साभार- दोपहर का सामना 18 09 2020
ऐसे समय में जब चारों तरफ़ टीआरपी के खेल में शामिल अधिकांश चैनल हो-हल्ला और चीख़-पुकार मचा रहे हों, सुप्रीम कोर्ट ने उम्मीद जगाई है कि इस शोर पर अंकुश लगाया जा सकता है। ज़रूरत है समय पर शिकायत करने की। प्रतिष्ठित कंपनियों के चैनल पर भी इल्ज़ाम लगते हैं, लेकिन जिन ‘कथित पत्रकारों’ ने निजी चैनल खोल रखे हैं वहां तो ‘खुला खेल फर्रुख़ाबादी’ जैसी स्थिति है। जो जी में आए बोलना है, गुंडों की शैली में एंकरिंग करनी है और निरंकुश बर्ताव करना है। तभी तो शिकायत किए जाने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने एक चैनल के उस कार्यक्रम पर रोक लगा दी है जिस पर धार्मिक आधार पर भड़काऊ कार्यक्रम दिखाया जाना था। अदालत ने इस कार्यक्रम के दो एपिसोड के प्रसारण पर रोक लगाते हुए जो टिप्पणी की है वह महत्वपूर्ण है। अदालत ने कहा, ‘इस समय, पहली नज़र में ऐसा लगता है कि यह कार्यक्रम मुस्लिम समुदाय को बदनाम करने वाला है।’ न्यायमूर्ति धनंजय वाई चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति इंदु मल्होत्रा और न्यायमूर्ति केएम जोसेफ की तीन सदस्यीय पीठ ने इस कार्यक्रम के प्रसारण को लेकर व्यक्त की गई शिकायतों पर सुनवाई की और इस नतीजे पर पहुंचे। मामला सर्वोच्च न्यायालय से पहले दिल्ली हाईकोर्ट भी पहुंचा था। दिल्ली हाईकोर्ट ने भी तब जामिया मिल्लिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी के छात्रों की एक याचिका पर सुनवाई करते हुए इस कार्यक्रम के प्रसारण के ख़िलाफ़ स्टे ऑर्डर जारी किया था।
दरअसल पिछले माह इस न्यूज़ चैनल ने एक टीज़र जारी किया था जिसमें चैनल के संपादक ने ये दावा किया था कि वे अपने कार्यक्रम में ‘कार्यपालिका के सबसे बड़े पदों पर मुस्लिम घुसपैठ का पर्दाफाश’ करेंगे।’ टीज़र आने बाद से ही सोशल मीडिया पर इसे लेकर आलोचना शुरू हो गई थी। जबकि एक तबक़ा समर्थन में भी उतर आया था। इस टीज़र के आने के बाद भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारियों के संगठन ने भी इसकी निंदा की थी और इसे ‘ग़ैर-ज़िम्मेदाराना पत्रकारिता’ करार दिया था। बड़े अधिकारियों ने अल्पसंख्यक उम्मीदवारों के आईएएस और आईपीएस बनने के बारे में हेट स्टोरी बनाने की कोशिश करने वालों की आलोचना की थी। सोशल मीडिया पर व्यक्तिगत स्तर पर भी अनेक अधिकारियों ने इसके विरोध में टिप्पणी की थी। इसके बावजूद केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने एक आदेश जारी कर चैनल को वह कार्यक्रम प्रसारित करने की इजाज़त दी थी। हालांकि मंत्रालय ने इसी के साथ यह भी जोड़ा था, कि अगर कार्यक्रम के कंटेंट से किसी तरह के नियम-क़ानून का उल्लंघन होता है तो चैनल के ख़िलाफ़ कार्रवाई की जाएगी। चैनल ने इसी को अपनी जीत मान लिया था। इसके बाद मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा जहां