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जिहाद का ज़हर / सैयद सलमान
Friday, January 4, 2019 9:36:14 AM - By सैयद सलमान

सैयद सलमान
साभार- दोपहर का सामना 04 01 2019

कश्मीर में आतंकवाद का चरम किस स्तर पर है इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि जब नववर्ष की तैयारियों में समूचा जग रमा हुआ था तब भी आतंकवादी अपनी करतूत को अंजाम देने में व्यस्त थे। नए साल पर जम्मू कश्मीर में एक आतंकी द्वारा पुलिस एसपीओ पर फ़ायरिंग करने का मामला सामने आया। इस घटना में घायल हुए एसपीओ समीर अहमद को हॉस्पिटल ले जाया गया लेकिन उन्होंने वहां दम तोड़ दिया। कहने को तो आतंकवादी अपनी हर कार्रवाई को जिहाद बताते हैं लेकिन अक्सर-ओ-बेश्तर वे उनकी अपनी क़ौम के ही जांबाज़ों को और आम नागरिकों को निशाना बनाते हैं। समीर अहमद से पहले भी सुरक्षाबलों से जुड़े कई मुस्लिम अधिकारियों को आतंकवादी अपनी गोली का निशाना बना चुके हैं। यानि यह जिहाद नहीं षड़यंत्र है जो देश के ख़िलाफ़ रचा जा रहा है। कश्मीर का युवा ख़ून के बदले जिहाद के ज़हर को अपनी नसों में लिए फिरता है और अपनी हरकतों को धर्म का लबादा ओढ़ा देता है।

वो कोई और दौर रहा होगा जब जम्मू एवं कश्मीर का नाम लेते ही 'धरती पर अगर कहीं जन्नत है तो कश्मीर है' कहा जाता रहा होगा। अब तो कश्मीर आतंकवाद की पनाहगाह के रूप मशहूर है। कुछ वर्ष पहले यहाँ के हालात ठीक होने शुरू ही हुए थे कि दोबारा वहां के हालात संगीन हो गए हैं। अब तो कोई ऐसा दिन नहीं जाता जब कश्मीर से आतंकवाद से जुड़ी ख़बर न आती हो। प्रतिउत्तर में सुरक्षा बलों की कार्रवाई भी ख़बरों में आती है। पत्थरबाज़ों की हरकतें भी सामने आती हैं। कुल मिलाकर पूरा कश्मीर संवेदनशील बना हुआ है जहाँ पर्यटकों की बहार लगती थी। सूचना के अधिकार (आरटीआई) द्वारा गृह मंत्रालय से मांगी गई एक सूचना के मुताबिक डॉ. मनमोहन सिंह के कार्यकाल में मई २०११ से मई २०१४ के बीच जम्मू एवं कश्मीर में ७०५ आतंकवादी घटनाएं हुई थीं। इनमें ५९ आम नागरिक मारे गए और १०५ जवान शहीद हुए। वहीं मोदी सरकार में मई २०१४ से मई २०१७ तक ८१२ आतंकवादी घटनाएं हुईं। इननें ६२ नागरिक मारे गए एवं १८३ जवान शहीद हो गए। आरटीआई से प्राप्त जानकारी के मुताबिक़ मनमोहन सरकार के अंतिम तीन वर्ष में गृह मंत्रालय ने आतंकवाद से लड़ने के लिए तक़रीबन ८५० करोड़ रुपये जारी किए। वहीं, मोदी सरकार के समय गृह मंत्रालय ने १,८९० करोड़ रुपये इस बाबत जारी किए। अर्थात धरती की जन्नत पर लाशें तो बिछी हीं, साथ ही जनता की गाढ़ी कमाई का बड़ा हिस्सा भी ख़र्च हुआ है। ज़िम्मेदार है सिर्फ़ और सिर्फ़ आतंकवाद।

