साभार- दोपहर का सामना 07 05 2021
पांच राज्यों के चुनावी नतीजों के बाद चुनावी समीक्षाओं का दौर जारी है। इन नतीजों के मायने खोजे जा रहे हैं। अगर बीजेपी के लिहाज़ से देखा जाए तो उसके लिए यह मिला-जुला नतीजा है। वैसे पश्चिम बंगाल की शिकस्त को पचाना उसके लिए मुश्किल हो रहा है। इस शिकस्त को वह इसलिए नहीं पचा पा रही है क्योंकि वहां बीजेपी के सबसे बड़े प्रचारक और देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, उनके सबसे भरोसेमंद सहयोगी गृहमंत्री अमित शाह, बीजेपी के आक्रामक प्रचारक यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ सहित कई भाजपाई सूरमा अपनी पूरी ताक़त झोंकने के बावजूद सरकार बना पाने में असफल रहे। मुस्लिम मतों के ध्रुवीकरण और ममता दीदी के रणकौशल ने पश्चिम बंगाल में तीसरी बार सरकार बनाने की स्थिति प्राप्त कर ली। हालांकि बीजेपी असम में अपनी सरकार बचाने में कामयाब रही। कांग्रेस और मौलाना बदरुद्दीन अजमल का गठजोड़ बीजेपी को ध्वस्त करने में नाकामयाब रहा। जहां पश्चिम बंगाल में मुस्लिम मतों का ध्रुवीकरण अगर ममता के लिए फ़ायदेमंद रहा तो ठीक उसके उलट असाम में हिंदू मतों का ध्रुवीकरण कर पाने में बीजेपी कामयाब रही। राज्य के मतदाताओं को कांग्रेस का ख़ास तौर पर मुस्लिम समर्थक एआईयूडीएफ से गठबंधन रास नहीं आया। इस गठबंधन के कारण ही भाजपा के कांग्रेस पर मुस्लिम तुष्टिकरण की राजनीति के आरोपों को मज़बूती मिली। हालांकि बीजेपी ने पुडुचेरी में खाता खोल लिया है। वहां पहली बार बीजेपी गठबंधन की सरकार बन रही है। इस से पहले वहां सत्तासीन कांग्रेस से बीजेपी राज्य की सत्ता छीनने में कामयाब रही।
केरल में मुस्लिम समाज के पास दोनों प्रतिद्वंद्वी गठबंधन में से किसी के भी साथ जाने का खुला विकल्प था। नतीजों के अनुसार उसने लेफ़्ट फ़्रंट के साथ जाना ज़्यादा मुनासिब समझा। केरल में बीजेपी को तो यह पहले से ही पता था कि उसके लिए वहां सत्ता प्राप्त करना नाकों चने चबाने जैसा है। केरल में चार दशक बाद ऐसा हुआ कि कोई गठबंधन लगातार दूसरी बार सत्ता में बने रहने में कामयाब रहा। तमिलनाडु में भी उम्मीद के मुताबिक़ ही नतीजे आए। जयललिता के देहांत के बाद एआईएडीएमके के पास ऐसा कोई करिश्माई नेतृत्व नहीं था, जो फिर से जीत दिला सके। जनता ने इस बार डीएमके के वादों पर भरोसा कर लिया और करूणानिधि के बेटे के हाथ में सत्ता की कुंजी सौंप दी। यहां कांग्रेस को डीएमके के साथ रहने का फ़ायदा ज़रूर हुआ। चूंकि एआईडीएमके ने बीजेपी के साथ गठबंधन किया था, इसलिए स्वाभाविक तौर पर तमिलनाडु में मुस्लिम समाज का वोट डीएमके-कांग्रेस गठबंधन के पक्ष में गया। यानी मुस्लिम ध्रुवीकरण का असर सिर्फ़ बंगाल में ही नहीं बल्कि अन्य राज्यों में भी नज़र आया है। असम में कई मुस्लिम बहुल सीटों पर भी यही हुआ, जिसका फ़ायदा कांग्रेस और यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ़्रंट को मिला। कांग्रेस गठबंधन को मिली सीटों में आधे से अधिक सीटें मुस्लिम ध्रुवीकरण का परिणाम है। इसके अलावा तमिलनाडु और पुडुचेरी में भी इसका असर मुस्लिम क्षेत्रों में नज़र आया।
वैसे जब-जब इन पांच राज्यों के चुनावी नतीजों में मुस्लिम समाज की भूमिका को लेकर चर्चा हो रही हो तो ऐसा लगता है जैसे पश्चिम बंगाल तो अखाड़ा ही बन गया था। ममता बनर्जी की तृणमूल सरकार के ख़िलाफ़ इस बार भाजपा ने आक्रामक रूप से चुनाव अभियान चलाया। इस बार बंगाल में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण भी जमकर हुआ। लेकिन उसका सीधा फ़ायदा तृणमूल कांग्रेस को शायद इसलिए मिल सका क्योंकि ममता के अलावा अल्पसंख्यकों को कोई और ऐसा चेहरा नज़र नहीं आया जिसे वह बीजेपी को परास्त करने जितना ताक़तवर समझते। इस बार के चुनाव को सांप्रदायिक रंग देने में बीजेपी ने कोई कसर नहीं छोड़ी, लेकिन उसी आक्रामकता को भुनाकर ममता अल्पसंख्यकों का मत अपनी तरफ़ करने में कामयाब रहीं। यह कहने में किसी को संकोच नहीं है कि, तृणमूल को तीसरी बार सत्ता दिलाने में मुस्लिम मतदाताओं की बड़ी भूमिका रही। हालांकि ममता को बीजेपी ने मुस्लिम तुष्टिकरण के आरोपों के पेंच में कुछ ऐसा फंसा रखा था कि, उन्हें इस बार के चुनावों में चंडीपाठ और मंत्रोच्चार तक करने की मजबूरी आ गई थी। लेकिन तब भी मुस्लिम मतदाताओं का दीदी के साथ खड़ा रहना मुस्लिम समाज का उनके प्रति विश्वास प्रदर्शित करता है।
