Saturday, April 27, 2024

न्यूज़ अलर्ट
1) अक्षरा सिंह और अंशुमान राजपूत: भोजपुरी सिनेमा की मिली एक नयी जोड़ी .... 2) भारतीय मूल के मेयर उम्मीदवार लंदन को "अनुभवी सीईओ" की तरह चाहते हैं चलाना.... 3) अक्षय कुमार-टाइगर श्रॉफ की फिल्म का कलेक्शन पहुंचा 50 करोड़ रुपये के पार.... 4) यह कंपनी दे रही ‘दुखी’ होने पर 10 दिन की छुट्टी.... 5) 'अब तो आगे...', DC के खिलाफ जीत के बाद SRH कप्तान पैट कमिंस के बयान ने मचाया तूफान.... 6) गोलीबारी... ईवीएम में तोड़-फोड़ के बाद मणिपुर के 11 मतदान केंद्रों पर पुनर्मतदान का फैसला.... 7) पीएम मोदी बोले- कांग्रेस ने "टेक सिटी" को "टैंकर सिटी" बनाया, सिद्धारमैया ने किया पलटवार....
ज़्यादातर मुसलमान नहीं जानते इस्लाम की सही परिभाषा.......!! / सैयद सलमान
Friday, June 18, 2021 9:02:33 AM - By सैयद सलमान

इस्लाम का जो अस्तित्व वर्तमान में है वह धर्म के विषय में इकठ्ठा की गई पुरानी सूचनाओं पर निर्मित है
साभार- दोपहर का सामना 18 06 2021

इस्राइल-फ़िलिस्तीन का मुद्दा हो या चीन के उइगर मुसलमानों का, चाहे बांग्लादेशी मुसलमानों का मुद्दा हो या रोहिंगिया मुसलमानों का, विश्व भर में मुसलमानों को लेकर जिस तरह से नकारात्मक छवि बनी है वह मुस्लिम समाज के प्रबुद्धजनों को बेहद खलती है। पिछले कई वर्षों से दुनिया इस बहस में उलझी हुई है कि इस्लामी मतों के कारण फैला आतंकवाद दुनिया के लिए ख़तरा बन चुका है। लेकिन समझदार और शिक्षित मुसलमान यह मानने से इनकार करते रहे हैं। दरअसल यह कथित ‘इस्लामी’ आतंकवादी हरकतें एक समुदाय के तौर पर किसी ख़ास मज़हब का पालन करने वालों की करतूत तो हो सकती है लेकिन वह मज़हब इसकी शिक्षा कहीं से नहीं देता। पश्चिमी देशों में तो इस्लाम को काफ़ी नकारात्मक तरीक़े से पेश किया जाता रहा है। इसमें बड़ा रोल उन आतंकी संगठनों का है जिन्होंने सत्ता के खेल में अपनी भूमिका तलाशते-तलाशते हिंसा को धर्म का हिस्सा बनाकर पेश किया। आज हालत यह है कि सोशल मीडिया से लेकर संचार के सभी माध्यमों द्वारा इस्लाम और संस्कृति को बिल्कुल आक्रांता और हिंसक तरीक़े से दिखाया जा रहा है। यहां तक कि यूरोपीय देशों में कामकाज के लिए आने वाले प्रवासी मुसलमानों पर प्रतिबंध लगाने की बात भी अक्सर होती रहती है। कारण यही कि मुस्लिम समाज केवल हिंसा को पसंद करता है। लेकिन यह सच नहीं है। इस्लाम अपने देश के प्रति समर्पण, संपूर्ण योगदान और वफ़ादारी की सीख देता है।

किसी शायर ने कहा है,
'मिलेगी मंज़िले मक़सूद हम ईमान रखते हैं,
अपनी रहनुमाई के लिए क़ुरआन रखते हैं,
वफ़ादारी वतन से हो यही इस्लाम कहता है,
हम अपने दिल के हर कोने में हिंदुस्तान रखते हैं।'

