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अफ़गान बनाम कुवैत- मुस्लिम महिलाओं पर अलग-अलग फ़रमान / सैयद सलमान
Friday, January 7, 2022 9:23:08 AM - By सैयद सलमान

कुवैत और अफ़गानिस्तान में अलग-अलग इस्लाम कैसे हो सकता है
साभार- दोपहर का सामना 07012022

पिछले दिनों मुस्लिम जगत की दो बड़ी महत्वपूर्ण ख़बरों ने ध्यान आकर्षित किया। एक है तालिबान शासित अफ़गानिस्तान की और दूसरी ख़बर है खाड़ी देश कुवैत से। अफगानिस्तान से जुडी खबर यह है कि, तालिबानी शासन ने अफ़गानी महिलाओं पर सार्वजनिक स्नान गृहों यानी हमाम में जाना पूरी तरह से निषिद्ध कर दिया है। अफ़गानी महिलाओं को स्नान के लिए केवल निजी स्नानगृह का ही इस्तेमाल करना होगा। तालिबान के मुताबिक धार्मिक विद्वानों, मुफ़्ती और उलेमा ने एकमत होकर यह फ़ैसला लिया है। पुरुषों के पक्ष में तर्क यह है कि, हर घर में आधुनिक स्नानगृह नहीं होते हैं इसलिए उन्हें हमाम में जाने की छूट होगी। चूंकि अफ़गानिस्तान में महिलाओं को हिजाब का पालन करने की सख़्ती है, इसलिए महिलाओं को निजी स्नानगृह का ही इस्तेमाल करना होगा। यह हुआ इस्लाम को पेश करने का एक रुख़। जबकि दूसरे रुख़ के मुताबिक़ कुवैत सरकार ने बड़ा क़दम उठाते हुए अपनी सेना में महिलाओं की भर्ती की प्रक्रिया शुरू कर दी है। भर्ती की शर्तों में आवेदनकर्ता महिला का यूनवर्सिटी से डिप्लोमाधारी या स्नातक होना अनिवार्य रखा गया है। एक तरह से यह भी मुस्लिम महिलाओं के शिक्षण के प्रति जागरूकता बढ़ाने वाला क़दम है। सेना में भर्ती के विकल्प अगर खुलेंगे तो महिलाओं के शिक्षण का ग्राफ़ भी निःसंदेह बढ़ेगा। यहां यह भी जान लेना ज़रूरी है कि कुवैत में महिलाएं २००१ से पुलिस विभाग में काम कर रही हैं। शायद उनकी इसी क्षमताओं को देखते हुए अब उन्हें सेना में शामिल होने की अनुमति दी गई है।

इस्लामी शिक्षा के नाम पर हमाम में महिलाओं के जाने पर लगे प्रतिबंध और कुवैत की सेना में मुस्लिम महिलाओं को शामिल करने की ख़बरों पर मुस्लिम जगत से मिली जुली टिप्पणी का आना स्वाभाविक है। अफ़गानिस्तान में महिलाओं पर आए दिन फ़तवे निकलते रहे हैं। पिछले दिनों अफ़गानिस्तान में तालिबान सरकार ने ७२ किलोमीटर से ज्यादा लंबी यात्रा करने वाली महिलाओं को बिना महरम पुरुष के लंबी यात्रा करने पर प्रतिबंध लगाया था। महिलाओं को हिजाब पहनने, गाड़ी में संगीत ना बजाने, टीवी चैनलों के कार्यक्रमों में महिला कलाकारों को न दिखाने, महिला पत्रकारों से टीवी पर कार्यक्रम पेश करते हुए सिर ढकने जैसे कई आदेश पहले ही जारी किए जा चुके हैं। यही नहीं बल्कि अफ़गानिस्तान में बड़ी संख्या में महिलाओं को सरकारी नौकरी करने से भी रोका गया है। इसके ठीक विपरीत कुवैत में सरकारी अनुमति मिलने के बाद अब तक १३ हज़ार महिलाओं ने सेना में भर्ती होने के लिए आवेदन किया है। वैसे कुवैत में यह क़दम सऊदी अरब की देखा-देखी उठाया गया है, यह कहने में कोई हर्ज नहीं है। सुधारवाद की प्रक्रिया में लगे सऊदी अरब में भी हुए कुछ समय पूर्व महिला और पुरुष दोनों को सेना में रजिस्टर करने की मंज़ूरी दी गई थी। सऊदी अरब की सेना में महिलाओं के लिए सैनिक से लेकर सार्जेंट तक की रैंक देने की मंज़ूरी मिली हुई है। इतना ही नहीं, सऊदी अरब में रॉयल सऊदी अरब डिफ़ेंस, रॉयल सऊदी नेवी, आर्म फ़ोर्सेज की मेडिकल सेवाओं और स्ट्रेटेजिक मिसाइल फ़ोर्सेज में भी महिलाओं के शामिल करने के लिए क़दम उठाए गए हैं। यहां यह ध्यान देना ज़रूरी है कि सऊदी ही वह देश है जहां इस्लाम का उदय हुआ और फला-फूला। लेकिन पैग़ंबर मोहम्मद साहब और ख़लीफ़ाओं के दौर के बाद लगाई गई कई सख़्तियों की वजह से वही इस्लाम रूढ़िवादी और कट्टरपंथी मज़हब माना जाने लगा।