बता दें कि बंगाल में पूरी आबादी का करीब ३० फ़ीसद हिस्सा मुस्लिम समाज का है। राज्य में में करीब आठ ज़िले ऐसे हैं जहां उनकी संख्या ४० फ़ीसद या उससे अधिक है। मुस्लिम मतदाता सैकड़ों सीटों पर निर्णायक भूमिका में थे। मुस्लिम मतदाताओं की प्राथमिकता बहुत साफ़ और स्पष्ट है कि जो भी पार्टी बीजेपी को हराने में सक्षम है, उसके साथ हो लो। पश्चिम बंगाल में भी यही हुआ। मुस्लिम मतदाता पूरी ताक़त से टीएमसी के साथ लग गए, क्योंकि उन्हें लगा कि यही पार्टी बीजेपी को राज्य में सत्ता की बागडोर थामने से रोक सकती है। मुस्लिम मतदाताओं ने वर्षों कांग्रेस और वाममोर्चे के साथ टैक्टिकल वोटिंग की है, लेकिन इस बार उसने कांग्रेस और लेफ़्ट तो ठीक, उस फुरफुरा शरीफ़ के लिए भी अपना वोट बर्बाद नहीं किया, जिसके बारे में कहा जाता है कि पश्चिम बंगाल के बड़े हिस्से में उसका प्रभाव है। फुरफुरा शरीफ़ के पीरज़ादा अब्बास की इंडियन सेक्युलर फ़्रंट, कांग्रेस और वामदलों ने साझा चुनाव लड़ा। अनुमान था कि इस बार मुसलमानों के वोट बंटेंगे और तृणमूल को नुक़सान होगा। लेकिन इसके उलट मुसलमानों का एकमुश्त वोट ममता के पाले में चला गया। लगा था त्रिकोणीय मुकाबला होगा लेकिन त्रिकोणीय मुकाबला तो दूर इस चुनाव में तीनों दलों का वजूद ही समाप्त हो गया। वाममोर्चा और कांग्रेस ने बंगाल के चुनावी इतिहास में सबसे ख़राब प्रदर्शन किया। असदुद्दीन ओवैसी की एमआईएम का भी बड़ा हौवा था जिसने बंगाल के मुस्लिम बहुल सात सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे, लेकिन उन सभी को हार का सामना करना पड़ा। ओवैसी बिहार के सीमांचल जैसा कोई चमत्कार नहीं कर सके। वर्ष २०१९ के लोकसभा चुनाव में तृणमूल कांग्रेस को ४३.३ फ़ीसद वोट मिले थे, लेकिन इस बार क़रीब ५ फ़ीसद इज़ाफ़े के साथ टीएमसी को ४७.९ फ़ीसद वोट मिले। भाजपा को लोकसभा चुनाव में ४०.७ फ़ीसद मत मिले थे, लेकिन इस बार २ फ़ीसद की गिरावट के साथ ३८.१ फ़ीसद मत मिले। टीएमसी को मिले इस फ़ायदे की पहली वजह एनआरसी यानी नेशनल रजिस्टर ऑफ़ सिटीज़न को लेकर मुसलमानों में असुरक्षा की भावना थी।
देश में आज़ादी के बाद से देखा गया है कि मुस्लिम समाज के वोट बैंक का ध्रवीकरण होता आया है। मुस्लिम समाज को राजनीतिक चक्रव्यूह में सांप्रदायिक खेल का ऐसा मोहरा बना दिया गया है कि वह एकमुश्त होकर किसी एक ऐसे दल को एकतरफ़ा वोट देने पर मजबूर हो जाता है, जिससे उस दल की स्थिति मज़बूत और जीत निश्चित हो सके। कुछ लोग इसे सांप्रदायिक नहीं बल्कि सेक्युलर वोट कहते हैं। भले ही मुस्लिम समाज इसको रणनीति कहता हो लेकिन आने वाले दिनों में इसका असर मुस्लिम समाज के लिए नुक़सानदेह भी साबित हो सकता है। ममता के साथ मुसलमानों का जाना ज़ाहिर सी बात है न बीजेपी को रास आया है न अब कांग्रेस या लेफ़्ट पार्टियों को पसंद आएगा। आगे अगर आबादी के लिहाज़ से ध्रुवीकरण हुआ तो मुस्लिम समाज अलग-थलग पड़ जाएगा। लोकतंत्र के लिए यह स्थिति ठीक नहीं होगी। इस राजनीति की वजह से सामाजिक दूरियां बढ़ रही हैं और इसका असर हिंसात्मक रूप से पश्चिम बंगाल में दिखने लगा है। देश के कई राज्य इसके गवाह बन चुके हैं। ऐसे में मुस्लिम समाज को ध्रुवीकरण से बचते हुए मुद्दों पर आधारित चुनावी राजनीति को प्रोत्साहन देना चाहिए। इस से उस पर लगा तुष्टिकरण का दाग़ भी मिटेगा और राजनैतिक दल भी सांप्रदायिक मुद्दों के बजाय मूल मुद्दों को केंद्र में रखकर राजनीति करने पर विवश होंगे।
(लेखक मुंबई विश्वविद्यालय, गरवारे संस्थान के हिंदी पत्रकारिता विभाग में समन्वयक हैं। देश के प्रमुख प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं।)