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नाबालिग़ से निकाह- वैध भी अपराध भी ? / सैयद सलमान
Friday, November 25, 2022 10:14:45 AM - By सैयद सलमान

मुस्लिम समाज न जाने क्यों ख़ुद बाल विवाह को ज़ईफ़ हदीसों के आधार पर भी जायज़ ठहराना चाहता है
साभार- दोपहर का सामना 25 11 2022

मुस्लिम विवाह के एक ताज़ातरीन मामले में केरल हाईकोर्ट की सिंगल बेंच का फ़ैसला आया है कि, ‘मुस्लिम पर्सनल लॉ में नाबालिग़ों का विवाह वैध होने के बावजूद यह पॉक्सो एक्ट के तहत अपराध माना जाएगा।’ मुस्लिम पर्सनल लॉ के नियमों और ४ अलग-अलग हाईकोर्ट के पुराने फ़ैसलों से केरल हाईकोर्ट का ये फ़ैसला बिल्कुल अलग है। कोर्ट की राय में पॉक्सो एक्ट काफ़ी सोच समझकर बनाया गया था। यह एक्ट बाल विवाह और बाल यौन शोषण के ख़िलाफ़ है। इस हिसाब से शादी होने के बाद भी किसी नाबालिग़ से शारीरिक संबंध बनाना क़ानूनन अपराध है। हालांकि आईपीसी ३७५ का एक्सेप्शन कहता है कि अगर पति १५ साल से ज़्यादा की पत्नी के साथ रिलेशन बनाता है तो इसकी इजाज़त है। ये एक्सेप्शन सभी धर्मों के लिए है। इस से पहले पंजाब एवं हरियाणा हाई कोर्ट ने मुस्लिम पर्सनल लॉ के प्रावधानों के तहत १७ वर्षीय मुस्लिम लड़की की हिंदू लड़के के साथ शादी को वैध करार दिया था। इस दंपत्ति ने हाईकोर्ट से सुरक्षा प्रदान करने की गुहार लगाई थी। तब कोर्ट ने अपने फ़ैसले में कहा था कि मुस्लिम पर्सनल लॉ के मुताबिक़, लड़की ने 'प्यूबर्टी' यानी यौवन जिसे १५ वर्ष माना जाता है, उस उम्र को पार कर लिया है, इसलिए वह अपने परिवार की आपत्तियों के बावजूद अपनी पसंद के युवक से शादी करने के लिए 'स्वतंत्र' है। इस जोड़े की कोर्ट में दलील थी कि शादी की अनुमति मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) एप्लीकेशन एक्ट, १९३७ के तहत दी गई थी, जिसमें साफ़ कहा गया है कि प्यूबर्टी की उम्र और वयस्कता की उम्र समान है।

१९३७ के क़ानून की धारा ३ में प्रावधान है कि सभी मुस्लिम विवाह शरीयत के तहत आएंगे, भले ही इसमें कोई भी 'रीति-रिवाज और परंपरा' अपनाई गई हो। ऐसे मामलों में कई अदालतों के अलग-अलग फ़ैसले से भ्रम और विवाद की स्थिति बन रही है। आईपीसी क़ानून के तहत हर धर्म में पत्नी के साथ यौन संबंध बनाने को बलात्कार के दायरे से बाहर रखा गया है। इसका उद्देश्य था कि पारिवारिक यानी सिविल मामलों को आपराधिक मामलों से अलग रखा जाए, लेकिन हिंदू और मुस्लिम दोनों धर्मों में शादी की न्यूनतम उम्र के बारे में क़ानूनी स्थिति अलग-अलग है। हिंदू, बौद्ध, सिख आदि धर्म में शादी की न्यूनतम उम्र को लेकर कानून निर्धारित है, लेकिन मुस्लिम धर्म में पर्सनल लॉ की वजह से शादी की उम्र निश्चित नहीं है। इसी वजह से ही अनेक तरह के विवाद हो रहे हैं। हालांकि इस्लाम मुसलमानों को उस भूमि के नियमों का पालन करने की अनुमति देता है जिसमें वे रहते हैं।

मुस्लिम देशों सहित अधिकांश राष्ट्र, न्यूनतम क़ानूनी विवाह आयु के रूप में १८ वर्ष को स्वीकार करते हैं। कुछ माता-पिता की सहमति से इससे पहले विवाह के लिए रज़ामंद हो जाते हैं। बाल विवाह निषेध अधिनियम २००६ के मुताबिक १८ साल से कम उम्र में शादी कानूनी रूप से अपराध है। इतना ही नहीं जबरन इस तरह की शादी कराने वाले लोग भी अपराधी हैं। हालांकि, इस क़ानून में कोई ऐसा प्रावधान नहीं है कि यह किसी दूसरे क़ानून को ख़त्म कर देगा। इसलिए पर्सनल लॉ के तहत १५ साल में मुस्लिम लड़कियों को शादी की इजाज़त मिल जाती है। जबकि पॉक्सो एक्ट २०१२ के मुताबिक़ १८ साल से कम उम्र की लड़कियों को नाबालिग़ माना जाता है। नाबालिग़ लड़कियों से शादी करके शारीरिक संबंध बनाना क़ानूनन अपराध है। यही वजह है कि मुस्लिम पर्सनल लॉ इस तरह के कानून के ख़िलाफ़ है। कई इस्लामिक देशों और दुनिया भर में नाबालिग़ से विवाह आम बात है। १८ वर्ष से कम उम्र की लड़कियों और अक्सर यौवन की उम्र से भी बहुत कम उम्र में उनकी जबरन शादी करा दी जाती है।

