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मराठी भाषा दिन- मराठी भाषा की रोचक यात्रा / सत्यप्रकाश मिश्र
Thursday, February 27, 2020 - 12:38:40 PM - By सत्यप्रकाश मिश्र

मराठी भाषा दिन- मराठी भाषा की रोचक यात्रा / सत्यप्रकाश मिश्र
 अपने साहित्य में विभिन्न तानों बानों को गूंथने वाले कुसुमाग्रज ने स्वयं तनाव रहित जीवन जिया
जब भारतीय भाषाओं का ख्याल मन में उभरता है तो देश की अनेक भाषाओं के लहजे और उनकी लिपियों के चित्र तरंगों के समान हमारी आंखों के सामने तरने लगते हैं. भाषा अपने मन की बातों को प्रकट करने का सर्वोत्तम जरिया है. और आज हम ऐसी ही एक भाषा की बात करने जा रहे हैं मराठी भाषा दिवस के उपलक्ष्य में. हमारे महाराष्ट्र की राज भाषा मराठी ने स्वतंत्रता से पूर्व और पश्‍चात अनेक मोडों से गुजरते हुए आज के वर्तमान स्वरूप को प्राप्त किया है. मराठी के सुप्रसिद्ध कवि वि. वा. शिरवाडकर ‘कुसुमाग्रज’ जी  की जयंती २७ फरवरी को है और मराठी साहित्य में उनके बहुमूल्य योगदान को देखते हुए ही २७ फरवरी को मराठी भाषा दिवस के रूप में मनाया जाता है. मरहट्ठों की वीर भूमि महाराष्ट्र के विशाल भूभाग पर बोली जाने वाली मराठी का इतिहास वैसे बहुत पुराना है फिरभी आज बोली जाने वाली मराठी की विकास यात्रा अत्यंत रोचक रही है.

 किसी भी बोली को भाषा में रूपांतरित होने के लिए उसमें व्याकरण होना जरूरी है. भाषा में व्याकरण होने का अर्थ है कि भाषा में अब अर्थ का विचार, उच्चारण शास्त्र जैसे घटक सर्वसंमत हो चुके हैं. मराठी व्याकरण की परंपरा को शुरू हुए अभी बहुत ज्यादा समय नहीं हुआ है. हाल की १९ वीं शताब्दि तक संस्कृत भाषा का व्याकरण सीखना सम्मानजनक माना जाता था. वैसे मराठी का उपयोग प्रति दिन के व्यवहार में तो होता था लेकिन इस भाषा के लिए आधार निर्मित करने की बात किसी के मन में नहीं उपजी थी. मराठी भाषा में गद्य परंपरा का विकास ब्रिटिशों के शासनकाल में हुआ. उस समय तक मराठी का अधिकांश लेखन काव्य के रूप में होता था. इसे याद रखना सुविधाजनक हो इसीलिए मराठी में पद्य का स्वरूप अपनाया गया . अत: व्याकरण की ओर किसी का ध्यान ही नहीं गया. मराठी में पहली बार उल्लेखनीय व्याकरण १८३० के आसपास दादोजी पांडुरंग तर्खडकर ने लिखा था. उनके इस व्याकरण की अनेक आवृत्तियां प्रकाशित हुईं. यह बात महत्वपूर्ण और ध्यान देने लायक है कि महाराष्ट्र के सभी संतों ने काव्यात्मक शैली में भले ही साहित्य का सृजन किया हो, लेकिन उन्हें भाषा शास्त्र का बेहतरीन ज्ञान था.

 मराठी में अनेक बोलियॉं प्रचलित हैं. उन्हीं बोलियों में से परिष्कृत होकर आज की मानक भाषा साकार हुई है और सर्वमान्य स्वरूप पाया है. सभी सरकारी निर्णयों और निवेदनों को जारी करने के लिए मानक मराठी का प्रयोग किया जाता है. आज व्याख्यानों, सम्मेलनों, सार्वजनिक कार्यक्रमों, अखबारों, टीवी, रेडियो जैसे माध्यम मानक मराठी का उपयोग करते हैं. ऐसी बात नहीं है कि समस्त मराठी प्रदेश में मानक भाषा एक ही हो. प्रादेशिक विविधता हमें विभिन्न स्थानों पर बोली जाने वाली मराठी में उभर कर ध्यान में आती है. किंतु ये अंतर बहुत ज्यादा मायने नहीं रखते. आजादी मिलने के बाद भारत में भाषावार राज्यों की पुनर्रचना की गई. १ मई १९६० को मराठी भाषिकों का महाराष्ट्र राज्य अस्तित्व में आया. इसके पहले मुख्यमंत्री यशवंतराव चव्हाण ने अपने पहले ही भाषण में मराठी को भविष्य में ज्ञान भाषा बनाने की इच्छा प्रकट की थी. किंतु अनेक प्रयासों के बावजूद आज भी मराठी भाषा को एक लंबी दूरी तय करनी है. निरंतर विज्ञान के विस्तार, कंप्यूटर की शक्ति का भाषा की प्रगति में योगदान, विभिन्न विज्ञान की शाखाओं में पुस्तकों का अनुवाद जैसे कार्यों को अब भी पर्याप्त गति नहीं मिल पाई है.  मराठी पर संस्कृत भाषा का बडा प्रभाव है. मराठी के करीब ५० प्रतिशत शब्द संस्कृत से आए हैं. मराठी भाषा की प्रगति में संस्कृत एक आधार स्तंभ की भूमिका में रहेगी. मराठी की परिभाषाएँ संस्कृत पर ही अवलंबित हैं.

