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माँ........ सागर त्रिपाठी
Friday, October 9, 2015 - 9:34:25 PM - By सागर त्रिपाठी

माँ........  सागर त्रिपाठी
'माँ' को समर्पित मशहूर शायर सागर त्रिपाठी के अनमोल अश'आर
कम अज़ कम एहतियातन, मैं वज़ू तो कर ही लेता हूँ,
कभी जो शेर पढ़ना हो, मुझे माँ के हवाले से।

सहम जाता है दिल, घर लौटने पर शाम को मेरा,
अगर दहलीज़ पर माँ, मुन्तज़िर मुझको नहीं मिलती~

करिश्मा है ये जन्नत का, मेरे घर पे उतर आना,
ज़इऱ्फी में भी अम्मा का, मेरे सीने से लग जाना।

मुसल्सल दो जहाँ की, नेमतों से मैं मुअत्तर हूँ,
अभी तक है बसी साँसों में, माँ के दूध की ख़ुश्बू~

मेरे चेहरे पे लिक्खी, हर इबादत को समझती है,
मगर माँ ने कभी स्कूल का, मुंह तक नहीं देखा~

जकड़ लेती है क़दमों को, ज़ईफ आँखों की वीरानी,
मैं जब भी गाँव से, परदेस जाने को निकलता हूँ।

मैं जब तक पेट भरकर, शाम को खाना नहीं खाता,
निवाला हल्क़ से नीचे, कभी माँ के नहीं जाता~

न जाने कौन सी मिट्टी से, माँ का जिस्म बनता है,
जो बच्चा छींक दे तो, माँ को खाँसी आने लगती है।

दिया जलने से पहले, शाम को घर लौट आता हूँ,
मुझे घर देखकर, आँखों में माँ की दीप जलते हैं~

मैं रोकर पूछता हूँ, माँ मुझे हँस कर बताती है,
मेरा बचपन में सिक्का, माँ के आँचल से चुरा लेना।

काम करती जा रही, माँ की दुआ है आज भी,
राह बनती जा रही, है भीड़ में पथराव में~

हर इक मुश्किल में, रहमत की घटायें काम आती हैं,
ब अल्फाज़े दिगर माँ की, दुआयें काम आती हैं~

गुज़रना भीड़ से हो या, सड़क भी पार करनी हो,
अभी भी आदतन माँ, हाथ मेरा थाम लेती है।

मैं डर से अपनी पलकों को, झपकने ही नहीं देता,
कहीं बीमार माँ की, साँस का चलना न रुक जाये।

ख़ुदा तेरी इबादत की, मुझे फुर्सत नहीं मिलती,
मैं माँ की आख़िरी साँसों, की गिनती में लगा जो हूँ~

मुझे स्कूल माँ बचपन में, लेकर रोज़ जाती थी,
किसी दिन सोचता हूँ, माँ को मैं मन्दिर घुमा लाऊँ~

मैं इकसठ साल का बूढ़ा, कभी जब गाँव जाता हूँ,
मेरी आँखों में माँ, सोते समय काजल लगाती है~

हमें माँ की क़सम खाने में, कोई डर नहीं लगता,
किसी की माँ को, बेटे की क़सम खाते नहीं देखा~

कमाकर इतने सिक्के भी, तो माँ को दे नहीं पाया,
कि जितने सिक्कों से, माँ ने मेरा सदक़ा उतारा है~

मेरी साँसों की ख़ातिर, माँ ने इतने ग़म उठाये हैं,
इबादत के सिवा भरपाई, जिनकी कर नहीं सकता~

क़ज़ा इस वक्त मेरी राह, से बचकर ही निकलेगी,
सफ़र से क़ब्ल माँ ने जो, मेरा सदक़ा उतारा है~

तसव्वुर में भी माँ का, अक्स जब आँखों में आता है,
करिश्मा है कि तौफ़ीक़े, इबादत जाग जाती है~

किया फिर मुल्तवी अम्मा ने अपना शह्र का जाना,
बियाई गाय को कुछ दिन, हरा चारा खिलाना है~

है दिखता साफ़ ला़फ़ानी असर माँ की दुआओं में,
ख़ुदा की बरकतें नाती नवासों तक पहुँचती हैं~

आज तक आया न सपने में भी जन्नत का ख़्याल,
माँ के क़दमों में मिले `सागर' को जन्नत के मज़े~

