साभार- दोपहर का सामना 22 10 2021
वर्ष २०२२ उत्तर प्रदेश के लिए राजनीतिक रूप से बड़ा महत्वपूर्ण होगा। अगले वर्ष उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव होने हैं। सभी पार्टियों ने अपनी-अपनी भुजाएं तान ली हैं। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ अपनी कुर्सी बचाए रखने के लिए हर संभव प्रयास करेंगे। अखिलेश यादव दोबारा सत्ता में आने का ख़्वाब देखते हुए राज्य के साथ ही केंद्र सरकार को घेरने का कोई मौक़ा नहीं छोड़ रहे। मायावती ने आश्चर्यजनक चुप्पी साध रखी थी लेकिन अब वह भी सक्रिय हो गई हैं। वैसे पिछले कई वर्षों से उत्तर प्रदेश में प्रमुख मुक़ाबला इन्हीं तीन दलों के बीच होता आया है। लेकिन इस बार प्रियंका गांधी ने सड़क पर उतर कर जिस तरह योगी सरकार के ख़िलाफ़ आंदोलन की कमान संभाली है, उस से कांग्रेस में नई ऊर्जा का संचार हुआ है। कांग्रेस सत्ता में आए न आए, लेकिन संभवतः वह पिछली बार की तुलना में इस बार कुछ अधिक सम्मानजनक स्थिति में आ जाए। असदुद्दीन ओवैसी, ओमप्रकाश राजभर, अरविंद केजरीवाल, चंद्रशेखर रावण जैसे नेताओं की पार्टियां कितनी सीटें जीतेंगी, इस से ज़्यादा किसे कितना नुक़सान पहुंचाएंगी इस पर बहुत कुछ निर्भर करता है। इनमें से कई का किसी न किसी दल से गठबंधन भी हो सकता है। मसला मुस्लिम वोटों का भी है। कुछ साल पहले जो मुसलमान वोट बैंक थे आज वे राजनीतिक रूप से अछूत बना दिए गए हैं। मोदी-योगी काल में इस वोट बैंक को ज़बरदस्त चोट पहुंची है। राजनीति के मैदान में भाजपा ने कुछ ऐसी बिसात बिछाई है कि मुस्लिम समाज की खुलकर तरफ़दारी से हर दल बचता नजर आता है। ऐसा करने से बहुसंख्यक वोटों के भाजपा की तरफ़ खिसकने का डर बना हुआ है। हाँ, एक ओवैसी ही ऐसा कर रहे हैं, लेकिन अभी उत्तर प्रदेश की सियासत ने उन्हें पूरी गंभीरता से स्वीकार नहीं किया है।
राजनीतिक गहमागहमी और सभी दलों की कोशिशों के बीच मुस्लिम समाज ख़ुद भी अपने आप को मानसिक रूप से तैयार कर रहा है। पिछले दिनों उत्तर प्रदेश के बरेली ज़िले में विभिन्न राज्यों से आए हुए उलेमा ने मुसलमानों के मसले पर विस्तार से चर्चा कर उनकी समस्याएं समझने का प्रयास किया। उलेमा यहीं नहीं रुके बल्कि उन्होंने मुसलमानों, हुकूमतों और राजनीतिक पार्टियों के कामों का जायज़ा लेते हुए मुस्लिम एजेंडा भी तैयार किया है, जिससे आने वाले चुनाव में अपनी बातें आसानी से राजनेताओं और अवाम के बीच रखी जा सकें। इस एजेंडे के तहत मुसलमानों को निर्देश दिया गया है कि पहले वह अपने समाज में शिक्षा, व्यापार और परिवार पर ध्यान दें। एक बात तो तय है कि मुसलमानों की तरफ़ से केंद्र और राज्य सरकारों को साफ़ शब्दों में कहने का वक़्त आ गया है कि देश की एकता और अखंडता के लिए मुसलमान हर क़ुर्बानी देने के लिए तैयार है, लेकिन हिंदू और मुस्लिम के बीच नफ़रत फैलाने वाली राजनीति बंद की जानी चाहिए। यह भी साफ़ होना चाहिए कि मुसलमानों के साथ नाइंसाफ़ी, ज़ुल्म और ज़्यादती को भी सहन नहीं किया जाएगा। लेकिन सवाल यही है कि क्या मुस्लिम समाज के बीच का कोई संगठन बिना किसी राजनीतिक ताक़त के अपनी बात रख पाएगा?
