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हज इबादत है- दिखावा करने से बचें / सैयद सलमान
Friday, May 31, 2024 10:06:07 PM - By सैयद सलमान

हज का शाब्दिक अर्थ है, 'अपने लक्ष्य तक पहुंचने के लिए निरंतर प्रयास करना
साभार - दोपहर का सामना 24 05 2024

ईद-उल-अज़हा क़रीब है, जिसे कु़र्बानी वाली ईद भी कहा जाता है। यह ईद-उल-फ़ित्र के बाद मुसलमानों का दूसरा सबसे बड़ा त्योहार है। ईद-उल-अज़हा का यह पर्व हिजरी अरबी कैलेंडर के आख़िरी महीने जु़ल-हिज्जाह की १०वीं तारीख को मनाया जाता है। पूरी दुनिया से मुसलमान इस महीने सऊदी अरब के काबा शरीफ़ में एकत्र होकर हज की अदायगी करते हैं। हज का शाब्दिक अर्थ है, 'अपने लक्ष्य तक पहुंचने के लिए निरंतर प्रयास करना।' इस वर्ष हज यात्रा के लिए भारत से कुल १,७५,०२५ तीर्थयात्रियों का कोटा तय किया गया है, जिसमें भारतीय हज कमिटी के माध्यम से १,४०,०२० सीटें आरक्षित हैं। शेष हज यात्री प्राइवेट टूर कंपनियों के माध्यम से सऊदी अरब जाएंगे। हज कमेटी ने कंप्यूटराइज़्ड लॉटरी के ज़रिए हज-२०२४ के लिए यात्रियों का चयन किया है। इस साल हमारे देश से ५,१६२ महिलाएं, मेहरम अर्थात क़रीबी पुरुष रिश्तेदार के बिना हज के लिए जाएंगी और इनमें सबसे अधिक ३५८४ महिलाएं केरल से हैं। केरल को वैसे भी शिक्षा के मामले देश का सबसे अग्रणी प्रदेश माना जाता है।

जहां तक हज के महत्व की बात है, तो हज एक इस्लामी तीर्थयात्रा और मुसलमानों के पवित्र शहर मक्का में प्रतिवर्ष होने वाला विश्व का सबसे बड़ा जमावड़ा है। हज इस्लाम के पांच स्तंभों में से एक है, जिन्हें एक सच्चे मुस्लिम के तौर में पालन करना ज़रूरी माना जाता है। यह पांच स्तंभ हैं, 'शहादा' यानी गवाही देना या ईमान की स्वीकारोक्ति, 'सलात' यानी नमाज़, 'ज़कात' अर्थात दान, 'सौम' यानी रमज़ान के रोज़े अर्थात उपवास और 'हज' यानी मक्का-मदीना की यात्रा। हज का पालन करना एक धार्मिक कर्तव्य है, जो हर मुस्लिम पर जीवन में एक बार अनिवार्य है। शारीरिक और आर्थिक रूप से सक्षम प्रत्येक मुसलमान को अपने जीवन में कम से कम एक बार यह यात्रा करना फ़र्ज़ है। तीर्थयात्रा पर जाने से पहले, मुसलमानों को सभी ऋणों का भुगतान करने, नाराज़ लोगों से माफ़ी मांगने और सभी के साथ अच्छे संबंध फिर से स्थापित करने की सलाह दी जाती है।

हज का प्रमुख उद्देश्य मुसलमानों को अल्लाह के प्रति अपनी आस्था व्यक्त करने और इबादत करने का मौक़ा देना है। इस्लामी मान्यता के अनुसार यह यात्रा उन्हें अपने पापों के लिए क्षमा मांगने और एक नया जीवन शुरू करने का अवसर देती है। हज न केवल मुसलमानों की एकजुटता की अभिव्यक्ति है, बल्कि ईश्वर में उनकी आस्था का प्रतीक भी है। मुसलमानों का मानना है कि मक्का की यह तीर्थयात्रा पैग़ंबर मोहम्मद साहब के पहले से अस्तित्व में थी। यह तीर्थयात्रा हज़रत इब्राहीम के समय से यानी हज़ारों वर्षों से चली आ रही है। हज के दौरान सभी नस्लों, देशों और संस्कृतियों के मुसलमान मक्का के काबा शरीफ़ में इकट्ठा होते हैं और एक समान पोशाक यानी एहराम पहनते हैं, जिससे समानता और एकता का संदेश मिलता है। यह उनके बीच की भौतिक और सामाजिक दूरी को मिटाने का प्रतीक है। हज इबादत के कई व्यापक कृत्यों से कहीं अधिक है। मुसलमानों को उम्मीद होती है कि इस यात्रा से उनमें गहरा आध्यात्मिक परिवर्तन आएगा, जो उन्हें एक बेहतर इंसान बनाएगा। यह भी सत्य है, कि यदि उनके भीतर ऐसा परिवर्तन न हो तो हज बिना किसी आध्यात्मिक महत्व के केवल शारीरिक और भौतिक व्यायाम बनकर रह जाता है।

आज कल हज को भी कुछ मुसलमानों ने दिखावे का साधन बना लिया है। अल्लाह ने जिस अहम फ़र्ज़ को अपनी इबादत बताया है और जिसे करने का हुक्म अपने बंदों को दिया है, आज ज़्यादातर लोगों ने उसी इबादत को दिखावा करने और अपना नाम रोशन करने के लिए इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है। कुछ लोगों द्वारा हज यात्रा को वाह-वाही का ज़रिया बना लिया गया है। पवित्र क़ुरआन की सूरह अन निसा (४:३८) में साफ़-साफ़ लिखा है कि, 'और जो लोग महज़ लोगों को दिखाने के लिए अपने माल ख़र्च करते हैं और न ख़ुदा ही पर ईमान रखते हैं और न रोज़े आख़िरत पर, ख़ुदा भी उनके साथ नहीं, क्योंकि उनका साथी तो शैतान है और जिसका साथी शैतान हो तो क्या ही बुरा साथी है।' इस आयत से उन लोगों को सबक़ लेना चाहिए जो हज यात्रा को अपनी शान-ओ-शौक़त का ज़रिया बनाते हैं। अच्छे कामों में लाखों रुपये ख़र्च करते हैं लेकिन मक़सद केवल भोंडा प्रदर्शन होता है। इबादत में आध्यात्मिकता, आज्ञाकारिता, समर्पण और विनम्रता होनी चाहिए। इसके बिना की गई हर इबादत मात्र दिखावा है। जो लोग सचमुच ईश्वर से प्रेम करते हैं, उसकी मख़लूक़ से प्रेम करते हैं, वह इबादतों और तीर्थयात्राओं से अपने भीतर सुधार लाते हैं। सच्चा धार्मिक वही है जो ईश्वर और उसकी हर रचना से प्रेम करे वह भी दिल से, दिखावे के लिए नहीं। अल्लाह तमाम ईमानदार हाजियों की हज यात्रा को क़ुबूल करे यही प्रार्थना है।


(लेखक मुंबई विश्वविद्यालय, गरवारे संस्थान के हिंदी पत्रकारिता विभाग में समन्वयक हैं। देश के प्रमुख प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं।)