साभार- दोपहर का सामना 13 12 2019
इन दिनों शादियों का मौसम है। मुस्लिम समाज में भी शादियों की धूम है। वैसे मुस्लिम समाज में शादी विवाह के लिए किसी ख़ास मुहूर्त वग़ैरह का कोई रिवाज नहीं है, इसलिए अमूमन मुहर्रम महीने को छोड़कर शेष किसी भी महीने में शादी की जा सकती है। इस्लामी हिजरी कैलेंडर के हिसाब से पहले महीने मुहर्रम में भी शरीयत के हिसाब से शादी-ब्याह करने पर कोई पाबंदी नहीं है, लेकिन पैग़म्बर मोहम्मद साहब के नवासे हज़रत हुसैन और उनके परिजनों की इसी महीने में कर्बला में हुई शहादत के गम में मुसलमानों की तरफ़ से शादी-ब्याह के कार्यक्रम को टाला जाता है। मुस्लिम समाज का एक तबक़ा इसे ग़ैर-ज़रूरी भी बताता है और इस महीने में भी शादी-ब्याह करने को बुरा नहीं मानता। यह सब इस्लाम के अनेक फ़िरक़ों और उनके ख़यालात पर निर्भर करता है। कहने को इस्लाम के मानने वाले ख़ुद को मुस्लिम मानते हैं, लेकिन उस से ज्यादा शिया, सुन्नी, देवबंदी, बरेलवी, जमाती, वहाबी, अहले हदीस, खोजा, बोहरा और न जाने कौन-कौन से फ़िरक़े का प्रतिनिधि बताने में अधिक गर्व करते हैं। एक अल्लाह, एक क़ुरआन, एक रसूल होने के बावजूद ७२ फ़िरक़ों की बात करने वाले ख़ुद को मुस्लिम कैसे कह पाते हैं, यह शोध का विषय हो सकता है लेकिन एक बात तो तय है कि इस्लाम की मूल शिक्षा से हटकर नए-नए रीति-रिवाज को अपनाने में सभी फ़िरक़ों के बीच ख़ासी प्रतिस्पर्धा है। शादी ब्याह में दहेज लेने-देने और फ़िज़ूलख़र्ची करने में भी सभी एक से बढ़कर एक हैं। तब इनकी इस्लामी शिक्षा कहाँ चली जाती है यह तो वही जानें, लेकिन सच यही है कि इस्लाम में दिखावा करने की सख़्त मनाही है और यह नबी की सुन्नतों के ख़िलाफ़ है। इस्लाम ने शादी के रिश्ते को एक आसान काम बनाया है। निकाह मोहम्मद साहब की सुन्नत है। निकाह वह पवित्र बंधन है जो न सिर्फ़ लड़के और लड़की को शादी के रिश्ते में जोड़ता है बल्कि दो परिवारों के मिलाप का भी ज़रिया है।
मुस्लिम समाज के बीच दहेज प्रथा का रिवाज भी पुराना है। इसके समर्थन में अनेकों तर्क दिए जाते हैं। लेकिन हदीस और क़ुरआन की रोशनी में इसे कोई साबित नहीं कर पाता। लड़की को उसकी शादी के अवसर पर दहेज के तौर पर क्या दिया जाना चाहिए यह मसला हर दौर में बहस का मुद्दा रहा है और आज भी यह मुद्दा ख़त्म नहीं हुआ है। गौरतलब है कि पैग़म्बर मोहम्मद साहब ने अपनी पुत्री हज़रत फ़ातिमा की शादी के अवसर पर गृहस्थी के लिए केवल आवश्यक चंद वस्तुएं ही दी थीं। इस्लाम में निकाह के वक़्त खजूर, शिरनी या कोई मिठाई बांटना और निकाह के बाद हैसियत के मुताबिक़ दावते वलीमा इस्लामी रिवाज है। जहाँ तक दहेज का संबंध है इस्लाम में इसकी कोई कल्पना नहीं मिलती। क़ुरआन, हदीस या इस्लामी धर्मशास्त्र की मान्य किताबों में भी दहेज की कोई कल्पना नहीं मिलती है। पवित्र क़ुरआन में शादी, तलाक़, नान-नफ़्क़ा अर्थात भरण पोषण का ख़र्च, संपत्ति में हिस्सा, महर और महिला के अन्य अधिकार इत्यादी विषयों पर विस्तार से वर्णन किया गया है लेकिन इस्लामी अधिकार के पारिवारिक क़ानून में दहेज का कोई उल्लेख नहीं है। औरतों की बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करना मर्द पर फ़र्ज़ है और यही बुनियादी ज़रूरतें दहेज की शक्ल में मर्द पूरी करता है। घर की शरई तैयारी और घर के लिए ज़रूरत के मुताबिक़ इस्तेमाल में आने वाला हर सामान, बिस्तर और बर्तन इत्यादी उपलब्ध कराना पति की ज़िम्मेदारी है।यानि फ़िज़ूलख़र्ची और दहेज की इस्लाम में बिल्कुल गुंजाइश नहीं है।