माननीय न्यायालय ने सख़्त टिप्पणियों के साथ कार्यक्रम को रोक दिया। सुप्रीम कोर्ट ने माना कि हर व्यक्ति जो यूपीएससी के लिए आवेदन करता है वो समान चयन प्रक्रिया से गुज़र कर आता है और ये इशारा करना कि एक समुदाय सिविल सेवाओं में घुसपैठ करने की कोशिश कर रहा है, ये देश के लिए घातक है। सुप्रीम कोर्ट के अनुसार इन आरोपों से यूपीएसी की परीक्षाओं की विश्वसनीयता पर लांछन लग रहा है और ये देश का नुक़सान करता है।
चैनल ने दरअसल जिन मुद्दों को उठाते हुए कार्यक्रम करना चाहा था उसमें एक प्रतिशत भी अगर सच्चाई होती तो देश के बड़े-बड़े आईएएस अफ़सर अपने निजी सोशल अकाउंट से खुलकर विरोध न जताते। चैनल ने अपने आधिकारिक ट्वीटर अकाउंट से यूपीएससी की पूरी प्रक्रिया पर ही सवाल उठाए थे। चैनल का एक आरोप तो यह था कि यूपीएससी में हिंदुओं के लिए ६ मौक़े होते हैं जबकि मुसलमानों के लिए ९ मौक़े दिए गए हैं। एक और आरोप कि यूपीएससी में हिंदुओं के लिए अधिकतम उम्र ३२ साल जबकि मुसलमानों के लिए अधिकतम उम्र ३५ साल का प्रावधान है। इसके अलावा इन ट्वीट्स में उर्दू माध्यम से दी जाने वाली परीक्षा की सफलता दर, मुसलमानों के लिए चलाए जाने वाली कोचिंग सेंटर आदि पर भी सवाल उठाए गए थे। दावा यह भी किया गया था कि ‘इस्लामिक स्टडीज़’ विषय के जरिए मुसलमान आईएएस, आईपीएस और आईएफ़एस बन रहे हैं जबकि ‘वैदिक या हिंदू स्टडीज़’ जैसा कोई विषय यूपीएससी परीक्षा में नहीं है।
बात अगर यूपीएससी की करें तो सिविल सर्विसेज़ की प्रारंभिक परीक्षा के लिए वर्ष की शुरुआत में जो नोटिस जारी किया गया था उसमें योग्यता, उम्र, आरक्षण और परीक्षा के विषयों आदि के बारे में सिलसिलेवार तरीक़े से जानकारी दी गई थी। आईएएस, आईएफ़एस या आईपीएस बनने के सवाल पर नोटिस में साफ़-साफ़ लिखा है कि आवेदनकर्ता के लिए भारत का नागरिक होना ज़रूरी है, न कि उसका किसी ख़ास धर्म, जाति या नस्ल का होना मायने रखता है। बात अगर आयु भेद की करें तो सिविल सेवा परीक्षा के लिए न्यूनतम आयु २१ साल है जबकि अधिकतम ३२ साल है। हालांकि इसमें सिर्फ़ अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अतिरिक्त पिछड़ा वर्ग, शारीरिक रूप से अक्षम और पूर्व सैन्यकर्मियों के लिए उम्र में ज़रूर छूट दी गई है। एससी और एसटी समुदाय के लिए अधिकतम आयु ३७ वर्ष, ओबीसी समुदाय के लिए अधिकतम ३५ वर्ष और दिव्यांगों के लिए ४२ वर्ष तक की छूट है। इसमें कहीं भी मुस्लिम समाज का नाम नहीं है। इसका मतलब यह हुआ कि उम्र का पैमाना समुदाय के आधार पर है, न कि धर्म के आधार पर। हां, सिविल सेवा की मुख्य परीक्षा तक परीक्षार्थी का स्नातक होना आवश्यक शर्त है। इसी तरह मुसलमानों को यूपीएससी परीक्षा में ९ बार मौक़ा देने का दावा भी बिल्कुल ग़लत है। ओपन कैटेगरी के सभी उम्मीदवारों के लिए एक समान ६ मौक़े होते हैं। यह अलग बात है कि एससी, एसटी और शारीरिक रूप से अक्षम