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लॉकडाउन में संयम की ईद / सैयद सलमान
Friday, May 22, 2020 10:37:42 AM - By सैयद सलमान

सैयद सलमान
साभार- दोपहर का सामना 22 05 2020

कोरोना महामारी थमने का नाम नहीं ले रही। कोरोना के मरीज़ों की संख्या बढ़ती जा रही है। लॉकडाउन की मियाद बढ़ा दी गई है। केवल हमारे ही नहीं अपितु अनेक देशों की यही स्थिति है। इस बीमारी को लेकर जनसेवा में लगे अनेक एक्सपर्ट डॉक्टर्स की यह राय बनती जा रही है और वह गाहे-बगाहे अवाम को मानसिक रूप से तैयार करने वाले बयान भी दे रहे हैं कि, इस बीमारी की जब तक वैक्सीन नहीं आ जाती सबको इसी के साथ जीने की आदत डाल लेनी चाहिए। हो भी यही रहा है। अस्पतालों और क़्वॉरेंटाइन सेंटर की भीड़ बता रही है कि सब कुछ ठीक नहीं है। लेकिन कोरोना वॉरियर्स के रूप में डॉक्टर्स, नर्सेस, पुलिसकर्मी, सुरक्षाबल, सरकारी-अर्धसरकारी कर्मचारी, मनपाकर्मी और अनेक सामाजिक संगठन अपनी जी तोड़ कोशिश कर रहे हैं। उनका लक्ष्य है हर हाल में कोरोना को परास्त करना और जनजीवन को पटरी पर लाना।

ऐसे माहौल में ही मुसलमानों का पवित्र महीना रमज़ान भी पूरा होने को है। मस्जिदें बंद हैं। पंचवक़्ता नमाज़ों के अलावा जुमा और तरावीह की नमाज़ें भी घरों में ही पढ़ी जा रही हैं। मुस्लिम मआशरे में रमज़ान माह का आख़िरी जुमा भी महत्वपूर्ण माना जाता है जिसे 'अलविदा जुमा' के नाम से जाना जाता है। संयोग से इस लेख को जब आप पढ़ रहे हैं तब अलविदा जुमा ही है। २९ या ३० रोज़े पूरे होने के बाद चांद नज़र आते ही ईद-उल-फ़ित्र का मुक़द्दस त्यौहार भी आ जाएगा। लेकिन इस बार मस्जिदों में न तो अलविदा जुमा की नमाज़ पढ़ी जा सकेगी न ही ईद-उल-फ़ित्र की। इसकी वजह महामारी के पेश-ए-नज़र लगाया गया लॉकडाउन है। तमाम मकतब-ए-फ़िक्र के उलेमा और मुफ़्ती हज़रात ने महामामारी की गंभीरता को देखते हुए फ़तवा जारी किया है कि, पंचवक़्ता, तरावीह और जुमा नमाज़ों की तरह ही इस वर्ष ईद की नमाज़ भी घर पर ही पढ़ी जाए। इदारा-ए-शरिया दारुल इफ़्ता वल क़ज़ा फ़िरंगी महल, दारूल उलूम देवबंद, दरगाह-ए-आला हज़रत और अनेक शिया धर्मगुरुओं सहित अनेक मुस्लिम बुद्धिजीवियों ने एक स्वर में मुस्लिम समुदाय से ईद-उल-फ़ित्र की नमाज़ घर में ही अदा करने की अपील की है।