मुसलमानों के लिए पैग़म्बर मोहम्मद साहब का अनुकरण करना सुन्नत है। दहेज प्रथा या फ़िज़ूलख़र्ची करने वाले मुसलमानों ने क्या शादी ब्याह के मामले में अपनी नबी का सच में अनुकरण किया है, यह सवाल पूछा जाना चाहिए। मुसलमानों का यह मानना है कि पैग़म्बर साहब ने ऐसा कोई कार्य नहीं किया जो इस्लाम के अनुकूल न हो। इसलिए माना जाता है कि उनके कार्यों को दोहराना जायज़ और हर सूरत में लाभप्रद है। तो क्या पैग़म्बर मोहम्मद साहब ने हज़रत फ़ातिमा सहित अपनी अन्य बेटियों हज़रत ज़ैनब, हज़रत रुक़ैया या हज़रत उम्मे कुलसुम के विवाह में दहेज दिया था? हज़रत मोहम्मद साहब के दौर में सिवाए हज़रत फ़ातिमा की शादी के मौक़े के कोई ऐसी शादी नज़र नहीं आती कि शादी के मौक़े पर दहेज का कोई सामान दिया गया हो। हज़रत फ़ातिमा को भी बेहद ज़रूरत की चीज़ें देने की ज़रूरत भी सिर्फ़ इसलिए पेश आई क्योंकि, हज़रत अली एक तरह से मोहम्मद साहब पर ही निर्भर थे और उनका अलग मकान या घरेलू समान न था। हज़रत मोहम्मद साहब की बाक़ी तीनों बेटियों की शादी के मौक़े पर ऐसा नहीं हुआ और न ही मोहम्मद साहब के ख़ुद दहेज लेने की कोई रिवायत मिलती है। पैग़म्बर मोहम्मद साहब ने भी बीबी फ़ातिमा की शादी के मौके पर भी सिर्फ़ एक जाए-नमाज़, एक तकिया और मिट्टी के कुछ बर्तन दिए थे। क्या आम मुसलमान आज नबी की इस सुन्नत पर अमल करता नज़र आता है? बिलकुल नहीं। आज मुसलमान जिस क़दर शादी-ब्याह में फ़िज़ूलख़र्ची करता है, दहेज का प्रदर्शन करता है वह अपने आप में एक ग़लत प्रथा है और इस्लाम में किसी नई परंपरा या प्रथा को शुरू करना बिदअत माना जाता है। शरीयत इस्लाम में हर वो अमल बिदअत कहलाता है जो नेकी समझ कर किया जाए लेकिन शरीयत में इसकी कोई बुनियाद या सबूत न हो। यानि न तो मोहम्मद साहब ने ख़ुद उस अमल को किया हो, न तो किसी और को हुक्म दिया हो और न किसी को इसकी इजाज़त दी हो। मुस्लिम शरीफ़ की एक हदीस के मुताबिक़ पैग़म्बर मोहम्मद साहब ने फ़रमाया, "याद रखो बेहतरीन बात अल्लाह की किताब है, बेहतरीन हिदायत पैग़म्बर की हिदायत है और बदतरीन काम दीन में नया काम ईजाद करना है और हर बिदअत यानि नया ईजाद किया गया काम गुमराही है।" क्या मुसलमान इस बात की गंभीरता को समझता है?
अब शादी ने न केवल एक समस्या बल्कि कारोबार का रूप ले लिया है। आज माता-पिता अपने बेटों की परवरिश और शिक्षा पर ख़र्च की गई रक़म को दहेज की सूरत में वसूलना चाहते हैं। ऐसे लोगों के अनुसार यह उनका हक़ है। उन्हें लगता है कि उन्हें उनकी सेवा का मुआवज़ा मिले। जबकि दूसरी तरफ़ बेटियों के माँ-बाप जो बड़ी मुश्किल और मेहनत से अपने बच्चियों को पढ़ाते लिखाते हैं, उनकी बेहतरीन तरबियत देते हैं उनकी ज़रूरतों को पूरा करते हैं, शादी के वक़्त अपनी जान से प्यारी बेटी को न सिर्फ़ ख़ुद से उम्र भर के लिए जुदा करते हैं बल्कि उन्हें इस जुदाई की क़ीमत भी अदा करनी पड़ती है। कुछ बदक़िस्मत माँ-बाप तो शादी के बाद भी लड़के वालों की माँगों को पूरा करते-करते जां-बहक़ हो जाते हैं। शादी में दहेज के तौर पर ज़ेवरात, फ़र्नीचर, टीवी, फ़्रिज, वाशिंग मशीन, क़ीमती कपड़े और क़ीमती भारी बर्तन दिए जाते हैं। इसके अलावा दहेज में कार, मोटर साइकिल भी धड़ल्ले से मांगी जाती है। भले ही लड़के की इतनी हैसियत न हो कि वह डीज़ल, पेट्रोल का ख़र्च भी उठा सके। जो वालिदैन अपनी बेटी को दहेज देने की हैसियत नहीं रखते, उनकी बेटियां कुंवारी बैठी रह जाती हैं। हालांकि दहेज के अलावा भी बेटियों के साथ अक्सर अन्याय होता है। दहेज की वजह से मुस्लिम लड़कियों को उनकी पैतृक संपत्ति के हिस्से से भी अलग रखा जाता है और इसके लिए तर्क दिया जाता है कि, उनके विवाह और दहेज में काफ़ी रक़म ख़र्च की गई है, इसलिए अब जायदाद में उनका कोई हिस्सा नहीं रह जाता। क्या यह सब इस्लामी तरीक़ा है? अगर ऐसा है तो मुसलमानों को कोई हक़ नहीं बनता कि वे ख़ुद को नबी का उम्मती कहें। बात कड़वी ज़रूर है, लेकिन है शतप्रतिशत सच, क्योंकि ज़ुबान से नबी का उम्मती होने और इस्लाम के अनुसार नबी का अनुककरण करने के बीच काफ़ी फ़र्क़ है।