएं हुई हैं? बिलकुल किया जा सकता है लेकिन उस से फ़ायदे के बजाए नुक़सान होने का अंदेशा ज़्यादा है। मुस्लिम समाज के प्रति नफ़रत और ध्रुवीकरण से तैयार किया गया वोट बैंक इस से छिटक सकता है। इस वोट बैंक को 'कथनी और और करनी' का अंतर जब समझ में आएगा तो आख़िर वह क्यों भाजपा के साथ चिपका रहना चाहेगा? तब तो वह भी मूल मुद्दों पर आकर ही मतदान करेगा। भाजपा को यह पता है कि अगर बेरोज़गारी, महंगाई, निजीकरण, नफ़रत फैलाने जैसे मुद्दों पर मतदान हुआ तो वह लगातार तीसरी बार सरकार बनाने के सपने को साकार नहीं कर पाएगी।

कुल मिलाकर मुस्लिम समाज के प्रति घृणा फैलाने वालों पर भाजपा शिकंजा कसने से रही। लेकिन बिरादरान-ए-वतन का बुद्धिजीवी वर्ग जानता है कि मुसलमानों की बड़ी तादाद कट्टरवादी नहीं है। उनका 'सर तन से जुदा' जैसे जुमलों या किसी भी कट्टरपंथी सोच से कोई वास्ता नहीं है। हाँ, यह ज़रूर है कि मुस्लिम समाज में आत्म-जागरूकता और आत्म-मंथन का अभाव है। सच्चाई यही है कि मुसलमानों को जागरूक होकर 'राजनीतिक नैपकिन' की तरह इस्तेमाल होने से बचना होगा। मुस्लिम समुदाय ने समर्थन करने के लिए किसी पार्टी से कोई अनुबंध तो किया नहीं है। उन्हें भाजपा से दूर रहने को भी नहीं कहा जा रहा। लेकिन सवाल तो भाजपा से करना ही होगा कि आपकी कथनी और करनी का फ़र्क़ कब मिटेगा? मुस्लिम उत्पीड़न को लेकर अगर कोई ग़लतफ़हमी मुसलमानों के मन में है तो उसे दूर करना भी तो सरकार की ज़िम्मेदारी है। अगर नहीं है, तो दिखावे की बयानबाज़ियां बंद हों। मुस्लिम समाज भी शांति से सड़कों पर उतरे बिना, सोशल मीडिया पर गंध फैलाए बिना, राजनेताओं के बहकावों में आए बिना केवल क़ानून का सहारा ले। जितना हो सके मोहब्बत बांटने की कोशिश करे। नफ़रत को बस मोहब्बत से ही जीता जा सकता है। परिवर्तन संसार का नियम है, इस बात को न भूलें।



(लेखक मुंबई विश्वविद्यालय, गरवारे संस्थान के हिंदी पत्रकारिता विभाग में समन्वयक हैं। देश के प्रमुख प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं।)