इ्स्लाम कहता है कि अपने मुल्क के प्रति ईमानदार और वफ़ादार रहें। वक़्त आने पर अपने देश के लिए जान की क़ुर्बानी दें। इस्लाम के मुताबिक़ ईश्वर का फ़रमान है कि जिस मुल्क में रह रहे हो, उस मुल्क के प्रति वफ़ादारी और मोहब्बत बहुत ज़रूरी है। मुसलमान अगर कोई भी ऐसा काम करते हैं, जो मुल्क के लिए सही नहीं हो तो वह काम उसे इस्लाम से दूर कर देता है। मुल्क से वफ़ादारी करना इस्लाम केवल सिखाता ही नहीं, बल्कि कहता है कि उससे मोहब्बत तुम्हारे ईमान का हिस्सा है। 'हुब्बुल वतनी निस्लफ़ु ईमान' का मंत्र हर मुसलमान के लिए ज़रूरी है। मुस्लिम समाज अगर इन बातों पर अमल करता है तो अपने देश में भी सीना ठोंक कर कह सकता है कि मुसलमान देश के संविधान को मानते हैं। दरअसल मुसलमान अपनी क़ौम के साथ-साथ बिरादरान-ए-वतन को यह समझाने में कहीं न कहीं चूक गए कि इस्लाम की बुनियाद ही समर्पण और सेवा की रही है। मुसलमानों को बस इतना ही समझना होगा कि देश की एकता और अखंडता अगर प्रत्येक नागरिक का प्रथम कर्तव्य है तो वह भी उसका हिस्सा बनें न कि ख़ुद देश की अखंडता में कहीं बाधक बनकर गैर-मुस्लिमों के दिलों में अपने लिए मलाल पैदा करें। याद रखें देश की एकता और अखंडता के साथ किसी भी सूरत में समझौता नहीं किया जा सकता। संविधान में समानता, सबके साथ न्याय और मानव अधिकारों का उद्देश्य भी देश की एकता और अखंडता में ही निहित है। संवैधानिक उद्देश्यों को नज़रअंदाज़ करके किसी भी देश में न तो सुख-शांति स्थापित की जा सकती है और न ही ज़बरदस्ती वफ़ादारी ख़रीदी जा सकती है। उसके लिए सिर्फ़ और सिर्फ इस्लाम के सही संदेश को समझकर देश के प्रति वफ़ादार रहने की ज़रूरत है।

कोई सिरफिरा शख़्स क़ुरआन की जो भी व्याख्या करता हो, उसके कारण की जाने वाली करतूतों के लिए न तो पूरा मुस्लिम समुदाय ज़िम्मेदार है और न वह मज़हब ज़िम्मेदार है जिसका पालन मुसलमान करते हैं। इसका उदाहरण कुछ इस तरह भी दिया जा सकता है कि अगर कोई सनकी आशिक़ मोहब्बत की ख़ातिर किसी का क़त्ल कर देता है तब कोई यह नहीं कहता कि मोहब्बत संकट में है, बल्कि वह क़ातिल को दोषी मानता है। हालांकि लोग मोहब्बत की ख़ातिर सदियों से हत्या करते रहे हैं फिर भी मोहब्बत दोषी नहीं है। लेकिन इस्लाम को शायद इसलिए दोष दिया जाता है क्योंकि अक्सर हिंसा को सही ठहराने के लिए इस्लाम की ग़लत व्याख्या और धर्म का सहारा लिया जाता है। इस्लाम के आगमन के साथ ऐसा नहीं था कि समाज में बहुत सारे नए परिवर्तन देखने को मिले, बल्कि इस नयी धार्मिक मान्यता ने पूर्व की मान्यताओं को एक नए रूप में प्रस्तुत किया। इस्लाम का जो अस्तित्व वर्तमान में है वह धर्म के विषय में इकठ्ठा की गई पुरानी सूचनाओं पर निर्मित है। इसके पार्श्व में जो संदेश मिलते हैं वह अनेक आलिमों और धर्मगुरुओं के लिखे हुए इतिहास से प्रभावित हैं। इस्लाम की व्याख्या अलग-अलग फ़िरक़ों में बंटे अनेक मुस्लिम धर्मगुरुओं ने अपने-अपने हिसाब से की। कुछ ने इसी व्याख्या के तहत इस्लाम को हिंसक बताने से गुरेज़ नहीं किया। जिसका ख़ामियाज़ा आज का मुसलमान भुगत रहा है। जिहाद जैसे शब्द की तो पूरी व्याख्या ही मनगढ़ंत रूप ले चुकी है जो हिंसा को जायज़ ठहराती है जबकि जिहाद का असल अर्थ ही कुछ और है।

