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न कोई बंदा रहा न कोई बंदा नवाज़ / सैयद सलमान
Friday, January 31, 2020 10:29:30 AM - By सैयद सलमान

सैयद सलमान
​साभार- दोपहर का सामना 31 01 2020 ​

'एक ही सफ़ में खड़े हो गए महमूद ओ अयाज़,
न कोई बंदा रहा न कोई बंदा नवाज़...'
मुसलमानों के बीच इस शेर को गाहे-बगाहे तब याद किया जाता है जब मुस्लिम समाज में जाति, वर्ण और ऊंच-नीच जैसी किसी व्यवस्था पर चोट करने की बात आती है। लेकिन क्या यह पूर्ण सत्य है कि इस्लाम में जाति-वर्ण जैसी व्यवस्था नहीं है? कहने को सही इस्लाम की शिक्षा तो यही कहती है कि इस्लाम में ऊंच-नीच, भेद-भाव नहीं है। इस्लाम के मानने वाले जहां पर भी हैं, एक साथ में बैठ कर यहाँ तक कि एक थाली में भी खाना खा लेते हैं। ऐसे ही दूसरे कामों में भी एक साथ खड़े हो जाते हैं। लेकिन यह कहने में बिल्कुल संकोच नहीं है कि हिंदुस्तान में मुसलमानों में जातियां हैं और यहाँ के लोग अलग-अलग जातियों में बंटे हुए भी हैं। आज के दौर के मुसलमान तो शादी-ब्याह में भी एक-दूसरे से संबंध स्थापित करने में कुछ सामजिक और जातीय नियमों का पालन करते हैं। कहने का तात्पर्य कि शादी-ब्याह सहित अनेक सामाजिक कार्यक्रमों को लेकर भी मुसलमान पूर्ण स्वतंत्र नहीं हैं और कहीं न कहीं जाति व्यवस्था की जकड़ में खुद को क़ैद किए हुए हैं। यह तो सिर्फ़ जातियों का मामला है, फ़िरकों के नाम पर भी ज़बरदस्त बंटवारा किया जा चुका है। बात जब फ़िरकों की आ जाए तो शादियां करना तो दूर की बात है, किसी की शादी-ब्याह के समारोह तक में नहीं शामिल होते हैं। और तो और किसी की मौत पर क़ब्रस्तान तक जाने से गुरेज़ करते हैं, नमाज़-ए-जनाज़ा पढ़ने से भी कतराते हैं। न जाने ऐसे लोग किस इस्लाम के अनुयायी या कौन से नबी की उम्मती हैं।

भारत और भारतीय उपमहाद्वीप में मुसलमान कई श्रेणियों में बंटे हैं। इनमें सबसे पहले तो अशरफ़ मुस्लिम आते हैं। जो लोग अशरफ़ मुस्लिम में आते हैं उन्हें सैयद, शेख़, पशतून और मुग़ल कहा जाता है। मुसलमानों में सैयद उन्हें कहा जाता है जिनके लिए ऐसी मान्यता है कि उनका शिजरा पैग़म्बर मोहम्मद साहब से मिलता है। इन्हें 'आले मोहम्मद' भी कहा जाता है। इसके बाद अशरफ़ मुस्लिम में शेख़ आते हैं। यह ऐसे मुस्लिम हैं जो अरब और ईरान से भारत में आए। इनमें कुछ ऐसे भी मुस्लिम हैं जो पहले राजपूत थे, लेकिन धर्मांतरण कर मुस्लिम हो गए। उसके बाद पशतून आते हैं। इन्हें पठान कहा जाता है। यह लोग अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान के पहाड़ी इलाकों से भारत में आए थे। इनके बाद मुग़लों का नंबर आता है। यह लोग तुर्की, इराक़ और उसके आस पास के देशों के रहने वाले हैं जो भारत आए और यहीं के होकर रह गए। इन कथित अशरफ़ मुस्लिम के अलावा एक अन्य क़िस्म भी मुसलमानों में पाई जाती है जिसमें वह तमाम मुस्लिम शामिल हैं जो अशरफ़ मुसलमानों की नज़र में कम महत्व रखते हैं, जैसे बुनकर, धुनिया, दर्जी, धोबी, चूड़ी फ़रोश, नट, क़साब वग़ैरह। इसके अलावा जो भी मुसलमानों में जाति व्यवस्था बनाई गई है वह सब इसी पाँचवीं क़िस्म में आते हैं। अंसारी, मोमिन, मंसूरी, सलमानी, कुरैशी जैसे उपनामों से उन्हें जाना जाता है। उपनामों से सहज अंदाज़ा लगा लिया जाता है कि फ़लां शख़्स किस जाति का है। जबकि इस्लाम की परिभाषा में यह कहीं नहीं बैठता। पैग़म्बर मोहम्मद साहब के ज़माने में भी मुसलमान इन तमाम पेशों से वाबस्ता थे, जिनके नाम पर आज बिरादरियां वजूद में आ गई हैं। लेकिन उस दौर में न कोई धोबी था न तेली, न बुनकर था न रंगरेज़, न सैफ़ी था न सलमानी, न राईन था न क़ुरैशी, न कुम्हार था न मनिहार, न घोंसी था न सक़्क़ा। उस वक़्त जो भी थे तो सिर्फ़ मुसलमान थे। मगर आज यही बात दावे से नहीं कही जा सकती।