ऐसा नहीं है कि कुवैत पहले से ही महिलाओं के प्रति बड़ा उदारवादी रुख़ रखता रहा हो। कुवैत में भी अन्य मुस्लिम देशों की तह पहले महिलाओं की स्थिति ठीक नहीं थी। यहां तक कि महिलाओं को वोट देने का अधिकार तक नहीं था। २००५ में उन्हें यह अधिकार दिया गया। जब से उन्हें यह अधिकार मिला है, तब से उनकी स्थिति में निरंतर सुधार हो रहा है। आज कुवैत की संसद और कैबिनेट दोनों में महिलाएं प्रतिनिधित्व कर रही हैं। जबकि अफ़गानिस्तान में महिलाओं को क़ैद करने की दिशा में कोई न कोई फ़रमान आए दिन निकलता रहता है। वहां की महिलाओं के लिए स्वतंत्र रूप से कहीं भी आने-जाने, व्यापार करने पर भी तालिबान पाबंदी लगाता रहता है। यहां तक कि महिलाओं की शिक्षा को लेकर भी कई बंदिशें हैं। अफ़गानिस्तान की महिलाएं पढ़ाई तो कर रही हैं लेकिन उन्हें कुछ विशेष नियमों का पालन करना पड़ रहा है। महिला छात्रों को लड़कों से अलग पढ़ाया जा रहा है। उन्हें इस्लामिक क़ानून के आधार पर कपड़े पहनने पड़ रहे हैं। यानी उन्हें सिर से पांव तक ख़ुद को ढंक कर पर्दे में रखना अनिवार्य है। छात्राओं को पढ़ाने की ज़िम्मेदारी शिक्षिकाओं को ही दी गई है। जहां महिलाएं उपलब्ध नहीं हैं, वहां पुरुष शिक्षक पढ़ा तो रहे हैं लेकिन विश्वविद्यालयों में छात्र-छात्राओं को अलग-अलग बैठने की व्यवस्था की गई है। जहां मजबूरन सहशिक्षा जारी है वहां छात्र-छात्राओं के बीच में पर्दे लगाए गए हैं। कई जगह तो स्ट्रीमिंग के ज़रिए भी पढ़ाई कराई जा रही है। फ़िलहाल कोरोना में ऑनलाइन शिक्षा पर ही ज़ोर दिया गया है, क्योंकि यह तालिबानी नियमों के क्रियान्वयन में ज़्यादा कारगर है।

अक्सर मुस्लिम समाज के अनेक मुद्दों पर भ्रम पैदा होता है। जब तालिबानी विचारधारा के पोषक या कट्टपंथी उलेमा महिलाओं के संदर्भ में कोई भी बेतुका फ़रमान जारी करते हैं, तब उस फ़तवे को तोड़-मरोड़ कर इस्लाम के बुनियादी उसूलों से जोड़ दिया जाता है। सही इस्लाम को न जानने वाले मुस्लिम और ग़ैर-मुस्लिम भी अक्सर इसे इस्लाम का एक हिस्सा समझ लेते हैं जो सर्वथा ग़लत है। एक बात गांठ मार लेनी चाहिए कि सही इस्लाम की शिक्षा में ऐसी किसी भी बात से इस्लाम का कोई ताल्लुक़ नहीं है, जो मानव अधिकारों की रक्षा न करे। इस्लाम तो सज़ायाफ़्ता क़ैदी के अधिकारों की भी बात करता है, तो फिर वह मुस्लिम महिलाओं पर ज़ुल्म की वकालत कैसे कर सकता है? यहां यह बात ध्यान देने की है कि, पहली उम्मुल मोमिनीन हज़रत ख़दीजा का व्यापार के क्षेत्र में ख़ुद में एक बहुत बड़ा और सम्मानित नाम था। हज़रत आयशा ने जंग में हिस्सा लिया था। हज़रत बीबी फ़ातिमा को तो महिलाओं की सरदार का लक़ब मिला हुआ है। मोहम्मद साहब की फूफी हज़रत सफ़िया तो इतनी बहादुर और निडर महिला थीं कि 'जंग-ए-ख़दक' के दौरान वह घायलों को बिना किसी डर और ख़तरे के युद्ध के मैदान से बाहर निकालती और उनकी मरहम-पट्टी करती थीं। युद्ध के दौरान का एक वाक़या है कि, जब एक दुश्मन सैनिक ने एक महिला पर हमला किया तो हज़रत सफ़िया ने उस सैनिक पर इतना ज़ोरदार हमला किया कि उसका सिर धड़ से अलग हो गया। उसके बाद दुश्मन सेना के किसी भी सैनिक में महिलाओं पर हमला करने की हिम्मत नहीं हुई। इस से साबित हुआ कि, हज़रत सफ़िया सेना का हिस्सा थीं और महिलाएं सेना में हुआ करती थीं। ग़ौरतलब है कि,क़ुरआन की ज़्यादातर आयतें महिला और पुरुष दोनों को संबोधित करते हुए हैं। क़ुरआन का दृष्टिकोण दोनों के लिए समान है और यह महिला-पुरुष में भेद नहीं करता। क़ुरआन में उल्लेख है कि, ‘‘हमने महिला और पुरुष दोनों को एक समान आत्मा दी है, दोनों की महत्ता एक समान है।’’ तो फिर कुवैत और अफ़गानिस्तान में अलग-अलग इस्लाम कैसे हो सकता है। ज़ाहिर सी बात है कोई एक ग़लत पटरी पर है। सही और ग़लत के बीच के इस फ़र्क़ को अब मुसलमानों को गहराई से समझने की ज़रूरत है।



(लेखक मुंबई विश्वविद्यालय, गरवारे संस्थान के हिंदी पत्रकारिता विभाग में समन्वयक हैं। देश के प्रमुख प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं।)