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बयानबाज़ों से सावधान ! / सैयद सलमान
Friday, March 17, 2023 1:11:23 PM - By सैयद सलमान

मोदी के सत्ता में आते ही देश में अल्पसंख्यक विरोधी माहौल बनाने की कोशिश की जाने लगी
साभार- दोपहर का सामना  17 03 2023 

ऐसा माना जाता है कि देश में पिछले कुछ वर्षों के दौरान सांप्रदायिक तनाव ज़्यादा बढ़ गया है। ख़ासकर हिंदू-मुस्लिम संबंध सहज नहीं रहे। कुछ लोग राजनीतिक अथवा वैचारिक कारणों से, हिंदू-मुस्लिम संबंधों में बढ़ती खटास के लिए भाजपा-आरएसएस और उसके सहयोगियों को दोषी ठहराते हैं। दूसरी तरफ मुस्लिम कट्टरपंथियों के भी 'पॉपुलर फ़्रंट ऑफ़ इंडिया' सहित कई अन्य संगठन हैं जिन्हें हिंदू-मुस्लिम तनाव का ज़िम्मेदार माना जाता है। साल २०१४ से केंद्र में पूर्ण बहुमत की मोदी सरकार बनने के बाद 'इस्लामोफ़ोबिया' का जुनून सवार हुआ और हिंदू-मुसलमानों के बीच खाई बढ़ती गई। मोदी का नारा था 'सबका साथ, सबका विकास।' बाद में 'विश्वास' जोड़ दिया गया और नारा बन गया, 'सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास।' सबका 'साथ' तो अब तक दिखा नहीं। 'विकास' तब तक मायने नहीं रखता, जब तक लोगों के लिए सुरक्षा और शांति न हो। और जब ऐसा विकास न दिखे तो 'विश्वास' कैसे क़ायम होगा। मोदी सरकार अपना दूसरा कार्यकाल पूरा करने वाली है। मोदी सहित सरकार के मंत्री जनता को अपनी उपलब्धियां गिनाने का काम कर रहे हैं। लेकिन जब अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ हिंसा की बात आती है तो मोदी सरकार पर उंगलियां उठती हैं। उनके कार्यकाल में अल्पसंख्यकों और ख़ासकर मुसलमानों के ख़िलाफ़ बढ़ती हिंसा ने उनके दावों पर सवाल खड़ा किया है। दरअसल प्रधानमंत्री मोदी भाजपा में ध्रुवीकरण का कारक हैं और उनका नाम आते ही मुसलमान ध्रुवीकृत हो जाते हैं। उनके कार्यकाल में भाजपा या उसके सहयोगियों की अल्पसंख्यकों से जुड़ी गतिविधियां और उनके ख़िलाफ़ बढ़ती नफ़रत और हिंसा को देखते हुए ही केंद्र सरकार कटघरे में खड़ी है।

अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संगठन 'ह्यूमन राइट्स वॉच' ने तो इस संबंध में एक रिपोर्ट जारी करते हुए मोदी सरकार की आलोचना की थी। रिपोर्ट में कहा गया कि, यह सरकार देश में अल्पसंख्यकों पर हो रहे हमलों को नहीं रोक सकी। रिपोर्ट के अनुसार, धार्मिक अल्पसंख्यकों, पिछड़ों और सरकार के आलोचकों को निशाना बनाने वाली संगठित हिंसा, भारत में बढ़ते ख़तरे के रूप में उभरी। सत्तारूढ़ दल भाजपा के समर्थन का दावा करने वाले संगठनों ने इस कृत्य को अंजाम दिया। रिपोर्ट में अल्पसंख्यकों, ख़ासकर मुसलमानों पर हमलों को न रोकने और इन मामलों की ठीक से जांच न करने के लिए मोदी सरकार की आलोचना की गई। मोदी के सत्ता में आते ही देश में अल्पसंख्यक विरोधी माहौल बनाने की कोशिश की जाने लगी। गायों की ख़रीद-फ़रोख़्त के नाम पर उनका क़त्ल किया गया, सरे आम मॉब लिंचिंग हुई। हमलावरों के ख़िलाफ़ तत्काल क़ानूनी कार्रवाई करने के बजाय, पुलिस अक्सर पीड़ितों के ख़िलाफ़ गौहत्या निषेध अधिनियम के तहत शिकायत दर्ज करती रही। मुस्लिम समाज के बड़े उलेमा, राजनीतिज्ञ, सामाजिक कार्यकर्ता और बुद्धिजीवी वर्ग लगातार यह बयान देता रहा कि वह हिंदू भाइयों की भावनाओं के साथ हैं। मुफ़्ती हज़रात ने कई नए-पुराने फ़तवे लोगों के बीच रखे कि गौ-हत्या उनके नज़दीक मना है। लेकीन उनकी कोई सुनवाई नहीं हुई। यह अलग बात है कि गोवा सहित कई पूर्वोत्तर राज्यों में भाजपा अपनी ही पार्टी के बड़े नेताओं को बीफ़ बैन का पाठ पढ़ा न सकी। केंद्रीय मंत्री किरण रिजिजू की बीफ़ खाने की स्वीकारोक्ति इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। गौ हत्या पर मॉब लिंचिंग, लव जेहाद और कश्मीर पर तनाव, ट्रिपल तलाक़ और हिजाब जैसे कई मुद्दे हवा में उछलते रहे। जम्मू-कश्मीर के कठुआ में आठ वर्षीय बच्ची के साथ गैंगरेप के बाद हत्या और उत्तर प्रदेश के उन्नाव में बीजेपी विधायक कुलदीप सिंह सेंगर द्वारा कथित तौर पर एक लड़की के साथ दुष्कर्म मामले का पूरे देश में ज़बरदस्त विरोध हो रहा था। दादरी हत्याकांड के आरोपियों का सत्कार समारंभ हुआ। इस बीच भी अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ होने वाली हर हिंसा को लेकर प्रधानमंत्री मोदी की चुप्पी जारी रही। प्रधानमंत्री ने इन सभी अपराधों और अन्य मामलों में शामिल कथित भाजपा सदस्यों के बारे में कुछ नहीं कहा।