हिंदुस्तान में मुस्लिम समाज के बीच जितनी भी जाति-बिरादरियां बनी या बनाई गई हैं उनकी अपनी-अपनी अलग अंजुमनें और कमेटियों हैं। इन अंजुमन और कमेटियों को किसी न किसी सियासी पार्टी का वरदहस्त प्राप्त होता है। कमोबेश ये सभी अंजुमन और कमेटियां अपनी-अपनी बिरादरी की तरक़्क़ी के लिए अलग-अलग कार्यक्रमों या फिर अनेक तरह के एहतेजाज करते हुए धन दौलत भी ख़र्च करती हैं। इसके लिए बाक़ायदा चंदा भी इकठ्ठा किया जाता है। मक़सद एक ही होता है, अपनी बिरादरी की खुशहाली और तरक़्क़ी। 'उम्मते मुसलेमा' अर्थात सभी मुसलमानों की तरक़्क़ी की बात पीछे छूट जाती है। मुस्लिम समाज के कितने ही कन्वेंशन, सेमिनार, कॉन्फ्रेंस सालाना होते रहते हैं जिस में हर बिरादरी अपने आप को पिछड़ा साबित करने की भरपूर कोशिश करती है। ऐसा करने के पीछे का मक़सद होता है, सत्तासीन पार्टी को अपनी ताक़त का एहसास कराना और थोड़ी-बहुत रियायतें हासिल करना। जबकि ऐसा करने वाले लोगों को कभी एहसास नहीं होता कि ऐसा करने से उम्मत में बिखराव आ जाता है। आम मुसलमानों के पिछड़ेपन और तरक़्क़ी की दौड़ में पीछे रह जाने पर ग़ौर-ओ-फ़िक्र करने की भला यहाँ किसे फ़ुरसत है। और यह एकतरफ़ा नहीं है, जब कोई सियासी पार्टी भी कोई प्रोग्राम करती है या संगठनों में प्रतिनिधित्व देने की बात आती है तो उसमें भी उन्हीं बिरादरियों को प्राधान्य मिलता है जहाँ जिसकी ज़्यादा ताक़त हो। यह प्रतिनिधित्व बिरादरी को मिलता है, उम्मत को नहीं। हुकूमत में शामिल अगर कोई नेता अगर इत्तेफ़ाक़ से मुसलमानों के हुक़ूक़ की बात करता भी है, तो उस पर भी बिरादरीवाद ही छाया रहता है। इस बात में कड़वी सच्चाई है और इस से इंकार नहीं किया जा सकता। इस्लाम इंसानी समाज में सुधार के लिए आया था। इस्लाम तो अपनी जगह वैसे ही रहा लेकिन मुस्लिम समाज का चरित्र पतन होता रहा।

