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धार्मिक हंटर, मूढ़ मति और असल इस्लाम / सैयद सलमान
Friday, May 13, 2022 9:20:16 AM - By सैयद सलमान

मूढ़ मति की इस्लाम में कोई जगह नहीं है। उसके लिए आकाश भर ऊंची और साफ़ सोच का होना लाज़मी है
साभार- दोपहर का सामना 13 05 2022

पिछले दिनों प्रगतिशील राज्य कहे जाने वाले केरल की एक घटना से मुस्लिम समाज के एक तबक़े की छोटी सोच पर एक बार फिर उंगलियां उठने लगी हैं। केरल से वायरल हुए एक वीडियो में एक मुस्लिम नेता की कट्टरपंथी और दकियानूसी सोच का पता साफ़ चलता है। दरअसल केरल में गत दिनों 'समस्थ केरल जमीयतुल उलेमा' (एसकेजेयू) ने एक पुरस्कार वितरण कार्यक्रम का आयोजन किया था। इस कार्यक्रम में एक स्कूली छात्रा को पुरस्कार लेने के लिए मंच पर बुलाने पर नेता जी भड़क उठे। उन्होंने आयोजकों को सरेआम मंच पर ही फटकारा। मुस्लिम नेता ने भड़कते हुए पूछा कि छात्रा को मंच पर किसने बुलाया? वह ख़ुद को समाज का बड़ा ठेकेदार समझते हुए यहां तक बोल गए कि, जानते हो मैं कौन हूं? वीडियो में अगली बार किसी लड़की को मंच पर बुलाने की बात पर वह धमकी देते भी नज़र आते हैं। महाशय के अनुसार छात्रा के अभिभावकों को मंच पर बुलाना चाहिए था। दरअसल उन्हें आपत्ति इस बात से थी कि पुरस्कार वितरण की तस्वीर में छात्रा का उनके साथ उसका फ़ोटो आ जाएगा। अजीब रूढ़िवादिता है। अजीब धार्मिक हंटर है जो बजाय एक प्रतिभाशाली छात्रा की हौसला अफ़ज़ाई करने के उस बच्ची का मनोबल गिराता है और उसे हतोत्साहित करने का काम करता है। इस अपमानजनक घटना की न सिर्फ़ केरल के मुस्लिम विद्वान निंदा कर रहे हैं, बल्कि देश भर के मुस्लिम बुद्धिजीवियों ने भी इस घटना को असभ्य और दकियानूसी क़रार दिया है। ज़ाहिर सी बात है ऐसी घटनाओं का समाज पर असर पड़ेगा। उस छात्रा पर उस वक़्त क्या गुज़री होगी। होना तो यह चाहिए था कि नेता जी ख़ुद आगे आकर उस बच्ची को प्रोत्साहित करते। उसकी प्रतिभा का इस्तेमाल उसकी अपनी बेहतरी के लिए करने के लिए प्रेरित करते। साथ ही आगे और पढ़ाई जारी रखने की प्रेरणा देते हुए उसे क़ौम का सरमाया बताते। उसके माध्यम से बच्चियों की शिक्षा को बल देने की कोशिश करते। ऐसा करते हुए वे इस्लाम की शिक्षा 'इक़रा' के सही अर्थ 'पढ़' यानी शिक्षा के महत्व को सार्थक करते। लेकिन उस एक व्यक्ति के अहंकार और नासमझी ने पूरे मुस्लिम समुदाय को कटघरे में खड़ा कर दिया।

लगता है छात्रा के मंच पर आने से नेता महोदय को लगा होगा उनके द्वारा पठित इस्लाम कहीं ख़तरे में न आ जाए। एक बच्ची के मंच पर आ जाने से इस्लाम कैसे ख़तरे में आ सकता है? इस्लाम तो महिलाओं को बराबरी का हक़ देता है। पैग़ंबर मोहम्मद साहब क़ुरआन की आयत के ज़रिये अक्सर एक दुआ मांगा करते थे और लोगों को यह दुआ मांगने की नसीहत किया करते थे- 'रब्बी ज़िदनी इल्मा' (अल-क़ुरआन- २०:११४) यानि, 'ऐ मेरे रब, मेरे इल्म में इज़ाफ़ा कर' अर्थात 'हे ईश्वर, मेरे ज्ञान में वृद्धि कर।' उनका कहना था कि झूले से लेकर क़ब्र तक, इल्म की तलाश में अगर आपको अरब से चीन तक भी जाना पड़े, तो जाना चाहिए। इस बात से ज्ञात होता है कि इस्लाम में शिक्षा का क्या महत्व है और शिक्षा हासिल करना कितना अहम और ज़रूरी है। मोहम्मद साहब का मानना था कि शिक्षा केवल किताबी न हो बल्कि ज्ञान और इल्म से लबरेज़ हो। इस्लाम के अनुसार व्यक्ति ग़रीब हो या अमीर या किसी भी धर्म, जाति या वर्ग का क्यों न हो उसे शिक्षा हासिल करने का पूरा अधिकार है। इस मामले में स्त्रियों को लेकर भी कोई भेद नहीं था। होता तो क़ुरआन की आयतों से साबित होता। उम्मुल मोमिनीन हज़रत ख़दीजा, हज़रत आयशा और मोहम्मद साहब की लाड़ली बेटी हज़रत बीबी फ़ातिमा जैसी अनेक मुस्लिम महिला नायिकाओं के माध्यम से मुस्लिम महिलाओं की शिक्षा, सोच, व्यवहार और ज्ञान में तब कितनी क्रांति आई यह हदीसों में स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज है। पढ़ने से ही इल्म यानि शिक्षा आएगी इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता। क्या क़ुरआन के शब्द 'इक़रा' यानी इस 'पढ़' में कहीं पुरुष या महिला में भेद किया गया है ? नहीं, बिलकुल नहीं। तब आख़िर मुस्लिम समाज में महिलाओं के प्रति यह दुराव क्यों है ? एक हदीस में है, कि मोहम्मद साहब ने इरशाद फ़रमाया, "इल्म हासिल करना हर फ़र्द पर अनिवार्य है।" इसमें कहीं पुरुष या महिला का भेद नहीं है। पता चला कि पुरुषों की तरह महिलाओं का भी ज्ञान प्राप्त करना उनका कर्तव्य है। महिलाओं को किसी भी स्तर तक शिक्षा प्राप्त करने की आज़ादी है। इस्लाम ने उन्हें पढ़ाई करने से मना नहीं किया।

