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लाउडस्पीकर पर अज़ान- समझदारी दिखाएं मुसलमान / सैयद सलमान
Friday, April 8, 2022 - 8:07:46 AM - By सैयद सलमान

लाउडस्पीकर पर अज़ान- समझदारी दिखाएं मुसलमान / सैयद सलमान
मुसलमान किसी के लिए मुद्दा बनकर इस्तेमाल न हों और क़ानून का पालन करें
साभार- दोपहर का सामना 08 04 2022

इन दिनों हिजाब के मामले से जुड़ी ख़बरें कम हुई हैं लेकिन अज़ान का मुद्दा गर्म है। अज़ान लाउड स्पीकर पर होनी चाहिए या नहीं, इसको लेकर जमकर राजनीति हो रही है। जिस तरह हिजाब को लेकर कर्नाटक की फ़िज़ा बिगड़ी थी, ठीक उसी तरह अज़ान को लेकर विवाद की शुरुआत महाराष्ट्र से हुई है। कुछ राजनीतिक दलों से जुड़े नेता इस विवाद को हवा दे रहे हैं। वह लोग भी जो कभी सरकार में थे, लेकिन कुछ किया नहीं, अब गुजरात और मुंबई मनपा चुनाव को देखते हुए सक्रिय हो गए हैं। अज़ान और लाउडस्पीकर को लेकर विवाद महाराष्ट्र तक सीमित नहीं रहा। इसकी आग अन्य राज्यों तक भी पहुंच रही है। अज़ान के विरोध में चेतावनी जारी की गई है कि मस्जिदों में लाउडस्पीकर का इस्तेमाल बंद हो, नहीं तो मस्जिदों के बाहर तेज़ आवाज़ में हनुमान चालीसा का पाठ किया जाएगा, वह भी लाउडस्पीकर पर। अज़ान के ख़िलाफ़ तर्क दिया जा रहा है कि इससे आसपास रह रहे लोग परेशान होते हैं। अज़ान से नींद में ख़लल पड़ने या इससे शोर होने की शिकायत का अंदाज़ जिस तरह राजनेताओं के ज़रिए आया है उससे यह सवाल उठना लाज़िमी है कि, समस्या सचमुच लाउडस्पीकर से है या अज़ान के बहाने पूरे मुस्लिम समाज को निशाने पर लिया जा रहा है।

वैसे जिस अज़ान को लेकर इतना विवाद है उसे जान लेना भी ज़रूरी है। पैग़ंबर मोहम्मद साहब के दौर में जब मदीना में सामूहिक नमाज़ पढ़ने के लिए मस्जिद बनाई गई तो सवाल उठा कि लोगों को नमाज़ के लिए आख़िर किस तरह बुलाया जाए। उन्हें कैसे सूचित किया जाए कि नमाज़ का समय हो गया है। मोहम्मद साहब ने इस विषय पर अपने साथी सहाबा से राय मशवरा किया। मशवरे में अलग-अलग राय सामने आई। नमाज़ की सूचना देने के लिए सभी की अलग-अलग राय थी। कोई राय दे रहा था कि प्रार्थना के समय कोई झंडा बुलंद किया जाए। किसी की राय थी कि किसी उच्च स्थान पर आग जलाकर सूचित जाए। कुछ लोगों ने बिगुल बजाने और घंटियां बजाने का भी प्रस्ताव दिया, लेकिन मोहम्मद साहब को ये सभी तरीक़े पसंद नहीं आए। तय हुआ कि ईश्वर की महानता को प्रदर्शित करते हुए अल्फ़ाज़ों को ज़रिया बनाकर और नमाज़ के महत्व को बुलंद आवाज़ में घोषणा करते हुए बताया जाए। इस तरह इस्लामी रवायत के अनुसार बुलंद आवाज़ के धनी हज़रत बिलाल ने पहली अज़ान दी। ज़ाहिर है उस वक़्त लाउडस्पीकर नहीं था। ठीक उसी तरह जिस तरह मोटर, कार, जहाज़ जैसी सुविधाएं नहीं थीं। बाद में जैसे-जैसे विज्ञान ने तरक़्क़ी की और लाउडस्पीकर ईजाद हुआ तो मुसलमानों ने उसी का सहारा लेकर अज़ान देने की शुरुआत की। मक़सद ये था कि अज़ान की आवाज़ ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक पहुंचाई जा सके।

लाउडस्पीकर से अज़ान दिए जाने का प्रचलन तक़रीबन एक सदी पुराना है। लाउडस्पीकर का आविष्कार २०वीं सदी की शुरुआत में हुआ था। इस आविष्कार के बाद लाउडस्पीकर्स को मस्जिदों तक पहुंचने में बहुत ज़्यादा वक़्त नहीं लगा। एक किताब के हवाले से बताया गया है कि दुनिया में पहली बार अज़ान के लिए लाउडस्पीकर का इस्तेमाल साल १९३६ में सिंगापुर की सुल्तान मस्जिद में किया गया था। वहां के अख़बारों में ख़बरें छपीं कि लाउडस्पीकर से अज़ान की आवाज़ १ मील तक जा सकेगी। हालांकि तब इस नई तकनीक के इस्तेमाल का विरोध मस्जिद में नमाज़ पढ़ने वाले कई लोगों ने किया था। लेकिन तब भी कई लोगों का मानना था कि बढ़ती आबादी और बढ़ते शोर के बीच लाउडस्पीकर के ज़रिए अज़ान की आवाज़ ज्यादा लोगों तक पहुंच सकेगी। कुछ लोगों ने इसे बेहतर क़दम माना तो कुछ ने विरोध किया। भारत में इस संबंध में पहला फ़तवा तत्कालीन प्रख्यात विद्वान मौलाना अशरफ़ अली थानवी ने दिया था। उन्होंने इस उपकरण को हराम घोषित कर दिया था। उन्होंने अपने फ़तवे में कहा था कि लाउडस्पीकर का मस्जिद के अंदर प्रवेश करना मस्जिद के सम्मान के ख़िलाफ़ है। उनके साथ-साथ अन्य उलेमा ने भी न केवल लाउडस्पीकर के इस्तेमाल पर रोक लगाने की वकालत की थी, बल्कि यह भी ऐलान किया था कि लाउडस्पीकर की आवाज सुनकर जो नमाज़ पढ़ी जाती है, वह सिरे से नमाज़ ही नहीं होती और ऐसी नमाज़ों को दोहराना ज़रूरी है।