एकतरफ़ा बात करना ठीक नहीं। मुस्लिम समाज के भी कुछ लोग हैं जिनकी ज़ुबान से निकले शब्द हिंदू-मुस्लिम के बीच की दूरियां बढ़ाने का बड़ा कारण होते हैं। इत्तेहाद-ए-मिल्लत काउंसिल के अध्यक्ष मौलाना तौक़ीर रज़ा उनमें से एक हैं जो इन दिनों चर्चा के केंद्र में हैं। वह मुस्लिमों के एक समूह के धार्मिक नेता माने जाते हैं। हालांकि वह आला हज़रत के ख़ानदान से आते हैं। इस्‍लामिक दुनिया में उनका बहुत सम्‍मान है। लेकिन उनके शब्दों से मुसलमानों को फ़ायदे के बजाय नुक़सान ज़्यादा हो रहा है। तौक़ीर रज़ा पर जिन्ना की भाषा बोलने का आरोप लग रहा है। उनका कहना है कि हिंदू राष्ट्र की मांग करने वालों पर सख़्ती करने की ज़रूरत है और अगर ऐसा नहीं हुआ तो मुस्लिम राष्ट्र की मांग उठेगी। उनका तर्क है कि अगर हिंदू राष्ट्र की मांग जायज़ है तो ख़ालिस्तान की मांग करने वालों पर मामले क्यों दर्ज किए जा रहे हैं? हिंदू राष्ट्र की मांग करने वालों को गिरफ़्तार क्यों नहीं किया जाता? कहीं ऐसा न हो कि कल मुस्लिम युवा हिन्दू राष्ट्र की चाहत में मुस्लिम राष्ट्र की बात करने लगें। हालांकि उन्होंने यह भी सफ़ाई दी है कि वह ऐसा नहीं होने देंगे। देश का एक और बंटवारा किसी क़ीमत पर नहीं होने दिया जाएगा। लेकिन तौक़ीर रज़ा की पहली वाली विवादित बात को जिन्हें ले उड़ना था वह ले उड़े। उनके बहाने तमाम मुसलमानों के ख़िलाफ़ ज़हर उगला जाने लगा। यह वही तौक़ीर रज़ा हैं जिन्‍होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को धृतराष्‍ट्र तक कह दिया था। तब भी काफ़ी हंगामा हुआ था। उनके जैसे आलिम से भाषा का संयम कैसे छूट जाता है यह तो पता नहीं, लेकिन उसका ख़ामियाज़ा आम मुसलमानों को ज़रूर उठाना पड़ता है। उनके बयान का विरोध करते हुए साक्षी महाराज ने जवाब में कह दिया कि १९४७ में देश का विभाजन हुआ, तब मुस्लिम राष्ट्र के नाम पर जिन्ना ने मुस्लिम राष्ट्र ले लिया, अब जो रह गया है वह केवल और केवल हिंदू राष्ट्र है। क्रिया की प्रतिक्रया आनी थी यह बात तौक़ीर रज़ा को समझनी चाहिए। यह दौर अगर ऐसे ही जारी रहा तो मोदी या उनके समर्थकों का तो कुछ न बिगड़ेगा लेकिन मुसलमानों की ज़िंदगी दुश्वार हो जाएगी। हिंसक लोगों को शायद यही चाहिए और तौक़ीर रज़ा वही ख़ुराक उन्हें दे रहे हैं।

उन लोगों को अपना समर्थन और विश्वास नहीं दिया जा सकता जो अपनी विभाजनकारी मानसिकता से इस देश में रहने वाले लोगों के बीच संघर्ष पैदा करना चाहते हों, फिर चाहे वह कितना ही बड़ा व्यक्ति क्यों न हो। वैसे भी बयानबाज़ नेताओं से कोई रचनात्मक कार्य तो होता नहीं, विवाद इनसे जी भरकर करवा लो। दूसरी महत्वपूर्ण बात कि आपसी लड़ाई से कोई तरक़्क़ी नहीं हो सकती। यह दूरी कम होनी चाहिए। अगर भाजपा अपना कथित धार्मिक चोला उतारकर सही मायनों में राजनीतिक पार्टी बन पाती तो मुस्लिम समुदाय शायद इस विकल्प पर ज़रूर विचार करता लेकिन ऐसा हो न सका। भाजपा के कई नेताओं ने ध्रुवीकरण का खेल जारी रखा। जवाबन मुसलमानों के कई नेताओं के बयान भी आग में घी का काम करते रहे। बात केवल मोदी, तौक़ीर रज़ा, साक्षी महाराज या किसी एक्स-वाय-ज़ेड की नहीं, बात इस देश की है, इस देश की संस्कृति की है, इस देश की सभ्यता की है, इस देश की एकता की है। अगर वह क़ायम रही तो अमन होगा नहीं तो सरकार बनाने, बचाने के खेल में कई और जानें अलग-अलग मुद्दों पर ली जा सकती हैं और किसी को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा। भावनाशून्य हो चुके लोगों को सत्ता के अलावा वैसे भी कुछ नहीं सूझता। फिर चाहे देश में सांप्रदायिक तनाव कितना भी बढ़ जाए उनकी बला से।


(लेखक मुंबई विश्वविद्यालय, गरवारे संस्थान के हिंदी पत्रकारिता विभाग में समन्वयक हैं। देश के प्रमुख प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं।)