मैंने अपना सफ़र ओड़िशा के छोटे से गांव से शुरू किया था... जहां, शुरुआती शिक्षा पाना भी सपनीला लगता था। तमाम मुश्क़िलों के बावजूद मैं अपने इरादे से डिगी नहीं और मैं कॉलेज जाने वाली गांव की पहली बेटी बनी। दूर-दराज के आदिवासी समुदाय में जन्म लेने के बावजूद मुझे वार्ड पार्षद से राष्ट्रपति के पद तक जाने का मौक़ा मिला। यही भारत जैसे लोकतंत्र की महानता है। इस पद पर रहना न केवल मेरी व्यक्तिगत उपलब्धि है, बल्कि यह देश की हर आर्थिक रूप से वंचित लड़की की भी उपलब्धि है। यह इस बात का प्रमाण है, कि हमारे देश में आर्थिक रूप से वंचित लोग न केवल सपने देखने का साहस कर सकते हैं, बल्कि उन्हें साकार करने के मौक़े भी पा सकते हैं।”
भारत की 15वीं राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू, जुलाई 2022 में राष्ट्रपति पद के लिए शपथ लेने के बाद अपने भाषण में अपने स्कूल के दिनों से ही समानता की वकालत करने वाली युवा द्रौपदी मुर्मू ने उस दौरान अपनी आवाज़ बुलंद की थी, जब क्लास में लड़कों ने उनके यानी 'एक लड़की' के मॉनिटर बनने का विरोध किया था। बावजूद इसके की क्लास में प्रथम आने वाले को मॉनिटर बनाए जाने का नियम था। उनके शिक्षक ने उनका समर्थन किया और उन्हें वह पद दिया गया, जिसे उन्होंने कड़ी मेहनत करके निभाया भी। इस मौक़े ने न केवल उनके नेतृत्व की क्षमता, बल्कि उनकी न्यायप्रियता का संकेत दिया।
वह शिक्षा पाने के लिए इतनी उत्साही थी कि, घर के कामों की ज़िम्मेदारी के बावजूद स्कूल का एक भी दिन नहीं छोड़ती थी। राष्ट्रपति बनने के बाद एक साक्षात्कार में उन्होंने उल्लेख किया कि, वह नंगे पैर स्कूल जाती थीं, क्योंकि उनके पास चप्पल तक नहीं थे। वह एक भी दिन नहीं चूकती थी; आगे की घटना इस बात की पुष्टि करती है। वे एक भारी बरसात के दिन बह निकले नाले में तैरकर, सिर से पांव तक पूरी तरह से भीगी-भीगी स्कूल पहुंची और फिर भी पढ़ने के लिए तैयार थीं!
उस दौर में उन्हें घर के कामों में भी मदद करनी पड़ती थी - बर्तन धोना, फ़र्श साफ करना, कुएं से पानी लाना। उन्होंने यह सब किया। उनकी दादी उन्हें हर दिन अल-सुबह चावल की भूसी निकालने के लिए उठाती थीं। और साथ ही लैम्प जलाकर पढ़ने के लिए के लिए क़ीमती मिट्टी के तेल को ख़र्च करने को लेकर अपनी नाख़ुशी भी ज़ाहिर कर देती थीं। क्योंकि, उन्हें लगता था कि लड़कियों के लिए घरेलू काम करना बेहतर है। द्रौपदी ने उच्च शिक्षा के लिए भुवनेश्वर के एक स्कूल में प्रवेश पाने के लिए (क्योंकि, उस समय, 1970 के दशक की शुरुआत में, उनके गांव में कोई हाई स्कूल नहीं था।) क़रीबी क़स्बे में दौरे पर आए एक मंत्री से ख़ूब मिन्नते की।