मुसलमानों की सामाजिक सरंचना इस्लाम और क़ुरआन के निर्देशों पर आधारित है। सही इस्लाम जाति व्यवस्था को स्वीकार नहीं करता है। सही इस्लाम के मुताबिक़ जन्म, वंश और स्थान के आधार पर सभी मुसलमान एक समान हैं। लेकिन मुसलमानों को व्यवहार की दृष्टि से अगर देखें तो निश्चित ही ऐसा देखने को नहीं मिलेगा। न जाने किस आधार पर मुस्लिम समाज में इस्लाम के विरुद्ध जाति व्यवस्था की जड़ें गहरे तक अपना प्रभाव बना चुकी हैं। मुस्लिम एकता की बात तो होती है, लेकिन मुसलमान ख़ुद को एक नहीं मानते हैं। इस्लाम के अनुसार अगर कोई पेशा हराम काम का नहीं है तो कभी भी रुस्वाई का सबब नहीं हो सकता। जो चीज़ इंसान को ज़लील ओ-रुस्वा करती है, वो है उसके स्याह आमाल, उसके बुरे अख़लाक़। पवित्र क़ुरआन के मुताबिक़ ईश्वर के नज़दीक भी ज़लील वही होता है जो बदअमल होता, बदकिरदार होता है। क़ुरआन ने इस बात को साफ़-साफ़ बयान कर दिया है कि, इज़्ज़त पेशे से नहीं बल्कि नेक आमाल से मिलती है। सूरह हुजरात में इरशाद है, ‘‘इसमें शक नहीं कि ख़ुदा के नज़दीक तुम सबमें बड़ा इज़्ज़तदार वही है जो बड़ा परहेज़गार हो।" -(अल-क़ुरआन ४९:१३) लेकिन अफ़सोस है कि आज क़ुरआन की शिक्षा के विरुद्ध लोगों की इज़्ज़त और ज़िल्लत का पैमाना उनका पेशा बना दिया गया है। सियासी पार्टियों और हिंदुस्तानन में शुरूआती दौर के दबंगों ने मुसलमानों को ऊँच-नीच के नाम पर बांटा था। लेकिन अफ़सोस तो उन नाम निहाद उलोमा-ए-इस्लाम पर होता है जिन्होंने कई पेशों को ज़लील ठहरा कर उनके पीछे नमाज़ पढ़ने को भी मना कर दिया था। हालांकि इस मामले में अब काफ़ी सुधार हुआ है लेकिन बेहद पिछड़े हुए ग्रामीण इलाक़ों में आज भी ऐसा ही है।

मोटे तौर पर भारतीय मुसलमानों को तीन स्तरों में विभक्त किया जा सकता है। पहला, उच्च जाति के मुसलमान जिन्हें 'अशरफ़' शब्द से पुकारा जाता है। दूसरा, धर्म परिवर्तन द्वारा बने मुसलमान और तीसरा, जिनको व्यवसाय के परिवर्तन स्वरुप मुसलमानों में शामिल किया गया। लेकिन क्या यह इस्लाम की सीख के आधार पर उचित है? मुस्लिम उलेमा को आगे आकर इस भेद को मिटाने पर ज़ोर देना चाहिए। आख़िर दाढ़ी-टोपी, कुर्ता-पाजामा, बुर्क़ा ही तो इस्लाम नहीं है न? इस्लाम क्या है इसे समझने के लिए पवित्र क़ुरआन के गहन अध्ययन की ज़रूरत है। पैग़म्बर मोहम्मद साहब और उनके सहाबा के दौर के इस्लाम में और आज के मौलवियों के इस्लाम में ज़मीन आसमान का फ़र्क़ है। ज़रूरत इस बात की है कि उस फ़र्क़ को पहचान कर इस्लाह कर लिया जाए। ऊंच-नीच, जात-पात, भेद-भाव का इस्लाम में जब तसव्वुर ही नहीं है तो किस आधार पर उसे बढ़ावा मिल रहा है। इसे ख़त्म करना हर मुसलमान की नैतिक ज़िम्मेदारी है।