बस सर पे सलामत रहे माँ का घना आँचल,
सूरज की तमाज़त से भला कौन डरे है~

मैं सोते वक़्त बचपन में अगर करवट बदलता था,
तो माँ मुँह में मेरे बादाम मिश्री डाल देती थी~

ज़ईफ़ जिस्म के काँधे पे काएनात लिए,
देख क़दमों तले जन्नत लिए माँ आये है~

सुना है माँ के कदमों के तले जन्नत सँवरती है,
उसी जन्नत के काँधे पर मेरा बेटा थिरकता है~

अगर माँ की अयादत को कभी मैं गाँव जाता हूँ,
सफ़र के वास्ते माँ चंद सिक्के दे ही देती है~

करिश्मा है कि जिस बेटे के घर माँ रहने लगती है,
दुआ बरकत से उस घर की कमाई बढ़ने लगती है~

अगर माँ शह्र आती है तो मैंने ये भी देखा है,
मुसल्सल घर में मेहमानों की आमद होती रहती है~

बस इतनी बात पर माँ शहर आने को नहीं राज़ी,
अगर वो गाँव छोड़ेगी तो तुलसी सूख जायेगी~

फ़लक से सायबाँ की क्या भला उसको ज़रूरत है,
ज़ईफ़ी में भी जिस बेटे के सर पे माँ का साया हो~

चमेली गाय माँ को देखकर अक्सर रँभाती है,
कि माँ बछड़े की ख़ातिर दूध थन में छोड़ देती है।

अभी तक कारगर है माँ की हिकमत नींद लाने में,
कहानी सात परियों की, महल के सात दरवाज़े~

किसी भी शाह का सारा ख़ज़ाना हेच लगता है,
वो माँ का एक सिक्का मुझको मेलेे के लिए देना~

बशर की छोड़िये सरकारे दो आलम ने परखा है,
दवा से कुछ न हो माँ की दुआ तब काम आती है।

मेरी नज़रों में वो कमज़र्फ है बदबख़्त किफाऱ है,
जो माँ के दूध को भी क़ऱ्ज कह क़ीमत लगाता है~

सजा हो लाख दस्तरख़्वान छप्पन भोग से लेकिन,
किसी लुक्मे से माँ के हाथ की ख़ुश्बू नहीं आती।

ग़ज़ब का ज़ायका था माँ तेरी बूढ़ी उँगलियों में,
जतन से हर निवाले को मुअत्तर घी से तर करना~

अगर दो चार दिन के वास्ते माँ शहर आती है,
रवादारी रिवायत, गाँव की सब साथ लाती है~

महज़ पल भर में तन जाता है सर पे माँ तेरा आँचल,
मुसीबत में जो साया साथ मेरा छोड़ देता है।

बलायें आ तो जाती हैं मेरी दहलाह़ज तक अक्सर,

मगर वो माँ का आँचल, चूमकर बस लौट जाती हैं~

शह्र ले आयी मुझे, दो वक़्त की रोटी मगर,
छोड़ आया हूँ ज़ईफ़ुल, उम्र माँ को गाँव में~

ये जबीं पुरनूर होकर, खिल उठेगी आपकी,
माँ के क़दमों की ज़रा, मिट्टी लगाकर देखिये~

बूढ़े दादाजी कहा करते, हैं बच्चे मुझको,

माँ मुझे आज भी, बूढ़ा नहीं कहती लेकिन~

सबसे बड़ा ग़रीब है, शायद वो आदमी,
महरूम रह गया है, जो माँ की दुआओं से।

बिछड़ते वक्त मैं हँसकर, ख़ुदा हाफ़िज़ तो कहता हूँ,
अकेली माँ मेरी पलकों का , गीलापन समझती है~

तसव्वुर में अगर, पल भर भी माँ की याद आती है,
मेरी नज़रों में तौफ़ीक़े, तिलावत जाग जाती है~