वह न केवल अपने गांव से पढ़ाई के लिए भुवनेश्वर शहर जाने वाली पहली लड़की बनीं, बल्कि कॉलेज जाने वाली पहली बेटी भी बनीं। वहां वह 10 रुपए के मासिक भत्ते (इतनी ही राशि उनके पिता उन्हें भेज पाने में सक्षम थे) पर मितव्ययता से रहती थी। इसके अलावा उन्हें बोर्डिंग और खाना-पीना हॉस्टल से मिल जाता था। हमेशा ही शिक्षा उनका एकमात्र फ़ोकस रहा। स्नातक स्तर की पढ़ाई के तुरंत बाद, उन्होंने ओडिशा सरकार के सिंचाई विभाग में जूनियर असिस्टेंट के पद के लिए प्रवेश परीक्षा दी और उत्तीर्ण होने पर चार साल तक वहां काम किया। इस बीच, वह अपने भावी पति बैंक अधिकारी श्याम चरण मुर्मू से मिलीं और उनसे शादी कर ली। बच्चों को संभालने के लिए उन्होंने अपने करियर से ब्रेक लिया। आगे चलकर मौक़ा मिलने पर उन्होंने रायरंगपुर, ओडिशा में श्री अरबिंदो इंटीग्रल एजुकेशन ऐंड रिसर्च सेंटर में शिक्षिका के पद पर नौकरी शुरू कर दी। वे केवल रचनात्मक जुड़ाव के लिए यह नौकरी करना चाहती थीं, इसलिए वह केवल शिक्षा और बच्चों के प्रति अपने प्यार के लिए, अपनी सेवाएं देने के लिए स्कूल में शामिल हुईं। अपनी सेवा के लिए उन्होंने स्कूल की ओर से कोई भी पारिश्रमिक स्वीकार नहीं किया।
शिक्षा और युवाओं में निवेश
कई अन्य चीज़ों के अलावा शिक्षा के प्रति उनका जुनून झारखंड के राज्यपाल के रूप में उनके कार्यकाल के दौरान क़ायम रहा। उनके पद ने उन्हें राज्य के सभी विश्वविद्यालयों का चांसलर बनने का भी मौक़ा दिया। गवर्नर मुर्मू ने पाया कि छात्रों को एक कोर्स करने के लिए छह साल का समय लगाना पड़ता है, जिसमें आमतौर पर तीन साल लगते हैं। न प्रवेश समय पर होते थे, न ही परीक्षाएं समय पर ली जाती थीं और नतीजे भी तय वक़्त पर घोषित नहीं किए जाते थे। वह बुनियादी ढांचे और प्रणालीगत योजनाओं की इन कमियों और मामलों की असामयिकता से व्याकुल थीं। प्लस टू संस्थान (कक्षा 12 के समकक्ष) आश्चर्यजनक रूप से ग़ायब थे। हालांकि, जो छात्र ख़र्च को वहन कर सकते थे, उन्होंने पढ़ने के लिए छत्तीसगढ़ या ओडिशा का रुख़ किया। लेकिन, जो छात्र इस तरह का ख़र्च करने में असक्षम थे, वे राज्यपाल की प्राथमिक चिंता बन गए।
उन्होंने इस अस्त-व्यस्त स्थिति को सुव्यवस्थित करने और सेमेस्टर प्रणाली लागू करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। वाइस-चांसलर्स और विभिन्न विभागीय सचिवों के साथ हर तिमाही बैठकें आयोजित कर, उन्होंने सुनिश्चित किया कि, सारी व्यवस्था कम्प्यूटर द्वारा यानी डिजिटल हो। साथ ही उन्होंने आवेदन करने और परिणाम देखने के लिए ऑनलाइन सुविधाएं भी शुरू करवाईं। प्लस टू कक्षाओं को शामिल करने के लिए स्कूलों को अपग्रेड किया गया, महत्वाकांक्षी छात्रों की बढ़ती संख्या को पूरा करने के लिए अतिरिक्त कॉलेज तैयार किए गए और नौकरी पाने के लिए सुलभ पाठ्यक्रम शुरू किए गए, ताकि छात्र ग्रैजुएशन होते ही काम करना शुरू कर सकें।
कला और खेल को भी नज़रअंदाज़ नहीं किया गया। न केवल नए पाठ्यक्रम शुरू किए गए, बल्कि राज्यपाल मुर्मू ने चांसलर ट्रॉफ़ी की भी शुरुआत की, जिसके तहत राज्य के विश्वविद्यालय के छात्र विभिन्न शैक्षणिक और गैर-शैक्षणिक कार्यक्रमों में भाग ले सकते थे। जिससे उन्हें अपने करियर में आगे बढ़ने के लिए और बड़े स्तर पर पहुंचने व ज़िंदगी में आगे बढ़ने के कई मौक़े मिलते थे। अप्रैल 2017 में एक कार्यक्रम के उद्घाटन पर उन्होंने कहा, "शिक्षा