विश्व भर में फैले इस्लामोफ़ोबिया के ऐसे माहौल में मुसलमानों की नई पीढ़ी को उन्मादी मुसलमानों का भय त्याग कर आगे आना होगा और जो बात ग़लत है उसको ग़लत कहना होगा। समाज के हर वर्ग को यह बताना होगा कि जो क़ुरआन पूरी मानवता को अमन, शांति और भाईचारे का पैग़ाम देता हो, उस इस्लाम में किसी प्रकार आंतक या दहशत की कोई गुंजाइश नहीं है। क़ुरआन में साफ़ कहा गया है कि किसी एक बेगुनाह इंसान की हत्या कर देना वैसा ही है जैसे उसने सारी इंसानियत की हत्या कर दी हो। उसी प्रकार अगर कोई व्यक्ति किसी निर्दोष की जान बचाए, तो वैसा ही है कि जैसे उसने सारी इंसानियत की जान बचाई हो। ग़ैर-मुस्लिम समाज के अधिकतर लोगों को इस्लाम के बारे में सही जानकारी नहीं है। केवल ग़ैर-मुस्लिम ही नहीं विश्व में फैली मुसलमानों की बड़ी आबादी के अधिकांश लोगों को भी इस्लाम की सही परिभाषा नहीं पता है। उन सभी को यह बताने की ज़रूरत है कि नाम, रंग, नस्ल भले अलग हों, लेकिन मुसलमान भी उन्हीं की तरह एक आम इंसान हैं, जिनका अपना एक शांतिप्रिय धर्म है और जो ग़ैर-मुस्लिमों के साथ भाईचारे की सीख देता है। वह भी अमन और सुकून से उनके साथ अपना जीवन व्यतीत करना चाहते हैं।

इसी के साथ-साथ मुसलमानों को एक-दूसरे पर दोषारोपण करने के बजाय हक़ीक़त का सामना करना होगा। इस्लाम के बारे में जहां-जहां ग़लत धारणाएं बनी हुई हैं, उसे दूर करने का प्रयास करना होगा। समय की आवश्यकता है कि सकारात्मक सोच के साथ इस्लाम की सही छवि दुनिया के सामने पेश की जाए। इस्लाम के सही पैग़ाम को लोगों तक पहुंचाना, लोगों से संवाद स्थापित कर उनके संदेह को दूर करना और इस्लाम के बारे में जो ग़लत धारणा उनके मन में बैठ गई है, उन्हें दूर करना समय की सबसे बड़ी ज़रूरत है। इस्लाम के अनुसार जो चीज निंदनीय है उसकी निंदा करनी होगी, नाइंसाफ़ी के ख़िलाफ़ बोलना होगा और इस्लाम के संदेशों को अच्छे तरीक़े से लोगों तक पहुंचाना होगा, तभी दुनिया को इस्लाम के बारे में एक अच्छा संदेश देने में कामयाब हुआ जा सकता है। मुसलमानों को चाहिए कि वह अपने नौजवानों को यह सीख दें कि वे अपने भीतर की विरोधी शक्तियों, देश के शत्रुओं और ग़ैर-ज़िम्मेदार मीडिया के बहकावे में न आएं न ही अख़बारों, टीवी मीडिया या सोशल मीडिया पर आधारहीन समाचारों और अफ़वाहों पर ध्यान दें। अशांति फैलाने वाली शक्तियां यही चाहती हैं कि मुस्लिम समाज अपने बनाए जाल में उलझा रहे।




(लेखक मुंबई विश्वविद्यालय, गरवारे संस्थान के हिंदी पत्रकारिता विभाग में समन्वयक हैं। देश के प्रमुख प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं।)