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राजनैतिक हथियार न बनें मुसलमान / सैयद सलमान
Friday, January 17, 2020 10:17:36 AM - By सैयद सलमान

सैयद सलमान
​साभार- दोपहर का सामना 17 01 2020

​इन दिनों दुनिया भर के मुसलमान न केवल इस्लामोफ़ोबिया और हिंसा बल्कि ख़राब प्रशासन के दौर से भी जूझ रहे हैं। मुस्लिम देशों और शासकों ने दुनिया में अपना सम्मान खो दिया है। मलेशिया के प्रधानमंत्री महातिर मोहम्मद जब कहते हैं कि 'आज हम ना तो मानव ज्ञान के स्रोत हैं और ना ही किसी मानव सभ्यता के मॉडल' तो लगता है वह बिलकुल सही कह रहे हैं। अमेरिका और ईरान के बीच चल रहे दशकों पुराने विवाद के फिर से गरमा जाने से इसे समझा जा सकता है। दरअसल इराक़ में अमेरिका ने एयर स्ट्राइक के जरिए शीर्ष ईरानी कमांडर कासिम सुलेमानी को मार गिराया। सुलेमानी को ईरान के क्षेत्रीय सुरक्षा हथियारों का रचयिता कहा जाता था। इस घटना के बाद खाड़ी क्षेत्र में तनाव गहरा गया। इसका असर पूरी दुनिया पर पड़ना स्वाभाविक था। भारत भी इस तनाव से अछूता नहीं रह पाया। इसके तात्कालिक असर के रूप में हमले के बाद ही क्रूड के दाम चार फ़ीसदी बढ़ गए। भारत के लिए ईरान कई मायनों में महत्वपूर्ण है। चीन के बाद भारत ही है, जो ईरान से सर्वाधिक तेल खरीदता है। भारत अपनी जरूरतों का 38 प्रतिशत तेल सऊदी अरब और ईरान से खरीदता है। अगर यह संकट बढ़ता है तो ईरान अपने इलाक़े से गुज़रने वाले ते​ल​​​ के जहाजों को रोक सकता है। जिसका असर यह होगा कि दुनिया भर में कच्चे तेल की कमी हो जाएगी और दाम आसमान छूने लगेंगे। इतना ही नहीं, पश्चिम एशिया में ८० लाख भारतीय काम कर रहे हैं। इनमें अधिकतर खाड़ी देशों में है। युद्ध जैसी आपात स्थिति आती है तो इन लोगों को इस क्षेत्र से वापस लाना बड़ी चुनौती होगी। हालांकि सैन्य मामलों में और क्षमता के हिसाब से ईरान अमेरिका के मुक़ाबले कहीं नहीं ठहरता। इसके बावजूद अगर हथियारों से संघर्ष शुरू होता है तो खाड़ी देशों में फिर से अफ़रा-तफ़री मच सकती है। अमेरिका पहले ही अपने नागरिकों से इराक़ छोड़ने के लिए कह चुका है। इतना ही नहीं, ब्रिटेन ने भी मिडिल ईस्ट में अपने सैन्य अड्‌डों की सुरक्षा बढ़ा दी है।

दोनों देशों के विवाद को लेकर अब तो पूरी दुनिया ही दो हिस्सों में बंटती नज़र आने लगी है। फ़िक्र करने वाली बात तो ये है कि अमेरिका जितना ईरान के ख़िलाफ़ है उतना ही रूस ईरान के साथ मज़बूती से खड़ा हो रहा है। ईरानी सेनापति क़ासिम सुलेमानी की हत्या को डोनाल्ड ट्रंप कितना ही ज़रूरी और सही ठहराएं, लेकिन यह काम एक अघोषित युद्ध की तरह ही है। हालांकि सुलेमानी की तुलना ओसामा बिन लादेन या बग़दादी से नहीं की जा सकती। इसे ट्रंप का चुनाव जीतने का हथकंडा माना जा रहा है। यह काम उन्हें अमेरिकियों की नज़र में महानायक बना सकता है लेकिन चीन, रूस और फ़्रांस जैसे सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्यों ने गहरी चिंता व्यक्त की है। माना जा रहा है कि ईरान इसका बदला लिए बिना नहीं रहेगा। हो सकता है कि पश्चिम एशिया छोटे-मोटे युद्ध की चपेट में आ जाए। इस घटना से भारत की चिंता बढ़ना स्वाभाविक है, क्योंकि अमेरिका और ईरान, दोनों से भारत के संबंध अच्छे हैं। यहाँ यह जान लेना ज़रूरी है कि, ओबामा के अमेरिकी राष्ट्रपति रहते समय दोनों देशों के संबंध थोड़ा सुधरने शुरू हुए थे। ईरान के साथ परमाणु समझौता हुआ, जिसमें ईरान ने परमाणु कार्यक्रम को सीमित करने की बात की। इसके बदले उस पर लगे आर्थिक प्रतिबंधों में थोड़ी ढील दी गई थी। लेकिन ट्रंप ने राष्ट्रपति बनने के बाद यह समझौता रद्द कर दिया। दुश्मनी फिर शुरू हो गई।