मानव विकास का मूलभूत आधार है। हम झारखंड में शिक्षा के स्टैंडर्ड को उठाने की कोशिश कर रहे हैं। मैंने राज्य के सभी विश्वविद्यालयों के वाइस-चांसलर्स को ऑडियो-विज़ुअल सिस्टम के साथ स्मार्ट कक्षाएं शुरू करने का निर्देश दिया है। हमने कॉलेज के बुनियादी ढांचे में सुधार पर ध्यान केंद्रित किया है और मौजूदा समय में हम कॉलेजों में शिक्षा के डिजिटलीकरण पर जोर दे रहे हैं।" राज्यपाल मुर्मू जानती थीं कि, बदलाव की शुरुआत शिक्षा के पूर्व-प्राथमिक और प्राथमिक स्तर से होनी चाहिए, इसलिए उन्होंने लड़कियों की शिक्षा की समीक्षा करने और इसे लागू करने के लिए राज्य के 24 जिलों के लगभग सभी कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालयों (केजीबीवी) का दौरा किया। उन्होंने अपने दौरों में इन स्कूलों में सुरक्षा, संरक्षण और चिकित्सा की ज़रूरतों के लिए एक नियमित सिस्टम को सुनिश्चित किया।
देश के प्रथम नागरिक के रूप में राष्ट्रपति मुर्मू देश के युवाओं में अटूट विश्वास प्रदर्शित करती रहती हैं और उनसे मातृभूमि के प्रति, साथी नागरिकों के उत्थान और राष्ट्र के निर्माण में योगदान देने के लिए बार-बार आह्वाहन करती हैं। राष्ट्रपति के रूप में राष्ट्र के नाम अपने पहले भाषण में उन्होंने कहा, "मैं हमारे देश के युवाओं को कहती हूं, कि आप न केवल अपना भविष्य बना रहे हैं, बल्कि साथ ही भविष्य के भारत की नींव भी रख रहे हैं। देश की राष्ट्रपति होने के नाते मैं हमेशा आपकी पूरी मदद के लिए तत्पर रहूंगी।"
दूसरों की निस्वार्थ वकालत
देश को पहली बार बतौर राष्ट्रपति संबोधित करते हुए उन्होंने कहा था, कि मेरे लिए यह गर्व की बात है, कि मैंने अपना राजनीतिक करियर तब शुरू किया, जब देश अपनी आज़ादी का 50वां साल मना रहा था और स्वतंत्रता दिवस के 75वें साल पर मैं देश के सर्वोच्च पद पर पहुंच गई। राष्ट्रपति मुर्मू ने स्कूल में पढ़ाने के बाद का अपना वक़्त दूसरों की मदद करने और सामाजिक कार्यों में लगा दिया। एक वीडियो साक्षात्कार में उन्होंने बताया कि, उनके इन प्रयासों की सराहना करने वालों ने उनके सामने राजनीति में शामिल होने का विचार रखा, तो वे थोड़ी असमंजस की स्थिति में आ गई थीं। ख़ासतौर पर इस बात को लेकर कि, वे अगर राजनीति में शामिल हुईं, तो उन्हें अपने परिवार से दूर जाना होगा। जबकि, वे अपने परिवार की देखभाल के लिए उनके साथ रहना चाहती थीं। जब उन्हें आश्वासन दिया गया कि, रायरंगपुर नगर पंचायत के पार्षद के रूप में उन्हें घर नहीं छोड़ना पड़ेगा और लोगों की भलाई के लिए काम करने के उन्हें मौक़े भी ज़्यादा मिलेंगे, तो वह चुनाव लड़ने के लिए तैयार हो गईं। आगे चलकर वे जीत भी गईं। जैसे ही उन्होंने अपने वरिष्ठों से काम करना सीखा और स्वच्छता विभाग की ज़िम्मेदारियां संभालीं, उनकी अनिच्छा धीरे-धीरे कम हो गई।
