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फिर छिड़ा मुस्लिम लीडरशिप का राग....!! / सैयद सलमान
Friday, December 10, 2021 - 9:33:07 AM - By सैयद सलमान

फिर छिड़ा मुस्लिम लीडरशिप का राग....!! / सैयद सलमान
मुसलमानों को मुस्लिम नेताओं से ज़्यादा ग़ैर-मुस्लिम नेताओं पर विश्वास है
साभार- दोपहर का सामना 10 12 2021

देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश के चुनाव जैसे-जैसे नज़दीक आते जा रहे हैं वैसे-वैसे नेताओं की बयानबाज़ियां भी बढ़ती जा रही हैं। यहां तक कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी इस प्रतिस्पर्धा में शामिल हो गए। लाल रंग पर उनका बयान विपक्ष को बिलकुल नहीं भाया। सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव, जया बच्चन, आप नेता संजय सिंह, कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष अजय कुमार लल्लू सहित कई नेताओं और सोशल मीडिया के बड़े तबक़े ने प्रधानमंत्री के बयान को जमकर ट्रोल किया। ख़ैर समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी या कांग्रेस जैसी पार्टियां तो उत्तरप्रदेश की सियासत को समझती हैं, लेकिन पहली बार उत्तर प्रदेश में एआईएमआईएम चीफ़ असदुद्दीन ओवैसी भी पूरे दम-ख़म के साथ अपनी क़िस्मत आज़माने उतर रहे हैं। वह अपना पूरा ध्यान प्रदेश के तक़रीबन १९ प्रतिशत मुसलमानों पर केंद्रित कर रहे हैं। ओवैसी लगातार मुस्लिम समाज को अपने पक्ष में करने का हर संभव प्रयास कर रहे हैं। उनका इरादा एआईएमआईएम को पूरे देश के मुसलमानों की पार्टी बनाने का है। उनका तर्क है कि जिस तरह चरण सिंह ने जाटों के लिए, कांशीराम ने दलितों के लिए, मुलायम सिंह यादव ने यादवों के लिए लीडरशिप खड़ी की, वैसा ही कुछ मुसलमानों को भी करना चाहिए। ज़ाहिर सी बात है वह ख़ुद को इस नेतृत्व के लिए पेश कर रहे हैं। इसके लिए वह कभी पुराने दंगों की याद दिला रहे हैं, कभी उनके पिछड़ेपन की दलील देते हैं, कभी मुस्लिम उत्पीड़न की शिकायत करते हैं, कभी भाजपा को मुस्लिम विरोधी बताते हुए उसकी नीतियों का हवाला देकर मुसलमानों को ललकारते हैं। वह मुसलमानों को एकजुट होने के लिए कहते हैं। ओवैसी की यह रणनीति कितनी सफल होगी यह तो आने वाले समय में साफ़ हो पाएगा, लेकिन उन्होंने मुसलमानों को किसी एक पार्टी के झंडे तले आने का आह्वान कर एक नई बहस ज़रूर छेड़ दी है।

सवाल यह उठता है कि क्या मुसलमानों की देश में अपनी कही जाने कोई पार्टी है जिसके साथ वह देश के हर राज्य में जुड़ा हुआ महसूस करे? जवाब है, नहीं। क्योंकि मुसलमानों ने न कभी इस दिशा में सोचा है, न व्यावहारिक रूप से ऐसा हो पाना आसान है। ख़ुद असदुद्दीन ओवैसी के पिता सलाहुद्दीन ओवैसी, नेशनल कॉन्फ्रेंस के शेख अब्दुल्लाह, इंडियन नेशनल लीग के इब्राहिम सुलेमान सैत, इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग के ग़ुलाम महमूद बनातवाला जैसे पुराने धुरंधर नेताओं ने पूरे देश के मुसलमानों का नेता बनने का प्रयास किया था, लेकिन वह अपने-अपने राज्यों तक ही सीमित होकर रह गए। ऐसा नहीं है कि इन नेताओं के इस दुनिया को अलविदा कहने के बाद मुसलमानों की एक पार्टी बनाने की कोशिशें मद्धम पड़ गईं। उनके बाद भी आल इंडिया यूनाईटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट के बदरुद्दीन अजमल, पीस पार्टी ऑफ इंडिया के मोहम्मद अयूब, राष्ट्रीय उलेमा काउंसिल के मौलाना आमिर रशादी जैसे कई नेताओं ने इस दिशा में कार्य किया। लेकिन इनमें से कोई भी राष्ट्रीय मुस्लिम नेता के रूप में अपनी पहचान नहीं बना पाया। पूरे देश के मुसलमानों को सबसे ज्यादा प्रभावित करने वाले केवल दो ही नाम अब तक राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकृत हो पाए हैं। एक, स्वतंत्रता सेनानी और स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद बने देश के पहले शिक्षा मंत्री मौलाना अबुल कलाम आज़ाद और दूसरे, मिसाइल मैन के रूप में विख्यात पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम। वैसे डॉ. ज़ाकिर हुसैन और फ़ख़रुद्दीन अली अहमद के रूप में दो अन्य मुस्लिम राष्ट्रपति भी हुए, लेकिन वह किसी विशिष्ट मुस्लिम पार्टी के प्रतिनिधि नहीं थे, न ही विशुद्ध मुस्लिम समाज के नेता।