हालांकि मुस्लिम देशों में एकजुटता की बात कही जाती है, लेकिन सच यह है कि विश्व भर के मुस्लिम देश दो धड़ों में बंटे हुए हैं। अमेरीकी कार्रवाई के बाद की इस मुश्किल घड़ी में ईरान न केवल पूरी दुनिया में अकेला दिखा, बल्कि इस्लामिक दुनिया के देश भी उसके साथ खड़े नहीं हुए। सऊदी अरब ख़ुद को मुस्लिम देशों का मसीहा मानता रहा है, जबकि उसी सऊदी अरब की मठाधीशी को गाहे-बगाहे मलेशिया चैलेंज देता रहता है। मलेशिया एकमात्र मुस्लिम बहुल देश था जो ईरान के समर्थन में खड़ा हुआ। ईरान पर अमरीकी प्रतिबंध के बावजूद मलेशिया के सऊदी की तुलना में ईरान से अच्छे रिश्ते हैं। दुनिया के सबसे बुज़ुर्ग प्रधानमंत्री महातिर मोहम्मद ने जनरल क़ासिम सुलेमानी के मारे जाने के बाद मुस्लिम देशों से एकजुट होने की अपील की थी। हालाँकि मुस्लिम देशों की राजनीति पर गहन अध्ययन करने वाले विशेषज्ञ भी मानते हैं कि महातिर मोहम्मद मुस्लिम शासकों को एक करने की बात तब कर रहे हैं, जब आपस में ही इस्लामिक दुनिया पहले से कहीं ज़्यादा उलझी हुई है। महातिर मोहम्मद इस से पहले इज़राइल को भी निशाने पर ले चुके हैं। भारत में एनआरसी और सीएए लाए जाने पर भी महातिर मोहम्मद भारत सरकार की आलोचना कर चुके हैं। उन्हें मुस्लिम देशों का नया मसीहा बनना है। ऐसे में किसी भी मुस्लिम देश में घट रही घटनाओं के साथ ही विश्व भर के मुस्लिम मसलों पर अपनी राय रख कर अपने नंबर बढ़ाना उनकी मंशा है। उन्हें लगता है कि सऊदी अरब के नेतृत्व वाला 'ऑर्गेनाइज़ेशन ऑफ इस्लामिक कोऑपरेशन' पूरी तरह से अप्रभावी हो गया है और कोई नया मंच बनना चाहिए। १८ वीं सदी से लेकर आधी २० वीं सदी तक मुस्लिम देशों पर यूरोपीय ताक़तों का प्रभुत्व रहा। लेकिन अब, जब आज़ाद हैं तब भी, मुसलमानों ने स्वतंत्र देशों के तौर पर बहुत कुछ किया नहीं है। यहां तक कि कुछ इस्लामिक देश तो औपनिवेशिक युग के स्तर की गुलामी की हद तक पहुंच गए हैं। यह चिंता की बात तो है ही, मुस्लिम देशों के लिए चुनौती भी है, कि वे कैसे इस समस्या से उबर पाएंगे।

महातिर मोहम्मद ने मुस्लिम देशों का नया संगठन बनाने की कोशिश की थी। पाकिस्तान को इसकी अगुवाई करनी थी। लेकिन, सऊदी अरब के दबाव में पाकिस्तान पीछे हट गया और इमरान खान ने कुआलालंपुर सम्मेलन में शिरकत ही नहीं की। इस से पहले कुआलालंपुर समिट में ईरान के राष्ट्रपति हसन रूहानी भी शामिल हुए थे। यह जानना भी जरूरी है कि संयुक्त राष्ट्र में मलेशिया और तुर्की ही दो देश थे जिन्होंने कश्मीर मसले पर पाकिस्तान का समर्थन किया था। इसके बाद से ही हिन्दुस्थान और मलेशिया के बीच राजनयिक तनाव है। फ़िलहाल ईरान अभी भी अकेला है और मलेशिया के साथ से वो कुछ कर नहीं पाएगा। महातिर मोहम्मद की कुआलालंपुर समिट में कही गई एक बात तो ग़ौर करने लायक है कि, जिहाद, दमनकारी प्रशासन और नव-उदारवाद मुस्लिम दुनिया की सबसे बड़ी समस्या है। लेकिन इससे निपटने का कोई नुस्ख़ा महातिर मोहम्मद बता नहीं पा रहे। कहीं ईरान और अमेरिका के तनाव के बीच अमेरिका इसे ही मुद्दा न बना दे और मुस्लिम देश अपनी बात भी न रख पाएं। महातिर मोहम्मद हों या कोई भी मुस्लिम देश का रहनुमा, उसे यह बात ध्यान में रखनी होगी कि मुस्लिम जगत के अलावा अन्य देशों में मुसलमान बड़ी संख्या में बसते हैं। कहीं ऐसा न हो कि अपनी राजनीति चमकाने के चक्कर में वह ग़ैर मुस्लिम देशों में रह रहे मुसलमानों के लिए संकट खड़ा कर दें। किसी भी देश के किसी भी नागरिक की भावनाएं अगर आहत होती हैं तो उस देश की मुख्यधारा पर उसका असर पड़ना स्वाभाविक है। मुस्लिम देशों के शासकों को इस बात का एहसास होना जरूरी है। ख़ासकर भारतीय मुसलमानों को यह समझना होगा कि उनकी जड़ें इस देश में गहरे तक जमी हैं, इसलिए उनका इस्लामिक मुल्कों के नाम पर राजनैतिक हथियार होने से बचना बेहद ज़रूरी है। मुस्लिम कट्टरपंथी भले ही जिहाद की बात करें लेकिन इसका नतीजा मुस्लिमों के ख़िलाफ़ अत्याचार में बढ़ोतरी के रूप में ही सामने आता है। इस्लाम को लेकर इस हद तक डर पैदा कर दिया गया है कि, विश्व भर में 'इस्लामोफ़ोबिया' की जगह बन गई है। यह स्थिति किसी भी नज़रिए से मुस्लिम समाज के लिए ठीक नहीं है। बल्कि कहा जाए कि उनके लिए घातक है, तो ज़्यादा उचित होगा।