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भाषा को चाहिए खुला आकाश / सैयद सलमान
Friday, September 15, 2023 10:31:12 AM - By सैयद सलमान

जब जीना-मरना संग है तो 'ये तेरी भाषा, ये मेरी भाषा' का क्या औचित्य है
साभार- दोपहर का सामना  15 09 2023  

संस्कृत भाषा को लेकर एक ख़बर इन दिनों चर्चा में है कि, अब से उत्तराखंड राज्य के मदरसों में संस्कृत पढ़ाई जाएगी। मदरसों में एनसीईआरटी पाठ्यक्रम लागू किए जाने की योजना है। इसके पीछे तर्क दिया जा रहा है कि अगर देवभूमि उत्तराखंड में संस्कृत नहीं पढ़ाई जाएगी तो कहां पढ़ाई जाएगी? उत्तराखंड के मदरसा वेलफ़ेयर सोसायटी ऑफ़ उत्तराखंड ने ६ साल पहले मदरसों के पाठ्यक्रम में संस्कृत को शामिल करने की मांग की थी। उस वक़्त बात आई-गई हो गई। लेकिन अब जाकर यह मांग पूरी हुई है। मार्च २०२४ तक राज्य के ११७ मदरसों को आधुनिक बनाने की योजना तैयार की गई है। इन मदरसों में स्कूलों की तरह कंप्यूटर लैब होंगे। यहां अपनी सुविधा और रूचि के अनुसार मुस्लिम छात्र संस्कृत, हिंदी, अरबी या अन्य भाषाओं में विषय चुन सकेंगे। 

हालांकि उत्तराखंड के मदरसों में संस्कृत पढ़ाने के फ़ैसले पर मुस्लिम समाज में मतभेद है। जहां सूफ़ी इस्लामिक बोर्ड जैसे कई संगठनों ने इसका समर्थन किया है, वहीं जमीयत उलेमा हिंद ने इसके ख़िलाफ़ मोर्चा खोल दिया है। विवाद के दो पहलू हैं। एक तबक़े के अनुसार पैग़ंबर मोहम्मद साहब की तालीम कहती है कि, इल्म अर्थात शिक्षा हासिल करो, चाहे इसके लिए चीन ही क्यों न जाना पड़े। ज़ाहिर है कि चीन में तब क़ुरआन और अरबी के बजाय वहां की भाषा चीनी रही होगी। लेकिन मोहम्मद साहब ने इल्म लेने को कहा। दूसरे तबक़े का कहना है कि मदरसे धार्मिक शिक्षा का केंद्र हैं, इसलिए मदरसों में केवल धार्मिक शिक्षा दी जाती है और संविधान में अल्पसंख्यकों को अपने धर्म और अपनी भाषा के आधार पर अपने शैक्षणिक संस्थान स्थापित करने का अधिकार है। हालांकि संस्कृत को लेकर उनके मन में कोई मतभेद नहीं है। 

यानी भाषा को लेकर अलग-अलग ज़ेहनियत बन गई है। हाँ, अगर इस बहाने सरकारी तंत्र मदरसों में हस्तक्षेप करता है या धार्मिक भेदभाव बढ़ाता है तब विरोध जायज़ है। वैसे संदर्भ के लिए बताते चलें कि उत्तर प्रदेश स्थित सहारनपुर के मदरसा इस्लामिया ज़िया-उल-क़ुरआन में उर्दू और संस्कृत सहित हिंदी और अंग्रेजी भाषा भी पढ़ाई जाती है। यहां किसी भी धर्म के बच्चे को किसी भी भाषा में पढ़ने की आज़ादी है। मदरसे में उर्दू और संस्कृत भाषा पर ख़ास ज़ोर दिया जाता है। इस मदरसे में लगभग १० गांवों के हिंदू, मुस्लिम, सिख और ईसाई समेत हर धर्म और जाति के बच्चे पढ़ने आते हैं। मदरसे में लगभग साढ़े तीन सौ बच्चे पढ़ते हैं। मज़े की बात है कि इनका धर्म ख़तरे में नहीं पड़ा। लेकिन नफ़रत परोसने वालों की नज़र में संस्कृत पढ़ने से इस्लाम और उर्दू या अरबी पढ़ने से हिंदुत्व ख़तरे में पड़ जाता है। 

जहां तक संस्कृत को मुसलमानों से जोड़ने की बात है तो इसमें कोई हर्ज नहीं कि मुस्लिम समाज संस्कृत पढ़े। आखिर इस देश को जब अपना माना है, इस देश के बंटवारे के दौरान पाकिस्तान को न चुनकर भारत को चुना है, तो यहां की प्राचीन भाषा को पढ़ने में क्या हर्ज है? बल्कि संस्कृत पढ़कर ग़ैर मुस्लिमों को उर्दू और अरबी भाषा पढ़ने के लिए प्रेरित किया जा सकता है। जितनी भाषा पढ़ेंगे उतना ही एक दूसरे की संस्कृति को समझने में आसानी होगी। जब जीना-मरना संग है तो 'ये तेरी भाषा, ये मेरी भाषा' का क्या औचित्य है। सभी भाषाएं सभी की हैं। भाषा वह ज़रिया है जिसके माध्यम से इंसान बोलकर, सुनकर, लिखकर और पढ़कर अपनी भावनाओं या विचारों को संप्रेषित करता है। यानी लिखित या मौखिक रूप से अपनी भावनाओं और दूसरों की भावनाओं को समझने-समझाने को ही भाषा कहा जाता है। तो फिर संस्कृत, हिंदी, उर्दू, अरबी किसी एक समाज की भाषा कैसे हो सकती है? 

मेरे अपने परिवार में मेरी मौसेरी बहन के पति यानि हमरे बहनोई सैयद अख़लाक़ अहमद १२ वर्ष पूर्व सेवानिवृत्त होने से पहले लगभग तीन दशक तक आज़मगढ़ के शिब्ली नेशनल कॉलेज में संस्कृत के व्याख्याता रहे हैं। मेरे चचेरे भाई सैयद फ़ख़रुद्दीन ने संस्कृत से ही एमए किया। बीएड, एमएड करते हुए वह आज़मगढ़ के जिस बीनापार इंटर कॉलेज में संस्कृत के लेक्चरर रहे, उसी कॉलेज में आज वह प्रिंसिपल हैं। हमारे एक अन्य रिश्तेदार ख़ालिद अब्बासी आज भी शिब्ली कॉलेज में संस्कृत के लेक्चरर हैं। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में जाफ़री साहब संस्कृत पढ़ाते हैं। ऐसे कई उदाहरण हैं। मुस्लिम समाज में इन सभी की संस्कृत पढ़ने या पढ़ाने की वजह से कभी कोई इज़्ज़त कम नहीं हुई, बल्कि सम्मान ही मिला। ग़ैर मुस्लिमों ने अपने सिर-आंखों पर बिठाया। भाषा को लेकर यही सहजता और सरलता रहे तो कोई विवाद ही न हो। भाषा को धर्म की क़ैद में बंद करना मूर्खता है। शिक्षा और ज्ञान के लिए भाषा को खुला आकाश मिलना चाहिए।  



(लेखक मुंबई विश्वविद्यालय, गरवारे संस्थान के हिंदी पत्रकारिता विभाग में समन्वयक हैं। देश के प्रमुख प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं।)