जहां तक विवाह की वैधता का संबंध है, इस्लाम में विवाह दो व्यक्तियों के बीच एक लिखित अनुबंध है और इस तरह के समझौते की ज़िम्मेदारियों और पेचीदगियों को समझने के लिए दोनों का वयस्क होना ज़रूरी है। एक हदीस में है कि पैग़म्बर मोहम्मद साहब ने एक नाबालिग़ लड़की को अपनी शादी को अस्वीकार करने का विकल्प दिया था जब उन्हें सूचित किया गया कि लड़की के पिता ने लड़की की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ उसकी शादी तय की थी। इस से यही निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि इस्लाम में बाल विवाह या जबरन विवाह की कोई क़ानूनी वैधता नहीं है। यह निष्कर्ष एक अन्य हदीस द्वारा समर्थित है, जो सहीह बुख़ारी और सहीह मुस्लिम दोनों में पाया जाता है, जिसमें पैग़म्बर साहब को यह कहते हुए उद्धृत किया गया है कि, "एक विधवा या तलाक़शुदा की तब तक शादी नहीं की जाएगी, जब तक वह अपनी सहमति नहीं देती है और न ही किसी कुंवारी की शादी तब तक की जा सकती है जब तक कि उसकी सहमति नहीं मांगी जाती है।"

मुस्लिम समाज न जाने क्यों ख़ुद बाल विवाह को ज़ईफ़ हदीसों के आधार पर भी जायज़ ठहराना चाहता है जिसमें दावा किया गया है कि, पैग़म्बर मोहम्मद साहब ने हज़रत आयशा से तब शादी की थी, जब वह सिर्फ़ नौ साल की थीं। कुछ हवालों में उन्हें छह साल का बताया जाता है। इसकी प्रामाणिकता कई कारणों से संदिग्ध है। इस मामले में बाल विवाह की अवधारणा की जड़ पर प्रहार करने वाली क़ुरआन की आयत ४:६ का गहराई से अध्ययन करना चाहिए जो विवाह की उम्र को बौद्धिक परिपक्वता की उम्र के बराबर करती है। यानी एक ऐसा चरण जो यौवन की उम्र के बाद में आता है। सबसे पहले, मोहम्मद साहब शारीरिक और बौद्धिक रूप से अपरिपक्व लड़की से शादी करने के लिए क़ुरआन के ख़िलाफ़ नहीं जा सकते। दूसरा, हज़रत आयशा की उम्र का अंदाज़ा उनकी बहन हज़रत अस्मा की उम्र से आसानी से लगाया जा सकता है जो हज़रत आयशा से १० साल बड़ी थीं। हदीस संग्रह मिश्क़ात के लेखक ने अपनी जीवनी 'अस्मा उर रिजाल' में लिखा है कि हज़रत अस्मा की मृत्यु ७३ हिजरी में हुई। तब वह १०० वर्ष की थीं। यह सामान्य ज्ञान है कि इस्लामिक कैलेंडर हिजरी पैग़म्बर के मक्का से मदीना प्रवास के वर्ष से शुरू होता है। ऐसे में हज़रत अस्मा की १०० वर्ष की आयु से मृत्यु के वर्ष हिजरी ७३ को घटाएं तो हम आसानी से यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि वह हिजरी पूर्व २७ वर्ष की थीं। इससे हज़रत आयशा की उम्र इसी अवधि में १७ वर्ष हो जाती है। जैसा कि पैग़म्बर के सभी जीवनीकार इस बात से सहमत हैं कि मोहम्मद साहब ने २ हिजरी में हज़रत आयशा के साथ निकाह किया तो, यह निर्णायक रूप से कहा जा सकता है कि तब उनकी उम्र १९ वर्ष थी। दुर्भाग्य यही है कि मुस्लिम समाज मोहम्मद साहब और क़ुरआन से ज़्यादा मौलवियों पर विश्वास करने लगा है। उनकी इसी मूर्खता से इस्लाम बदनाम होता है।

विभिन्न हाईकोर्ट और केरल हाईकोर्ट के अलग-अलग आदेशों की पृष्ठभूमि में मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड को चिंतन करने की आवश्यकता है। ट्रिपल तलाक़ के मुद्दे पर भी टकराव के बाद आख़िर आदर्श निकाहनामा पर सहमति बनी थी। तो क्यों न कम उम्र शादियों को लेकर भी एक गाइडलाइन बनाकर मुसलमानों को जागरूक किया जाए। आने वाले दिनों में पॉक्सो एक्ट को लेकर कई शादियां ख़तरे में पड़ सकती हैं। ज़रा सी नाराज़गी पर मामला पॉक्सो एक्ट के दायरे में लाया जा सकता है। तो क्यों न नाबालिग़ विवाह को ही हतोत्साहित किया जाए। यह भी तो एक सामजिक ज़िम्मेदारी है। आख़िर यौवन की उम्र तक पहुंचने और मानसिक रूप से विवाह की ज़िम्मेदारियों को निभाने में फ़र्क़ है। मुसलमानों को इस बात को गहराई से समझने की ख़ास ज़रूरत है।


(लेखक मुंबई विश्वविद्यालय, गरवारे संस्थान के हिंदी पत्रकारिता विभाग में समन्वयक हैं। देश के प्रमुख प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं।)