लेकिन ओवैसी ने नए सिरे से ख़ुद को केंद्र में रखकर जब मुस्लिम नेतृत्व का मुद्दा छेड़ दिया है तो बहस लाज़मी है। ओवैसी की विशेषता है कि वे जब भी कुछ बोलते हैं तो उनके विरोधी भड़क उठते हैं और उनके समर्थक जोश में आ जाते हैं। निःसंदेह तेलंगाना और हैदराबाद के मुसलमानों में उनकी लोकप्रियता से इनकार नहीं किया जा सकता। अब उनकी ख़्वाहिश है कि उन्हें देशभर के मुसलमानों के नेता के रूप में स्वीकार किया जाए। उनकी पार्टी ने महाराष्ट्र में जब २०१४ का विधानसभा चुनाव लड़ा था तब २ सीटें हासिल करके सबको हैरान कर दिया था। इस से पहले नांदेड़ के स्थानीय निकाय चुनाव में उन्हें छिटपुट सफलता मिल चुकी थी। उन्होंने नवंबर २०२० में बिहार के सीमांचल इलाके से विधानसभा चुनाव लड़ने का फ़ैसला किया, जहाँ विधान सभा की २४ सीटें हैं। ओवैसी ने यहां २० सीटों पर चुनाव लड़कर ५ सीटों पर अपने विधायक जितवाकर एक बार फिर सबको चौंकाया। बिहार विधानसभा चुनाव में हैरतअंगेज़ प्रदर्शन करने वाले ओवैसी का जादू इस वर्ष गुजरात के स्थानीय निकाय चुनाव में भी कुछ इलाक़ों में दिखाई दिया। गोधरा की ४४ नगरपालिका सीटों में से एआईएमआईएम ने ८ सीटों पर चुनाव लड़कर ७ सीटों पर जीत हासिल की। गोधरा भाजपा का गढ़ माना जाता है। एआईएमआईएम ने भरूच में भी १ सीट पर जीत दर्ज की। वहीं मोडासा नगरपालिका में ५ सीटों पर परचम फहरा कर प्रमुख विपक्षी पार्टी बन गई। इन नतीजों से उनकी महत्वाकांक्षा और बढ़ी, उनका हौसला और बुलंद हुआ। हालांकि ओवैसी का जादू पश्चिम बंगाल में बिलकुल नहीं चला, लेकिन ओवैसी के हौसले पस्त नहीं हुए। अब वह उत्तर प्रदेश के चुनाव में पूरी ताक़त से उतर कर मुसलमानों का निर्विवाद नेता बनना चाहते हैं।

ओवैसी की छवि एक विवादस्पद नेता की है। वह अपने भड़काऊ भाषण के लिए जाने जाते हैं। संवैधानिक दायरे में हमेशा मुसलमानों के हित की बात करने वाले ओवैसी पर सांप्रदायिक सियासत करने का आरोप लगता रहता है। संसद में वो अगर एक आक्रामक वक्ता के रूप में जाने जाते हैं, तो जनसभाओं में भी वह दहाड़ते नज़र आते हैं। मुस्लिम युवाओं पर उनके भाषणों का असर होता है। ओवैसी ख़ुद को '१०० फ़ीसदी भारतीय राष्ट्रवादी' मानते हैं। एक तथ्य यह कि ओवैसी वही सब कुछ कहते हैं जो मुस्लिम युवा सुनना चाहते हैं। राष्ट्रीय स्तर पर मुस्लिम समाज की ग़रीबी, बेरोज़गारी और असुरक्षा पर आवाज़ उठाने वाले ओवैसी एकमात्र नेता नज़र आते हैं। उसका एकमात्र कारण यह भी है कि वह भाजपा को राष्ट्रीय स्तर पर चुनौती देते हैं। भाजपा को भी ध्रुवीकरण के लिए ओवैसी का यह अंदाज़ भाता है। इसीलिए कई दल ओवैसी पर भाजपा से मिलीभगत का आरोप लगाते हैं। इन सभी तर्कों-कुतर्कों के बावजूद मुसलमान ओवैसी को सर्वमान्य नेता मानने को तैयार इसलिए नहीं हैं, क्योंकि देश के मुसलमानों को मुस्लिम नेताओं से ज़्यादा ग़ैर-मुस्लिम नेताओ पर विश्वास है। मुस्लिम समाज का बड़ा वर्ग सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के ख़िलाफ़ है। मुसलमानों ने हमेशा हिंदुओं को ही अपना नेता माना है। अतीत में पंडित जवाहर लाल, इंदिरा गांधी, हेमवती नंदन बहुगुणा जैसे नेताओं को राष्ट्रीय स्तर पर मुसलमानों ने अपना नेता माना। बिहार के जगन्नाथ मिश्रा और उत्तर प्रदेश के मुलायम सिंह यादव की मुसलमानों के बीच इतनी लोकप्रियता थी कि विरोधियों ने एक को 'मौलाना' जगन्नाथ मिश्रा और दूसरे को 'मुल्ला' मुलायम तक कहकर उनका अपमान किया। हालांकि बाद में जगन्नाथ मिश्रा ने भाजपा का दामन थाम कर मुसलमानों को निराश किया। देश की तरक़्क़ी, संविधान की रक्षा और सरकारी तानाशाही के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद करने के लिए मुसलमानों को किसी मुस्लिम नेता या पार्टी के साथ नहीं चाहिए बल्कि उनके सर्वांगीण विकास पर ध्यान देने वाली पार्टी के साथ जाना उसकी प्राथमिकता है। अगर राष्ट्रीय स्तर पर मुसलमानों की कोई पार्टी बन जाए या कोई एक नेता उभर भी जाए तो इस खेल में जो सांप्रदायिक ध्रुवीकरण होगा वो और ज़्यादा ख़तरनाक होगा।



(लेखक मुंबई विश्वविद्यालय, गरवारे संस्थान के हिंदी पत्रकारिता विभाग में समन्वयक हैं। देश के प्रमुख प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं।)