इस मामले में सारा पेंच विज्ञान से जुड़ा था। मुसलमान अपने उलेमा की बात से हटने को तैयार न थे। मामला चूंकि विज्ञान का था इसलिए जवाब विज्ञान से ही ढूंढ़ना था। उस समय ध्वनिकी वैज्ञानिक कहां से लाएं, इसलिए कुछ बुद्धिजीवियों और शिक्षकों से इस विषय पर सवाल किए गए। दिलचस्प बात यह है कि इनमें बृजनंदन लाल नाम के एक हिंदू शख़्स भी शामिल थे, जो भोपाल के एक हाई स्कूल में विज्ञान पढ़ाते थे। उन्होंने पूरी तरह से लाउडस्पीकर का समर्थन भी नहीं किया था और न ही विरोध। उन्होंने उलेमा को विज्ञान के साथ चलने का मशवरा दिया था। बाद में अधिकांश उलेमा ने यूटर्न लेकर लाउडस्पीकर की इजाज़त दे दी थी। ग़ौरतलब और शिक्षाप्रद है कि तब उलेमा को विशुद्ध धार्मिक मामलों के समाधान के लिए किसी हिंदू के पास जाने में कोई आपत्ति नहीं थी। लेकिन आज कैसी स्थिति बना दी गई है यह शोध का विषय है। आज दूरियां इस क़दर बढ़ गई हैं कि एक-दूसरे पर विश्वास ही नहीं रहा।

लाउडस्पीकर पर अज़ान दिए जाने के नियम अलग-अलग देशों में अलग-अलग हैं। जैसे तुर्की और मोरक्को जैसे देशों में बमुश्किल ही लाउडस्पीकर से अज़ान दी जाती है। नीदरलैंड में महज़ सात से आठ प्रतिशत मस्जिदों में लाउडस्पीकर के ज़रिए अज़ान दी जाती है। दुनिया में कई देशों में अज़ान की सीमाएं तय की गई हैं इनमें नीदरलैंड, जर्मनी, स्विट्ज़रलैंड, फ्रांस, यूनाइटेड किंगडम, ऑस्ट्रिया, नॉर्वे और बेल्ज़ियम जैसे देश शामिल हैं। लाओस और नाइज़ीरिया जैसे देशों ने अज़ान की या तो सीमाएं तय की हैं या फिर प्रतिबंधित किया है। दुनिया के सबसे बड़े मुस्लिम बहुल देश इंडोनेशिया तक में मुस्लिम धर्मगुरुओं ने अनियंत्रित रूप से लाउडस्पीकर के इस्तेमाल पर चिंता ज़ाहिर की है। इंडोनेशिया सरकार ने माना कि कई मस्जिदों द्वारा ऊँची आवाज़ में लाउडस्पीकर का इस्तेमाल पर्यावरणीय मुद्दा है और उसने इस परेशानी से निपटने की बात कही है। सबसे प्रभावशाली माने जाने वाले मुस्लिम देश सऊदी अरब ने भी अपने यहां मस्जिदों में लाउडस्पीकर के इस्तेमाल पर कुछ पाबंदियों का ऐलान किया है। सऊदी में लाउडस्पीकर के वॉल्यूम को एक तिहाई तक कम करने के लिए कहा गया है। मुस्लिम समाज को अगर लगने लगा है कि अज़ान के लिए लाउडस्पीकर पर पाबंदी की बात मूलतः सांप्रदायिक विद्वेष के कारण की जाती है, तो उसे लाउडस्पीकर के मुद्दे पर समझदारी से सोचना शुरू कर देना चाहिए। कुछ बातें ऐसी ज़रूर हैं जिन पर सामूहिक निर्णय लिया जाना चाहिए। राजनीतिक बयानबाज़ियों को दरकिनार करते हुए इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि अज़ान को लेकर किया जा रहा यह विवाद सुप्रीम कोर्ट के एक आदेश की आड़ में बढ़ाया जा रहा है। सुप्रीम कोर्ट ने साल २००५ में अपने एक आदेश में रात १० बजे से सुबह ६ बजे तक लाउडस्पीकर के इस्तेमाल पर पाबंदी लगाई है। अगर उलेमा भी शुरुआती दौर में लाउडस्पीकर को लेकर भ्रमित थे तो आज भी उसकी ज़रूरत को लेकर विचार होना चाहिए। चुनाव सर पर हैं। रोज़ ऐसे मुद्दे उठेंगे। यह दौर बड़ा कठिन है। आक्रामकता और हिंसा को जायज़ ठहराना अब आसान हो गया है। ऐसे में फूंक-फूंक कर क़दम रखने की ज़रूरत है। बस मुसलमान किसी के लिए मुद्दा बनकर इस्तेमाल न हों और क़ानून का पालन करें, यही समय की मांग है।


(लेखक मुंबई विश्वविद्यालय, गरवारे संस्थान के हिंदी पत्रकारिता विभाग में समन्वयक हैं। देश के प्रमुख प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं।)