इस बीच कुछ कमज़र्फ़, कमअक़्ल और छपास के भूखे छुटभैये मुस्लिम नेताओं ने इस कठिन वक़्त में भी अपनी राजनैतिक दुकान चमकाने का ज़रिया ढूंढ़ लिया है। ऐसे लोगों के लिए यह वक़्त राजनैतिक नफ़ा-नुक़सान का मौक़ा बनकर आया है। इन लोगों की ग़ैर-ज़रूरी मांग ने मुस्लिम समाज को शर्मिंदा करने का काम किया है। ये लोग दिल्ली, महाराष्ट्र और विभिन्न राज्यों के मुख्यमंत्रियों को पत्र लिखकर ईद के मौके पर ईदगाहों और मस्जिदों में नमाज़ पढ़ने की छूट मांग रहे हैं। बेहूदगी भरा तर्क दिया जा रहा है कि जब शराब की दुकानें खोली जा सकती हैं, ज़रूरत के हिसाब से बाज़ार खोले जा सकते हैं, तो कुछ शर्तों के साथ ईद की विशेष नमाज़ के लिए भी अनुमति क्यों नहीं दी जा सकती? इन स्वयंभू मुस्लिम नेताओं का कहना है कि सोशल डिस्टेंसिंग के साथ सभी लोग नमाज़ अदा करने के लिए सैनिटाइज़ किए हुए अपने मैट और सैनिटाइज़र साथ लाएंगे। मुंबई के एक दलबदलू मुस्लिम नेता ने तो दो क़दम आगे बढ़कर मूर्खतापूर्ण मांग की है कि सरकार मुसलमानों को पीपीई किट पहनकर ईद की नमाज़ पढ़ने की इजाज़त दे। इन महाशय का तर्क है कि सुरक्षित होने के कारण आख़िर कोरोना के ख़तरे से बचने के लिए पीपीई किट का इस्तेमाल किया ही जा रहा है। कुछ लोग तो इलाहाबाद हाईकोर्ट तक पहुंच गए इजाज़त मांगने। हालांकि हाई कोर्ट ने यह कहते हुए उनकी याचिका ख़ारिज कर दी कि सरकार अगर इस मामले में आवेदन ख़ारिज करती है या विचाराधीन रखती है तब ही हाईकोर्ट के पास आएं। इस तरह सीधे हाईकोर्ट आना ठीक नहीं है। ऐसे लोग आख़िर चाहते क्या हैं? यह लोग केवल ख़बरों में आने के लिए ऐसी उलजुलूल हथकंडे अपना रहे हैं। लोगों की स्वास्थ्य सुरक्षा के लिहाज़ से जब सभी मंदिर, मस्जिद, गुरूद्वारे, चर्च, मठ, दरगाह इत्यादि बंद हैं और सिर्फ़ सांकेतिक पूजा-उपासना हो रही है, तब ऐसे में सिर्फ़ ईद की नमाज़ के लिए उछल कूद मचाना कहीं से कहीं तक न तर्कसंगत है न न्यायसंगत।

पवित्र क़ुरआन में कहा गया है, ‘अपने ही हाथों से अपने आपको हलाकत में न डालो’ (अल-क़ुरआन- ०२:१९५) अर्थात अपने ही हाथों खुद को हलाक न करो, मौत का असबाब न बनो, न ही ख़ुद को बर्बादी में डालो। क्या जब पूरी दुनिया महामारी से लड़ने में अपना योगदान दे रही है तब ऐसी मूर्खतापूर्ण मांग करना जायज़ है? यूँ तो ऐसे लोग मुफ़्ती हज़रात या मुस्लिम धर्मगुरुओं के फ़ैसले पर मरने-मारने पर उतारू रहते हैं, लेकिन जब बात इतनी संगीन, समाजहित और देशहित की है तब घर पर ही नमाज़ पढ़ने के उनके फ़तवों को ठेंगा दिखाते नज़र आ रहे हैं। लानत है ऐसे मुसलमानों पर जो व्यक्तिगत फ़ायदे के लिए मुसलमानों के जज़्बात से खेलें और लानत है ऐसे लोगों पर जो देश और समाज की फ़िक्र करने के बजाय अपने मफ़ाद को तरजीह दें। ध्यान रहे इस्लाम में सुन्नत, नफ़िल, मुस्तहब या वाजिब अरकान से बड़ा दर्जा फ़र्ज़ का है। फ़र्ज़ नमाज़ बा-जमाअत मस्जिद में पढ़ना अफ़ज़ल है। लॉकडाउन के दौरान जब फ़र्ज़ नमाज़ें, जुमा के बदले ज़ोहर और तरावीह घरों में पढ़ी जा रही है, अलविदा जुमा के दिन भी मुसलमान घरों में ही रहकर ज़ोहर नमाज़ अदा करेंगे यह भी निश्चित है, तो ईद-उल-फ़ित्र की नमाज़ घरों में रहकर क्यों नहीं पढ़ी जा सकती?  

