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मुस्लिम समाज, शिक्षा और युगदृष्टा फ़ातिमा शेख / सैयद सलमान
Friday, January 14, 2022 9:36:15 AM - By सैयद सलमान

इस्लामी शिक्षा यही कहती है कि महिला शिक्षा से पीढ़ियां समृद्ध होती हैं और समाज शांति और सुरक्षा का बेहतरीन उदाहरण बन जाता है।
साभार- दोपहर का सामना 14 01 2022

गूगल के बिना आज डिजिटल युग की कल्पना भी नहीं की जा सकती। सर्च इंजन गूगल अक्सर प्रसिद्ध हस्तियों का डूडल बनाकर उनकी जयंती अथवा पुण्यतिथि पर अपने अंदाज़ में वर्षों से श्रद्धांजलि देता रहता है। पिछले दिनों गूगल के इसी डूडल ने ध्यान आकर्षित किया। दरअसल गत दिनों समाज सुधारक ज्योतिबा फुले और सावित्री बाई फुले के साथ मिलकर 'स्वदेशी पुस्तकालय' की शुरुआत करने वाली भारत की पहली मुस्लिम महिला शिक्षिका फ़ातिमा शेख की १९१ वीं जयंती थी। उस मौके पर गूगल ने डूडल बनाकर उन्हें सम्मान दिया था। यह केवल फ़ातिमा शेख का नहीं बल्कि उनके माध्यम से हर उस महिला शिक्षिका का सम्मान माना जाना चाहिए जिसने तमाम विरोध के बावजूद अपने दृढ निश्चय पर क़ायम रहते हुए शिक्षा की अलख को जगाए रखा हो। ९ जनवरी १८३१ को पुणे के एक मुस्लिम परिवार में जन्मी और शिक्षा को समर्पित जीवन जीने वाली फ़ातिमा शेख कोई साधारण महिला नहीं थीं। उनके जमाने में स्त्री शिक्षा का कोई महत्व नहीं था। तब महिलाओं को घरों की चारदीवारी में रखा जाता था और उन्हें पढ़ने की अनुमति नहीं थी। लेकिन उसी दौर में महात्मा ज्योतिबा फुले ने देश में शिक्षा क्रांति लाने का काम किया। जब फुले दंपति को दलित और ग़रीबों को शिक्षा देने के विरोध में उनके पिता ने घर से निकाल दिया था तब फ़ातिमा शेख और उनके भाई उस्मान शेख ने ही उन्हें अपने यहां शरण दी थी। उन्होंने न सिर्फ़ फुले दंपति को अपने घर में रहने की जगह दी बल्कि बच्चियों के लिए स्कूल चलाने की इजाज़त भी दी। शिक्षित समाज का सपना देखने वाले फुले दंपति और शेख भाई-बहन ने कभी किसी बच्चे को धर्म-जाति के आधार पर नहीं बांटा, बल्कि हर धर्म के बच्चों को स्नेह से शिक्षित करने का सराहनीय कार्य किया। इन सबके संयुक्त प्रयासों को सत्यशोधक समाज के आंदोलन के रूप में मान्यता दी गई। तब सत्यशोधक आंदोलन में शामिल लोगों को अपमानित करने का प्रयास भी किया गया, लेकिन फ़ातिमा शेख और उनके सहयोगी हमेशा डटे रहे। यही जीवटता फ़ातिमा शेख की विशेषता बनी। उन्होंने जितना भी पढ़ा उतना बांटने का काम किया।

वर्ष १८४८ में स्वदेशी पुस्तकालय की स्थापना भी फ़ातिमा शेख के घर में ही हुई थी। यहीं फ़ातिमा शेख और फुले दंपति ने समाज के ग़रीब और वंचित तबक़ों के साथ मुस्लिम महिलाओं को शिक्षा देने का काम शुरू किया था। पुणे के उसी स्कूल में जाति, धर्म और लिंग के आधार पर उस वक़्त शिक्षा से वंचित रखे जाने वाले लोगों को शिक्षा देने का महायज्ञ शुरू किया गया था। जब ग़रीब दलित, वंचित और मुस्लिम समाज महिलाओं की शिक्षा के सख़्त ख़िलाफ़ था, तब फ़ातिमा बच्चों को अपने घर में पढ़ने बुलाने के लिए घर-घर जाती थीं। विपरीत परिस्थितियों में फ़ातिमा शेख न सिर्फ़ स्कूल में पढ़ाया करती थीं, बल्कि घर-घर जाकर लड़कियों को शिक्षा का महत्व समझाते हुए शिक्षा ग्रहण करने के लिए प्रेरित भी करती थीं। उनकी यह कोशिश थी कि धर्म और जाति व्यवस्था की बेड़ियों को तोड़कर वंचित तबक़े के बच्चे पुस्तकालय में आएं और पढ़ें। उन्होंने अपना जीवन फुले दंपति के साथ शिक्षा और समानता के लिए संघर्ष करने में वक़्फ़ कर दिया था। मुस्लिम महिलाओं की शिक्षा में अभी भी पिछड़ापन देखने में नज़र आ जाता है, तो उस दौर में अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि कैसी स्थिति रही होगी। ज़ाहिर सी बात है कि, अपने उस दौर के मिशन में फ़ातिमा शेख को भी भारी अवरोधों का सामना करना पड़ा था। समाज के प्रभावशाली तबक़े ने उनके काम में रोड़े डाले, उन्हें परेशान किया गया, लेकिन फ़ातिमा और उनके सहयोगियों ने हार नहीं मानी। उनकी ज़िद और संघर्ष का ही नतीजा था कि मुस्लिम समाज के बड़े तबक़े ने महिलाओं की शिक्षा को बढ़ावा देना शुरू किया। शिक्षा के क्षेत्र में इसी योगदान के लिए फ़ातिमा शेख को आधुनिक भारत की पहली महिला मुस्लिम शिक्षक कहा जाता है। भारत सरकार ने २०१४ में फ़ातिमा शेख की उपलब्धियों को याद करते हुए अन्य अग्रणी शिक्षकों के साथ उर्दू पाठ्यपुस्तकों में उनके प्रोफ़ाइल को शामिल किया। मंशा यही थी कि आगे आने वाली पीढ़ी उनके प्रयासों से देश और समाज को दिए गए योगदान के बारे में और फ़ातिमा शेख को आदर्श के रूप में ज़्यादा से ज़्यादा जान सके।