मुस्लिम समाज को चाहिए कि किसी ख़ास दल से जुड़कर हाशिये पर किए जाने से बचते हुए वह केंद्र और राज्य की सरकारों के साथ-साथ उन सभी दलों से खुलकर सियासी संवाद करे जो उनके वोटों पर निगाह रखते हैं। मुसलमान खुलकर सरकारों को बताएं कि मुस्लिम समाज देश की एकता और अखंडता पर काम करने वाली केंद्र या राज्य सरकारों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम करने को तैयार है बशर्ते उनपर किसी भी दल का पिट्ठू होने का लेबल हटाया जाए। सरकारों का ध्यान इस बात की ओर आकर्षित करवाया जाए कि अल्पसंख्यकों के उत्थान के लिए बनाई गई योजनाओं का फ़ायदा मुसलमानों को नहीं मिल रहा। इस व्यवस्था में बदलाव किया जाए। मुस्लिम समाज तुष्टिकरण जैसे आरोपों से बचने के फ़ॉर्मूले पर अमल करे। सरकारों के साथ बातचीत में मुमकिन हो तो अपने समाज के बेक़सूर उलेमा और नौजवानों की गिरफ़्तारियों पर भी चर्चा करें। लेकिन यह चर्चा भावनात्मक न होकर तथ्यात्मक हो। मुसलमानों में असुरक्षा की भावना क्यों फैल रही है, इस विषय पर भी खुल कर बात हो सकती है। पिछले कुछ वर्षों में लव-जिहाद, माॅब-लिंचिंग, धर्मांतरण, टेरर फ़ंडिंग और आतंकवाद के नाम पर मुसलमानों को भयभीत और परेशान किये जाने के आरोप सरकार पर लगे हैं। मुस्लिम तंज़ीमें इस विषय पर भी अपनी बात रख सकती हैं। जिन मुद्दों को लेकर हिंदू-मुस्लिम सांप्रदायिक सौहार्द को ख़तरा हो सकता है ऐसे विषय को भी उठाना समय की सबसे बड़ी ज़रूरत बन गया है।
मुसलमानों ने न जाने कितने राज्यों में आरक्षण के मुद्दे पर आंदोलन किये हैं। आरक्षण मांगना ही है तो मुसलमानों को आर्थिक आधार पर सरकारी नौकरियों में आरक्षण की मांग करनी चाहिए। उत्तर प्रदेश के मदरसों में आधुनिक शिक्षा देने वाले शिक्षकों की तनख़्वाह साल भर से नहीं आई है। किसी भी राजनीतिक दल ने इस पर मुखर आवाज़ नहीं उठाई है। तनख़्वाह न मिलने से परिवार को परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है। क्या यह मुद्दा कम गंभीर है? राजनैतिक दलों के लिए भीड़ इकठ्ठा करने का साधन बनने के बजाय ऐसे मुद्दों को सामने लाने की ज़रूरत है। लेकिन सरकारों और राजनितिक दलों से यह स्पष्ट कर देना होगा कि बनने वाली सरकारें सभी समुदाय को साथ लेकर चलें। किसी समुदाय के साथ भेदभाव न किया जाए। जो दूरियां तुष्टिकरण और मुंह-भराई के नाम पर मुसलामानों के मत्थे मढ़ी गई हैं, उसका नुक़सान केवल मुसलमानों को ही हुआ है। ऐसे में भेदभाव का केंद्र बनने से बचने की ज़रूरत है। कड़वी सच्चाई यह है कि अनेक राजनीतिक पार्टियां वोट लेने के लिए मुसलमानों को इस्तेमाल करती हैं। यह भी देखा गया है कि सरकार बना लेने के बाद वह समाज को भूल जाती हैं। राजनीतिक दलों के साथ चर्चा करते वक़्त उन्हें स्पष्ट कर देना होगा कि उन्हें अपने तरीक़े बदलने होंगे। उन्हें यह सख़्ती से बताना होगा कि मुसलमान किसी भी एक राजनीतिक पार्टी का ग़ुलाम नहीं है। जो भी पार्टी मुसलमानों की समस्याओं और उनके अधिकारों पर ध्यान देगी, मुसलमान उसके साथ खड़ा होगा।
मुस्लिम समाज का मसला केवल राजनीतिक नहीं है। कुछ कार्य तो बिना किसी राजनैतिक लाभ-हानि के ख़ुद मुसलमानों को आगे आकर करना होगा। आंकड़ों का अध्ययन बताता है कि वर्ष २०२०-२०२१ में मुसलमानों की शिक्षा दर कुछ हद तक बढ़ी है, लेकिन यह पूरी तरह संतुष्टि के लायक़ नहीं है। इसके लिए लगातार कोशिशें जारी रखने की ज़रूरत है। मुस्लिम समाज को अगर राजनैतिक रूप से मजबूत होना है तो अमीर मुसलमानों को चाहिए कि गरीब और कमज़ोर तबक़े की मदद करते हुए मुस्लिम समाज को शिक्षित करने का बीड़ा उठाएं। आर्थिक कमज़ोरी मुसलमानों की सबसे बड़ी कमज़ोरी है। इसी के साथ-साथ राष्ट्र की मुख्यधारा से जुड़ने के लिए मदरसों और मस्जिदों में चलने वाले दीनी मकतबों में हिंदी, अंग्रेज़ी, विज्ञान और कंप्यूटर शिक्षा की व्यवस्था करने से मुसलमानों को पीछे नहीं हटना चाहिए। मुस्लिम समाज को अब भावनात्मक मुद्दों के बहकावे में आना बंद करना होगा और अपनी वास्तविक समस्याओं को हल करने के लिए राजनीति को एक औज़ार के तौर पर इस्तेमाल करना सीखना होगा। यह काम मज़हबी नेताओं से दूरी बनाकर उनकी जगह नए सामाजिक-राजनीतिक नेतृत्व पैदा किए बिना नहीं किया जा सकता। लोकतंत्र की मज़बूती के लिए मुस्लिम समाज में असुरक्षा की भावना को बढ़ाने की हर कोशिश पर लगाम लगाया जाना ज़रूरी है। ज़रूरी है कि अब तुष्टिकरण के आरोपों की राजनीति बंद हो और मुस्लिम समाज की समस्याओं को राजनीति के एजेंडे पर लाया जाए।
(लेखक मुंबई विश्वविद्यालय, गरवारे संस्थान के हिंदी पत्रकारिता विभाग में समन्वयक हैं। देश के प्रमुख प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं।)