ईद-उल-फ़ित्र की नमाज़ वाजिब है। लॉकडाउन के दौरान जो शरई हुक्म नमाज़-ए-जुमा के लिए है वही हुक्म ईद-उल-फ़ित्र की नमाज़ के लिए होगा। भले ही उलेमा और मुफ़्तियान-ए-कराम की घर पर ईद की नमाज़ पढ़ने के तरीक़े को लेकर अलग-अलग शरई राय हो लेकिन महामारी, वबा या किसी भी प्राकृतिक आपदा में घर पर ही नमाज़ पढ़ने की बात पर सब मुत्तफ़िक़ हैं। नमाज़-ए-ईद वाजिब होने की शर्तों में से एक शर्त ये भी है कि हुकूमत की जानिब से किसी तरह की कोई बंदिश न हो। जबकि इस वक़्त मस्जिदों-मदरसों में पांच लोगों के अलावा पांच वक़्त की नमाज़ और जुमा की नमाज़ पढ़ना क़ानूनन मना है। एक तर्क यह है कि ऐसी सूरत में ईद की नमाज़ किसी पर वाजिब ही नहीं होगी। इसी आधार पर जो शख़्स इमाम के साथ ईद की नमाज़ अदा नहीं कर सकता उसके ज़िम्मे ईद की क़ज़ा भी नहीं है। ऐसे में हर मोहल्ले के जिन चार या पांच लोगों को मस्जिद में क़ानूनन नमाज़ पढ़ने की इजाज़त मिली हुई है वह लोग नमाज़ बा-जमाअत अदा कर लें, बाकी के लोग इसके बदले घरों में चार रकात नमाज़-ए-चाश्त पढ़ सकते हैं। ये उनकी नफ़िल नमाज़ होगी। कुछ मुफ़्ती और उलेमा ने घर पर अकेले या परिवार के साथ कुछ शरई शर्तों के साथ ईद-उल-फ़ित्र की नमाज़ पढ़ने की भी इजाज़त दी है। दरअसल यह विरोधाभास नहीं बल्कि आस्था की बात है। सबसे बड़ी बात ईद-उल-फ़ित्र की नमाज़ रमज़ान के ३० रोज़े पूरे होने का शुक्राना होती है। वर्तमान महामारी काल में यह शुक्राना वाजिब या नफ़िल किसी भी रूप में घर से अदा करना ही मुसलमानों के लिए अफ़ज़ल है।

ईद-उल-फ़ित्र का पर्व मुहब्बत का पैग़ाम देता है इसलिए इस कठिन वक़्त में मोहब्बत बांटना ही सर्वोत्तम इबादत है। कोरोना की वजह से पूरी दुनिया में लाखों लोग काल का ग्रास बन चुके हैं और न जाने कितने ही लोग ज़िंदगी और मौत से जूझ रहे हैं। करोड़ो लोगों के सामने दो जून की रोटी जुटाने का प्रश्न खड़ा हो गया है। ऐसे में किसी सच्चे मुसलमान को ईद की ख़ुशियां मनाना यूँ भी गवारा नहीं होगा। पीपीई किट वग़ैरह के साथ नमाज़-ए-ईद पढ़ने की अनुमति मांगना सिवाय दिखावे और मूर्खता के कुछ नहीं है। पीपीई किट की कम से कम क़ीमत ५०० रूपये है। ईद पर केवल चंद मिनटों के इस्तेमाल के बाद एक बार पहनकर किट को बेकार और रद्दी हो जाना है। तो क्या इसके बदले उन पैसों को ज़कात या फ़ितरा की शक्ल में किसी ज़रूरतमंद को न दे दिया जाए? ईद की अन्य ख़रीददारी की जगह उस रक़म से आर्थिक तंगी के शिकार दोस्तों, ग़रीब रिश्तेदारों, बेसहारों, बेवाओं, मज़दूरों, कोरोना प्रभावित परिवारों और ज़रूरतमंदों की मदद करना क्या इस्लामी नज़रिए से ज़्यादा बेहतर नहीं होगा? महामारी के कारण जब चारों तरफ़ ग़म, भय और मौत ही मौत का मंज़र हो तो ख़ुशियों का माहौल बनाने की मांग करना असंवेदनशीलता नहीं तो और क्या है? ऐसे में बशमूल जुमा और ईद, तमाम नमाज़ें घर में ही रहकर पढ़ी जाएं और कोरोना संक्रमण से देश को निजात दिलाने की दुआ की जाए। कठिन वक़्त में देश के साथ खड़े रहना ही इस्लाम की सच्ची सीख है और हर मुसलमान का यह नैतिक कर्तव्य भी है।