एक बार पुरुष अभिमानी,
अकड कर स्त्री से वह बोला।
है कोई स्त्री दुनिया में,
जिसने पुरुष के बल को तौला।
हंसती हुई स्त्री बोली,
सुन हे पुरुष अज्ञानी।
सचमुच जो बड़े होते हैं,
होते नहीं इतने अभिमानी।
इस पर कड़क कर पुरुष बोला,
सुन हे स्त्री कमजोर।
मुझमें कितनी ताकत है,
तू नाप सके न उसकी छोर।
मैं वीर शिवाजी जैसा सुर,
मैं महाराणा जैसे बलवीर ।
मुझ में सुभाष का जोश भरा,
मुझमें भगत का बलिदान धरा ।
पर तेरी आखिर क्या है औकात,
मेरे सामने तेरी क्या है बिसात।
फिर हंसकर स्त्री ने दिया जवाब,
कहा सुनो हे अकडू जनाब।
स्त्री को तू कमजोर न आँक,
मेरे सामने मत इतना हाँक।
माना है तू बलशाली,
मुझ में भी तो है शक्ति निराली।
ईश्वर का वरदान है स्त्री,
सुंदरता का प्रमाण है स्त्री ।
पुरुष की पहचान है स्त्री,
शक्ति का परिमाण है स्त्री।
सहनशीलता का जीवित उदाहरण है स्त्री,
सीता जी जैसी पवित्र है स्त्री।
लक्ष्मीबाई जैसी बलवती है स्त्री,
राधा सी धैर्यवती है स्त्री।
अरे सुन! तुझ जैसे पुरुष की माता भी तो है स्त्री।
इस पर थम सा गया पुरुष,
हाथ जोड़कर वह बोला।
माफ करो न झगड़ा कोई,
नहीं बड़ा न कोई छोटा।
दोनों हम हैं जरूरी धरा पर,
एक दूजे बिन हम हैं अधूरे।
दोनों का स्थान अलग है,
न कोई कम है,
न कोई ज्यादा,
नहीं लड़ने का कोई फायदा।
नहीं लड़ने का कोई फायदा।
शिक्षक, कवि तथा पत्रकार संगीता शुक्ला