बात अगर मंच पर तस्वीर लेने की हो तो इस पिछड़ी मानसिकता पर तो बस सर ही धुन लेना चाहिए। इस्लाम के अनुयायी तस्वीरों को बनाने या तस्वीर खींचने को ग़लत मानते हैं। इसके लिए बाक़ायदा फ़तवा भी निकाला गया है। फ़तवे को इस्लामी नज़रिए से एक धार्मिक संदेश माना जाता है। हालांकि यह महज़ एक मुफ़्ती की क़ुरआन, हदीस और तफ़्सीर को पढ़कर की गई व्याख्या होती है जिसे मुस्लिम समाज सुविधानुसार स्वीकार-अस्वीकार करता है। अलग-अलग फ़िरक़े में एक दूसरे के फ़तवों को न मानने के कई उदाहरण मौजूद हैं। भारत के लगभग सभी प्रमुख इस्लामिक संस्थानों से संबंधित दारुल इफ़्ता यानी फ़तवा देने के लिए अधिकृत संस्था ने काफ़ी पहले ही फ़तवा जारी कर फ़ोटाग्राफ़ी को ग़ैर इस्लामिक और गुनाह क़रार दिया है। ऐसे में आज भी कई उलेमा और आम मुसलमान तस्वीरें खिंचवाने से परहेज़ करते हैं। हालांकि दूसरी तरफ़ सऊदी अरब जैसे प्रमुख इस्लामी मुल्क के पवित्र शहर मक्का की महत्वपूर्ण मस्जिद काबा शरीफ़ में फ़ोटोग्राफ़र्स को प्रवेश की इजाज़त दी जाती है और नमाज़ को सीधे प्रसारित किया जाता है। सोशल मीडिया पर काबा शरीफ़ के तवाफ़ करते हुए असंख्य तस्वीरें मिल जाएंगी जो ज़ायरीन पोस्ट करते हैं। अब मुस्लिम समाज ख़ुद कन्फ़्यूज़ है कि असल क्या है? अगर अल्लाह एक है, रसूल एक हैं, क़ुरआन एक है तो यह अलग-अलग फ़ैसले क्यों हैं? दरअसल सच्चाई यह है कि स्थान, काल और पात्र के अनुसार इस्लाम को अपनी सुविधानुसार मोड़ लेने में असुरक्षित भाव रखने वाले मौलवी हज़रात माहिर हैं।

मुस्लिम समाज का मूल पवित्र क़ुरआन में है, जिसकी भाषा अरबी है। इस्लाम एकेश्वरवाद पर विश्वास करता है। क़ुरआन शरीफ़ को आसानी से समझने के लिए मौलवियों ने अपने-अपने तरीक़े से हदीस की विवेचना की है। एक बात ध्यान देने की है कि, क़ुरआन की प्रत्येक सूरह की शुरुआत 'बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम' से होती है। इसका मतलब है, 'अल्लाह के नाम से शुरू, जो बहुत मेहरबान और रहमत वाला है।' यानी प्रत्येक मुसलमान अपनी प्रार्थना, अपना हर शुभ कार्य इसी बिस्मिल्लाह को पढ़कर करता है। जिस क़ुरआन की प्रत्येक सूरह को पढ़ने से पहले ही ख़ुदा से रहमत की बात कही गई हो, वह इस्लाम न कभी हिंसात्मक हो सकता है, न नकारात्मक न किसी के प्रति द्वेषपूर्ण भावना रख सकता है। लेकिन यह तब होगा जब क़ुरआन के मूल को समझा जाए न कि मौलवियों की व्याख्याओं को। अच्छाइयां और बुराइयां प्रत्येक जगह होती हैं। इस्लाम धर्म के अनुयायियों को चाहिए कि वे अपने कट्टरपंथी उलेमा द्वारा वर्णित इस्लाम की आभासी मज़हबी दुनिया से बाहर निकलकर मानवता और ईश्वरीय संविधान को सर्वोपरि समझें और अपनी मज़हबी ख़ामियों को दूर करें। बेहतर होगा कि इस्लाम धर्म के बुद्धिजीवी, प्रगतिशील उलेमा और अनुयायी चिंतन-मनन कर क़ौम और मानव हित में सकारात्मक बदलाव लाएं। एक बच्ची के मंच पर पहुंचने और मर्दों के साथ तस्वीर खिंचवा लेने से अगर इस्लाम ख़तरे में आ जाता है तो स्वीकार करना होगा कि इस सोच के मुसलमानों ने इस्लाम को कभी समझा ही नहीं। मूढ़ मति की इस्लाम में कोई जगह नहीं है। उसके लिए आकाश भर ऊंची और साफ़ सोच का होना लाज़मी है।



(लेखक मुंबई विश्वविद्यालय, गरवारे संस्थान के हिंदी पत्रकारिता विभाग में समन्वयक हैं। देश के प्रमुख प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं।)