वे कहने से पहले करने में विश्वास रखती थीं, इसलिए स्वच्छता कार्यक्रम को लागू किया जा रहा है या नहीं यह जांचने के अपने अधीन 15 वार्डों में वे ख़ुद ही सर्वे करने पहुंच गईं। उन्होंने एक साक्षात्कार में ख़ुलासा किया, "मेरे पति ने मेरे लिए मेरी पहली कार मारुति 800 ख़रीदी, जिसमें मैं वॉर्डो तक जाती थी।" ओडिशा में गर्मियों में तापमान 40-42 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाता है, ऐसी चिलचिलाती गर्मी में भी उन्होंने अपने कार्यकाल के दौरान गतिविधियों की निगरानी करने का ज़िम्मा पूरी ईमानदारी से उठाया। उनके हमेशा ही मौजूद होने और कर्तव्य-निष्ठा से गांव-क़स्बे के सभी लोग काफ़ी प्रभावित हुए, ख़ास तौर पर महिलाओं पर इसका काफ़ी असर हुआ। प्रशासन में भी कई लोग उनके काम के प्रति नैतिकता के बारे में जानते थे, जिसके चलते उन्हें ओडिशा विधान सभा का चुनाव लड़ने के लिए टिकट मिल गया। उन्होंने 2000 से 2009 तक, लगभग एक दशक तक विधान सभा के सदस्य के रूप में काम किया। वह राज्य मंत्री रही हैं, जहां उन्हें वाणिज्य और परिवहन का स्वतंत्र प्रभार दिया गया था। आगे चलकर उन्हें मत्स्य पालन और पशु संसाधन विकास मंत्रालय भी संभालने के लिए दिया गया था।
तात्कालीन विधायक मुर्मू के अनुकरणीय काम ने उन्हें 2007 में ओडिशा विधान सभा के सर्वश्रेष्ठ विधायक के लिए नीलकंठ पुरस्कार दिलाया था। एक साक्षात्कार में उस समय के बारे में एक दिलचस्प क़िस्सा साझा करते हुए, उन्होंने बताया कि, कैसे उनके काम करने की शैली और तरीक़ों की सराहना करते हुए उन्हें यह पुरुस्कार देने का फ़ैसला जूरी के सदस्यों ने किया था। “मैंने वाणिज्य और परिवहन विभाग, जिसकी मैं प्रभारी थी, के बारे में सुना और पढ़ा था। मेरे अधिकारियों ने भी मुझे इसके बारे में जानकारी दी - विभाग का मुख्य उद्देश्य राजस्व कमाना था,'' उन्होंने आगे जोड़ा। अपने कार्यकाल के दौरान उन्होंने नियमित बैठकों और बार-बार फ़ॉलो-अप कर अपने काम व सिस्टम में एक पारदर्शिता लाई थी। उनके द्वारा तैयार किए गए सिस्टम्स ने विभाग की कार्यप्रणाली को बेहतर बनाने में मदद की, जिससे वह पहले कमियों, ख़ासकर धांधलियों पर अंकुश लगाने और फिर उसे रोकने में सक्षम हुईं। जिसके चलते राजस्व के संग्रह में उल्लेखनीय बढ़ोतरी हुई। उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा, "इतनी बढ़त हुई कि तात्कालीन मुख्यमंत्री भी उनके काम से ख़ुश थे।"
एक विधायक के रूप में मुर्मू ने कभी भी एक भी विधानसभा सत्र नहीं छोड़ा और सभी प्रश्नकाल (विधानसभा में बैठक सत्र का पहला घंटा, जो किसी भी प्रशासनिक गतिविधि के बारे में सवाल उठाने वाले सदस्यों के लिए समर्पित है) और चर्चाओं में ईमानदारी से भाग लिया। वे उस समय भी मौजूद थीं, जब विधायक शून्यकाल के दौरान कोई तत्काल सार्वजनिक महत्व के मुद्दों को विधानसभा में उठाते थे। उन्होंने बताया, ''मैंने जो मुद्दे उठाए, उसने लोगों को प्रभावित किया... मैंने अपने क्षेत्र से संबंधित सभी सवालों का ईमानदारी से जवाब दिया।'' वह अपना होमवर्क करती थीं, किताबें पढ़ती थीं, दस्तावेज़ों पर गौर करती थीं और रिकॉर्डों की पूरी जांच-पड़ताल करती थीं। वे पूरी तरह से तैयार होकर जवाब देने के लिए अक्सर रात भर काम किया करती थीं।