मोज्जिज़ा है कि करिश्मा है दुआ में उसकी,
साथ माँ हो तो मैं बीमार नहीं होता हूँ~

हमको शोहरत मिली, दौलत मिली इज़्जत भी मिली,
अब ज़रूरी है बहुत, माँ की दुआ ली जाए~

मोज्जिज़ा माँ, तेरी दुआओं का,
ख़ौफ़ हो क्यों, खुली हवाओं का~

माँ तेरी धड़कनों, से आयी है,
मुझ में उर्दू, ज़बान की धड़कन।

क़स्रे जन्नत है, पाँव के नीचे, कुर्बे काबा है, क़ुरबतें माँ की,
और चेहरे की झुुुर्रियाँ `सागर' आयतें शफ़कतों, के क़ुरआँ की~

दुआ, हिकमत की तासीर, माँ की रोटियों में है,
सफ़र के दरमियाँ हफ़्तों, तरोताज़ा ही रहती हैं।

ज़ायले मेरी ज़बाँ पर दुनिया भर के हैं मगर,
माँ की बासी रोटियों की बात ही कुछ और है~

शब के दामन से सहर, कोई उजाली जाये,
ज़िन्दगी जीने की अब, राह निकाली जाय~?

छाँव मिले जो उसके, रेशमी आँचल की,
ख़ाक जुनूने इश्क, न छाने जंगल की~

अल्ला अल्ला सिलवट, माँ के आँचल की,
हर इक मौज लगे, मुझको गंगा जल की। ?

अपनी साँसों में मेरी, धड़कनें समाये हुए,
व़जूद अपना ही खुद, दाँव पे लगाये हुए~

सँभल सँभल के क़दम, वो ज़मीं पे रखती थी,
मुझ को नौ माह तक, माँ कोख में छुपाये हुए~?

दुआयें साथ रोज़ो शब हैं, माँ के आस्ताने की,
मसर्रत और शोहरत है, जिन्हें हासिल ज़माने की~

बहुत बेख़ौफ़ होकर उम्र भर बेटों ने लूटा है,
मगर बरकत कभी घटती, नहीं माँ के ख़ज़ाने की।?

नज़र आता है लाफ़ानी, असर माँ की बदौलत ही,
दवा से कुछ नहीं होता, दुआयें काम आती हैं~

दुआयें दे के मेरी, आक़िबत सँवारती है,
बलायें ले के माँ, मेरी नज़र उतारती है।?

वो मेरी फ़िक्र में, दिन रात जागकर `सागर',
मेरे वजूद की हर, शय को माँ निखारती है~

कभी पढ़ना सिखाती हैै कभी लिखना सिखाती है,
अभी तक माँ सलीक़े से मुझे चलना सिखाती है~

सलीक़ा,सादगी,अज़्मत रिवायत भी तो शामिल है,
दुपट्टे से जो माँ बेटी को सर ढकना सिखाती है~

हया हुरमत की हर तहज़ीब को चुनकर क़रीने से,
कबा के हुस्न से बेटी को माँ सजना सिखाती है~

बला का हौसला रखती है माँ बेटी के हिस्से में,
बला से, गर्दिशों से भी उसे बचना सिखाती है~

लहू में जुरअते परवाज़ की तासीर ही `सागर',
परिन्दे को फ़लक पर शान से उड़ना सिखाती है~?

ग़रीबी जब भी मेरे हाथ में कशकोल देती है,
तरबियत माँ की गैरत के दरीचे खोल देती है~

उजाला फैलने लगता है मेरे घर में रहमत का,
सबेरे जैसे माँ बिस्तर में आँखें खोल देती है~

मेरी आँखों में आँखें डालकर माँ पूछ ले कुछ भी,
मैं बेशक चुप रहूँ लेकिन नज़र सच बोल देती है~

बलायें बन्द करती हैं जो इक दर खोल देती है,
दुआ माँ की तड़प कर सैकड़ों दर खोल देती है~

मैं ज़हरीली रुतों में जब भी माँ को याद करता हूँ,
फ़ज़ा में इक सदाये ग़ैब अमृत घोल देती है~

शिकम सैराब करती है, है जन्नत उसके क़दमों में,
भला औलाद माँ के दूध का क्या मोल देती है~?

हर मुश्किल का हल,
माँ तेरा आँचल।

माँ घर की तुलसी,
बाबू जी पीपल।

बाबू जी चरणामृत,
माई गंगाजल।

माँ घर की चौखट,
बाबू जी साँकल।

माँ माने मुझको,
आँखों का काजल।

माँ बाबू जी का घर,
जैसे हो देवल।

माँ - बाबा अमृत,
`सागर' खारा जल।