 उच्च शिक्षा में अंग्रेजी का दबदबा आज कमोबेश भारत की हर भाषा झेल रही है और मराठी भी इसमें अपवाद नहीं है. गत दो दशकों में वैज्ञानिक क्रांति खूब हुई है लेकिन उसमें भारतीय वैज्ञानिकों का योगदान बहुत ही कम है. इसीलिए यहॉं के जीवन को समृद्ध करने वाले विज्ञान को मराठी भाषा में नहीं लिखा गया है. विद्वानों को मराठी भाषा का गणितीय, संख्या शास्त्रीय और संगणकीय परिचय बहुत ही कम है. इन पहलुओं का अध्ययन करने पर ही मराठी का स्वरूप अधिक प्रकाशित होगा.

 अब आइए, याद करें उस महान विभूति के कृतित्व और पौरूष को जिसे याद कर आज भी मराठी साहित्य स्वयं गौरवान्वित होता है. कविवर्य कुसुमाग्रज का युवा काल परिवारजनों के बीच स्नेहमय वातावरण में बीता था. बाहरी लोगों के सामने उनका संकोची स्वभाव सहज ही लोगों के ध्यान में आ जाता था., साहित्यिक बहसों को टालने वाला उनका स्वभाव था. वे एक तरह से अपनी ही धुन में मस्त रहने वाले व्यक्ति थे. किंतु आगे चलकर उनके व्यक्तित्व में काफी परिवर्तन आया- अपने गृहनगर नाशिक में सार्वजनिक काका बनने के बाद उनके व्यक्तित्व ने खूब नवीनता का अनुभव कराया. उनका कविता संग्रह ‘विशाखा’ प्रकाशित होने के बाद उन्हें खूब सफलता मिली. लेकिन इस पर उन्होंने अधिक ध्यान नहीं दिया. उनके नाटक ‘नटसम्राट’ को अपार लोकप्रियता हासिल हुई, ज्ञानपीठ पुरस्कार से कवि कुसुमाग्रज सम्मानित हुए. इस महान कृति ने कवि कुसुमाग्रज को अजर अमर कर दिया. मानव जीवन के चढाव-उतारों और झंझावातों का विश्‍लेषण करने वाला यह प्रतिभाशली कवि, व्यावहारिक जीवन में हमेशा हसमुख प्रवृत्ति के साथ रहा. ध्येय वाद से ओतप्रोत कविताएं लिखने वाले कुसुमाग्रज ने कभी किसी को आदेश नहीं दिया और ना ही उपदेश देने में उनका विश्‍वास रहा. साहित्य के जरिए व्यंग्य भले ही अगणित किए हों किंतु उन्होंने प्रत्यक्ष बातचीत में कभी किसी को पीडा देने वाले शब्दों का प्रयोग नहीं किया. बैठकों में व्यक्तिगत टीका उन्हें बिलकुल अच्छी नहीं लगती थी. मजाकिया लहजे में बोलना, भाषा की मृदुलता, प्रेमपूर्ण व्यवहार, तटस्थता उनके स्वभाव का स्थायी भाव था. उनकी कविता नित नए पडावों से गुजरने की आदि थी. उनकी कविता कभी पाठकों के अंतर्मन में अग्नि प्रज्ज्वलित करने वाली समिधा बन जाती तो कभी मशाल लेकर मनुष्य के उर अंतर में विद्यमान असीम गुफा में प्रवेश कर अस्तित्व की खोज करने लगती. कभी कुसुमाग्रज की कविताएं जीने की निरर्थकता को प्रकट करतीं तो कभी ‘यूद्धाय युज्यस्व ’ के संदेश से प्रेरणा के स्वरों को गुंजित करतीं. और कभी सप्तसुरों के निषाद की तरह जीवन की विभिन्न अनुभूतियों से एकरूप होकर उनके भावचित्रों को हमारे सम्मुख पेश करतीं.

 अपने साहित्य में विभिन्न तानों बानों को गूंथने वाले कुसुमाग्रज ने स्वयं तनाव रहित जीवन जिया. इसीलिए उनकी ये पंक्तियॉं  उन पर सटीक उतरती हैं-

 पण तेव्हादेखील

 आणि त्यानंतर कधीही

 त्याला कळणार नाही

 माझ्या या आकाशाने

 काय भोगले

 काय सोसले

 काय अनुभवले

 - अर्थात तब भी और उसके बाद भी कोई न जान पाएगा कि मेरे इस जीवन के विशाल आकाश ने क्या भोगा, क्या सहा और क्या अनुभव किया!

 अंत में कुसुमाग्रज के अंदर बैठा कवि अपने जीवन के बारे में कहता है-

 जाता जाता गाइन मी

 गाता गाता जाइन मी

 गेल्यावरही या गगनातील

 गीतांमधुनी राहिन मी.

 जाते जाते गाने और गाते गाते चले जाने पर भी अपने काव्य के आकाश में अंकित गीतों के रूप में मौजूद रहने की जिजीविषा रखने वाले इस महान साहित्यकार को हमारा कोटिश: नमन.