उन्होंने स्वीकार किया कि वे धन्य हैं, क्योंकि उन्हें यानी "ओडिशा की एक आदिवासी महिला" को विभिन्न दलों का प्रतिनिधित्व करने वाले जूरी सदस्यों द्वारा सर्वश्रेष्ठ विधायक घोषित किया गया था। उन्होंने एक साक्षात्कार में उल्लेख किया कि, लोगों के जीवन को बेहतर बनाने के लिए मिले अवसरों के लिए वास्तव में वे धन्य और आभारी हैं।
दो कार्यकाल पूरा करने के बाद वह साल 2009 में चुनाव हार कर घर लौट आईं। फिर एक दिन अचानक ही, उनके एक राजनीतिक परिचित ने उन्हें अपना बायोडाटा साझा करने को कहा। उन्होंने सोचा कि शायद उन्हें स्थानीय निगमों में से किसी एक में भर्ती किया जाएगा। उन्हें बिल्कुल भी अंदाज़ा नहीं था, कि किसी बड़े काम के लिए उन्हें चुना जा रहा है! वह झारखंड राज्य के राज्यपाल का पद निकला; वह यह ख़िताब हासिल करने वाली पहली महिला रही हैं। उनके शपथ ग्रहण समारोह के दौरान राजभवन के गेट पर भीड़ उमड़ पड़ी। झारखंड भी एक आदिवासी बहुल राज्य है (बिल्कुल उनके गृह राज्य ओडिशा की तरह)। वह जानती थीं कि वह जिस स्थान से आई हैं, वहां की संस्कृति, परंपराएं और जीवनशैली इन लोगों से मेल खाती हैं। साथ ही यह उनके घर के बहुत क़रीब है। उन्होंने इस मौक़े पर कहा, "मुझे ख़ुशी है, कि मुझे एक महिला के रूप में अपनी क्षमताओं और योग्यता का प्रदर्शन करने का अवसर मिला।"
सभी बाधाओं से टकराकर
सफलता की राह पर द्रौपदी की गाड़ी कई बार कठिनाइयों, संघर्षों और हार की वजह से पटरी से उतरी। उनका 25 वर्षीय बड़ा बेटा एक सुबह मृत पाया गया। उन्हें लगा था, कि वे इस दुख से उबर नहीं पाएंगी, लेकिन ब्रह्म कुमारी की जीवन शैली या कहें राह पर उन्हें ज़रूरी सांत्वना और नैतिक समर्थन मिला। आख़िरकार वे अपनी निराशा पर क़ाबू पाने में सफल रहीं और उन्होंने अपने छोटे बेटे और अपनी बेटी के लिए अच्छा जीवन जीने का संकल्प लिया।
लेकिन दुर्भाग्यवश, कुछ ही सालों बाद उनके छोटे बेटे की एक दुर्घटना में मृत्यु हो गई, जिसका उनके पति पर भी गहरा प्रभाव पड़ा। वह पहले से ही लंबी बीमारी से जूझ रहे थे। जिसके चलते उन्होंने अपने पति को भी खो दिया। कुछ ही महीनों के भीतर उनकी मां और उनके एक भाई का भी निधन हो गया। उनके पास अब उनकी बेटी थी, जिसका उन्हें ख़्याल रखना था। वे अपनी बेटी व ख़ुद में आगे बढ़ते रहने की इच्छाशक्ति बनाए रखने की कोशिश में जुटी रहीं। यह जीवन के प्रति उनका नया दृष्टिकोण था, जिसने आगे चलकर उनकी मदद की। उन्होंने एक साक्षात्कार में कहा, “ज़िंदगी बुलबुले की तरह नाज़ुक है। कोई भरोसा नहीं है, कब कौन इस दुनिया से चल बसे; कुछ भी हमारे नियंत्रण में नहीं है। माता-पिता के रूप में, हम जीवन को इस दुनिया में लाने का एक माध्यम मात्र हैं। हम ज़िंदगी को हल्के में नहीं ले सकते, यह संघर्षों, ख़ुशियों और दुखों से भरी हुई है। जैसे हम ख़ुशी का स्वागत करते हैं, वैसे ही हमें दुख भी सहना होगा और इसके लिए हमें हमारे दिल व दिमाग़ दोनों को मज़बूत बनाए रखना होगा। कुछ भी सदा के लिए नहीं होता!"