उम्मीदवारों के लिए परीक्षा देने की कोई सीमा नहीं है। ओबीसी समुदाय से आने वाले उम्मीदवार ९ बार यह परीक्षा दे सकते हैं। इसके अलावा सिविल सेवा की मुख्य परीक्षा के २६ वैकल्पिक विषयों में कहीं भी ‘इस्लामिक स्टडीज़’ नाम का कोई विषय नहीं है और यह बात भी पूरी तरह झूठ और मनगढ़ंत है। उर्दू साहित्य विषय में साहित्य से संबंधित सवाल ज़रूर होते हैं, न कि इस्लाम या मुसलमानों से जुड़े सवालों को यूपीएससी परीक्षा में शामिल किया जाता है। इसका मतलब है कि यूपीएससी किसी धर्म के आधार पर मौक़े नहीं दे रहा है और यह केवल सस्ती लोकप्रियता और टीआरपी बटोरने के साथ ही समाज में भेद डालने की कोशिश है, जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने संज्ञान लिया।
एक बात क़ाबिले तारीफ़ यह रही कि मुस्लिम समाज ने इस पूरे प्रकरण में क़ानून पर भरोसा रखा और अनर्गल बहसबाज़ी से परहेज़ किया। यह उस विश्वास को पुख़्ता करने का एक अवसर भी था कि, ‘न्याय अब भी बाक़ी है।’ देश के विभिन्न महकमे में बैठे आला अफ़सरान ने जिस तरह चैनल के कार्यक्रम की मुख़ालिफ़त की वह भी सराहनीय है। मुस्लिम बुद्धिजीवियों द्वारा इसी बात को लगातार समझाने का प्रयास किया जाता रहा है कि सोशल मीडिया और समाज में भेद डालने वाले टीवी मीडिया के बहकावे में न आएं। अशिक्षा के ख़िलाफ़ केवल शिक्षित होकर ही खड़ा हुआ जा सकता है। यूपीएससी परीक्षाओं को लेकर फैलाए जा रहे झूठ में न पड़ते हुए अपनी शिक्षा के स्तर को बढ़ाने की ज़रूरत है। आबादी का लगभग १५ प्रतिशत होने के बावजूद मुस्लिम समाज की सिविल सेवा में नुमाइंदगी बहुत कम है। एमबीबीएस, इंजीनियरिंग, राजनीति या क़ानून का क्षेत्र हो, किसी भी क्षेत्र में मुसलमानों की संख्या मुस्लिम आबादी से मेल नहीं खाती है। मुसलमानों के सिविल सर्विस को गंभीरता से न लेने के दो कारण हैं। एक, समुदाय के भीतर जागरूकता की कमी और दूसरा, व्यवस्था में उसके विश्वास का कम होना क्योंकि वह भ्रम और भेदभाव की भावना का शिकार बना हुआ है। लेकिन यही सच नहीं है। यूपीएससी एक बहुत ही न्याय युक्त संस्थान है, बशर्ते उसे गंभीरता से लिया जाए। मुस्लिम समाज महसूस करता है कि देश में राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक संवाद में तेज़ी से ध्रुवीकरण हुआ है। लेकिन अगर शिक्षा पर ज़ोर दिया जाए तो हर क्षेत्र में अपना मक़ाम बनाया जा सकता है। रास्ते में अनेक तरह की संस्थाएं, चैनल्स या व्यक्ति आएंगे जो अड़ंगे डालेंगे, रोड़े अटकाएंगे, ग़लतफ़हमियां फैलाएंगे, धार्मिक विद्वेष बढ़ाएंगे लेकिन मायूस नहीं होना है। देश का संविधान और बड़ी संख्या में बिरादरान-ए-वतन हर हाल में आपके साथ हैं। वह चाहते हैं कि मुस्लिम समाज अपनी अशिक्षित, बेरोज़गार, अपराधी, आतंकी जैसी छवि को तोड़े और राष्ट्र की मुख्यधारा का हिस्सा बने। सुप्रीम कोर्ट का निर्णय इसी भावना की अक्कासी करता है।