फ़ातिमा शेख के बहाने अगर इस्लाम का जायज़ा लिया जाए तो यह ज्ञात होता है कि इस्लाम में नारीवादी शिक्षा का बड़ा महत्व रहा है। शायद यही कारण है कि मुस्लिम विद्वानों ने महिला शिक्षा पर विशेष ज़ोर दिया है। निश्चित ही शिक्षा और ज्ञान एक ऐसा वरदान है जिसके द्वारा इंसान मर्यादा, सम्मान और सुख को बेहतर तरीक़े से प्राप्त कर सकता है। इस्लाम में न केवल महिलाओं को कई अधिकार देकर समाज में उच्च स्थान तक पहुंचाने की बात कही गई है बल्कि शिक्षा के क्षेत्र में पुरुषों और महिलाओं के बीच भेदभाव को समाप्त कर महिलाओं की शिक्षा को भी महत्व दिया गया है। इस्लामी शिक्षा यही कहती है कि महिला शिक्षा से पीढ़ियां समृद्ध होती हैं और समाज शांति और सुरक्षा का बेहतरीन उदाहरण बन जाता है। इसलिए इस्लाम ने शिक्षा प्राप्त करने के के सभी द्वार खुले रखे हैं। मुस्लिम समाज को न केवल सभी प्रकार की उपयोगी और प्रभावी शिक्षा की अनुमति दी गई है, बल्कि उन्हें ऐसा करने के लिए प्रोत्साहित भी किया गया है। इस मामले में स्त्री-पुरुष का कोई भेद भी नहीं है। जिस तरह पुरुषों को अधिकार मिला है, उसी तरह महिलाओं को भी पूर्ण शैक्षिक अधिकार दिए गए हैं। इस्लामी शिक्षाओं में, शिक्षा के लिए पुरुषों और महिलाओं दोनों के लिए एक ही शब्द 'इक़रा' अर्थात 'पढ़' का इस्तेमाल किया गया है जिसका तात्पर्य शिक्षण लेने, पढ़ने या अध्ययन करने से है।

ख़ुद पैग़ंबर मोहम्मद साहब ने महिलाओं की शिक्षा के महत्व पर ज़ोर दिया और इसे अनिवार्य बताया है। एक हदीस में पैग़ंबर मोहम्मद साहब को उद्धृत करते हुए बताया गया है कि, 'जिसके पास एक बेटी हो और उसने उसे अच्छे संस्कार सिखाए, उसे अच्छी शिक्षा दी, और उसे वह भरपूर वरदान, उपहार, उपकार, अनुग्रह, लाभ और आशीर्वाद दिया जो अल्लाह ने उसे दिया है तो वह बेटी नर्क की आग और उस शख़्स के बीच की दीवार बनेगी।' पैग़ंबर मोहम्मद साहब के दौर में उनके प्रोत्साहन, निर्देश और प्रभाव के कारण, पुरुषों के साथ-साथ महिलाओं ने भी ज्ञान प्राप्त करने के अपने प्रयासों को तेज़ किया था। उन प्रयासों का नेतृत्व उम्मुल मोमिनीन ने किया। पैग़ंबर मोहम्मद साहब की बातें, दिनचर्या, सामाजिक संबंध, जीवन और शिष्टाचार का एक बड़ा हिस्सा मुस्लिम उम्मत को इन ऊंचे किरदार के व्यक्तित्वों के माध्यम से ही पहुंच सका। ऐसे में यह कहना ग़लत न होगा कि महिलाओं को शिक्षित करना न सिर्फ़ शरई ऐतबार से ज़रूरी है बल्कि सामाजिक ज़रूरत भी है। एक अज्ञानी और अशिक्षित महिला न केवल समाज के लिए बोझ कहलाती है, बल्कि वह अपने बच्चों को सर्वोत्तम तरीक़े से पालने में भी असमर्थ समझी जाती है। इसी आवश्यकता को देखते हुए इस्लाम ने नारी जगत की शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया है। फ़ातिमा शेख जैसी महिलाएं इस्लाम के उसी रूप का उत्कृष्ट उदाहरण पेश करती हैं। ऐसी महिलाएं फुले दंपति के साथ मिलकर जब शिक्षा क्षेत्र में क्रांति लाती हैं, तो एक आदर्श समाज का भी निर्माण होता है। ऐसे समाज में नफ़रत और कट्टरपंथी विचारधारा कहीं पीछे छूट जाती है। ऐसे में यह कहना अतिश्योक्ति नहीं कि, फ़ातिमा शेख जैसे युगदृष्टा ही इस्लाम के सच्चे आदर्श हो सकते हैं, जिन्होंने समाज को एक सूत्र में पिरोने का कार्य किया।



(लेखक मुंबई विश्वविद्यालय, गरवारे संस्थान के हिंदी पत्रकारिता विभाग में समन्वयक हैं। देश के प्रमुख प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं।)