आज, दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के 15वें राष्ट्रपति के रूप में, द्रौपदी मुर्मू सादा जीवन के अपने सिद्धांत की शपथ लेती हैं। अपनी रोज़मर्रा की मेडिटेशन और क्रिया के लिए वे सुबह 3.30 बजे उठ जाती हैं और उसके बाद हल्का व्यायाम करने के बाद मीटिंग्स और कार्यक्रमों के लिए निकलती हैं। शाम को समाचार देखने के बाद सोने से पहले एक बार फिर वे मेडिटेशन यानी ध्यान करती हैं। उनके क़दमों में हर वह चीज़ मौजूद होगी, जिसकी वे इच्छा व्यक्त करें, लेकिन इस चमक-दमक में भी वह उस युवा लड़की के प्रति सच्ची रहती हैं, जो ऊपरबेड़ा में पली-बढ़ी है। उन्हें आज भी स्वादिष्ट छप्पन भोग की बजाय सादे चावल और सब्ज़ी में ज़्यादा स्वाद आता है। वे अपने कर्म के प्रति पूरी ईमानदारी बरतती हैं, जैसे कि उनसे उम्मीद है। इस सभी ऊहा-पोह के बीच वे देश भर में महिलाओं और आदिवासियों को सशक्त बनाने के लिए लगातार काम करने में जुटी हुई हैं।
एक महिला के लिए दूसरी महिला का साथ
“…मैं युवा महिलाओं के आत्मविश्वास से सुखद आश्चर्य से भर जाती हूं। मेरे मन में कोई संदेह नहीं है, कि वे कल के भारत को आकार देने के लिए बड़ी भूमिका निभाएंगी। यदि इस आधी आबादी को अपनी सर्वोत्तम क्षमता से राष्ट्र-निर्माण में योगदान देने के लिए प्रोत्साहित किया जाए, तो ज़रा सोचिए, क्या चमत्कार नहीं हो सकते?” राष्ट्रपति ने इस वर्ष 74वें गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में कहा। राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू की ज़िंदगी पहले ही किसी प्रेरणादायक जीवनी से कम नहीं है, लेकिन इसमें और चार चांद लगाते हैं, उनके कुछ साहसी क़दम। उन्होंने असम के तेजपुर एयर स्टेशन पर सुखोई Su-30MKI फ़ाइटर जेट में एक ऐतिहासिक उड़ान भरी। एक सॉर्टी फ़ाइटर जेट में उड़ान भरने वाली वे तीसरी राष्ट्रपति हैं, जिन्होंने ब्रह्मपुत्र और तेजपुर घाटियों पर 30-मिनट की उड़ान के अनुभव को "रोमांचक अनुभव" बताया है।
आदिवासी नागरिकों के जीवन की गुणवत्ता में सुधार लाने के लिए प्रयासरत रहने के साथ ही, उन्होंने संथाली भाषा (जिस जनजाति की वे हैं, उनकी भाषा) को मान्यता दिलाने की भी कोशिश की। “हम जानते हैं कि एक जनजाति अपनी भाषा, संस्कृति और परंपरा की वजह से ही जीवित रहती है और इन सभी को जीवित रखने के लिए लिपि की ज़रूरत थी,” उन्होंने पंडित रघुनाथ मुर्मू द्वारा साल 1925 में विकसित इस भाषा की लिपि के बारे में एक साक्षात्कार में यह कहा। उन्होंने इस भाषा को लोकप्रिय बनाने के लिए पश्चिम बंगाल, बिहार और ओडिशा के विभिन्न क्षेत्रों का दौरा किया और केंद्र और राज्य सरकारों से इसे मान्यता देने का अनुरोध किया। इन प्रयासों में वे कई बार असफल रहीं, लेकिन उन्होंने कभी हार नहीं मानी। उन्होंने कहा, "इसके माध्यम से ही हम अपना इतिहास लिख सकते हैं और अपनी आदिवासी संस्कृति की देसी परंपराओं को लोगों के सामने प्रस्तुत कर सकते हैं।"
अपने कार्यकाल के दूसरे वर्ष में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू क़दम रखने जा रही हैं। इस अवसर पर हम उनके पिछले साल 76वें स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर दिए गए संदेश को सुनें, तो मालूम होता है, कि वे अपने शब्दों की सच्ची वाहक हैं, "प्रिय साथी नागरिकों, हमारे प्यारे देश ने हमें वह सब कुछ दिया है, जो हमारे जीवन में है।" हमें अपने देश की सुरक्षा, संरक्षा, प्रगति और समृद्धि के लिए अपना सब कुछ देने का संकल्प लेना चाहिए। गौरवशाली भारत के निर्माण में ही हमारा अस्तित्व सार्थक होगा।”