हालाँकि पिछले साल कश्मीर में आतंकियों के ख़िलाफ़ ज़बरदस्त कार्रवाई भी हुई है। परिणामस्वरूप साल २०१८ में मारे गए आतंकियों की संख्या पिछले एक दशक में मारे गए आतंकियों से कहीं ज़्यादा है। दिसंबर के अंतिम सप्ताह तक कम से कम २४७ आतंकी मारे जा चुके हैं जो साल २०१७ की तुलना में करीब ७० प्रतिशत ज़्यादा है। जांच एजेंसियों ने पाया कि मारे गए आतंकी मुख्य तौर पर स्थानीय थे जिन्हें कोई ख़ास ट्रेनिंग भी नहीं मिली हुई थी। यानि मुख्यरूप से उन लोगों को दी जाने वाली गुरिल्ला लड़ाई की जटिलताओं के बारे में भी उन्हें ज़्यादा जानकारी नहीं थी। पिछले एक साल में मारे गए ज़्यादातर आतंकी इकतरफ़ा हमले या गोलीबारी में मारे गए हैं। अक्सर आतंकियों के स्थानीय समर्थक कई मर्तबा उन्हें बचाने की कोशिश में सुरक्षा बलों पर ही पथराव करना शुरू कर देते हैं। और कई बार वे आतंकवादियों को छुड़ा भी ले जाते हैं। सुरक्षाबलों की कड़ी कार्रवाई के बावजूद घाटी के ज्यादातर युवा हिंसा के रास्ते पर चल निकले हैं। जांच एजेंसियों की जानकारी पर अगर विश्वास करें तो सिर्फ़ साल २०१८ में कम से कम १७६ कश्मीरी युवा सीमापार पहुँच चुके हैं जहाँ उन्हें आतंकी ट्रेनिंग दी जा रही है और वे आतंकियों के साथ मिल चुके हैं।

सुरक्षाबलों ने अगर आतंकवाद की कमर तोड़ी भी है तो दूसरी खेप फिर से तैयार हो रही है जो कश्मीर को जहन्नुम की आग में झोंक सके। जैसे-जैसे आतंकवादी संगठनों पर सुरक्षाबलों का दबाव बढ़ता जा रहा है वैसे-वैसे वहां का युवा और भी उग्र होता जा रहा है। इस विवाद का कोई राजनीतिक हल निकलता भी नहीं दिख रहा इसलिए हालात और ख़राब होते जा रहे हैं। इसके उलट कई राजनैतिक दल अपनी भूमिका से आतंकवादियों के हौसले बढ़ाते प्रतीत होते हैं। इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है जब कुर्सी गंवाने के कुछ महीनों पश्चात पीडीपी अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ़्ती की आतंकवादियों के प्रति हमदर्दी शुरू हो गई। महबूबा ने कश्मीर में रूबीना नाम की एक लड़की से मुलाक़ात की जिसका भाई आतंकवादी बन गया है। रूबीना ने अपने और अपने पति के साथ पुलिस हिरासत में मारपीट का आरोप लगाया था। रुबीना से महबूबा की मुलाक़ात तक भी ठीक था लेकिन आतंकी की बहन से मिलने के बाद महबूबा ने चेतावनी दे डाली कि अगर आतंकवादियों के परिवारों को प्रताड़ित किया गया तो इसके ख़तरनाक परिणाम होंगे। महबूबा का तर्क है कि कैसे एक पुरुष पुलिस अधिकारी महिला को पीट सकता है। अगर कोई आतंकी है तो इसमें उसकी बहन और अन्य परिजनों का इसमें क्या क़ुसूर है। अगर महबूबा का तर्क सही मान लिया जाए तो क्या उन्हीं महबूबा ने आतंकवादियों द्वारा मारे गए बेक़सूरों को लेकर कभी आतंकियों को घुड़की दी कि अगर किसी बेक़सूर नागरिक की हत्या हुई तो आतंकवादियों को बख़्शा नहीं जाएगा? क्या महबूबा या आतंकियों का समर्थन करने वाले इस बात पर कभी मुखर होकर सामने आए? बिलकुल नहीं। यह सहूलियत की राजनीति है। इस तरह से सुरक्षाबलों के बहाने राजनीतिक बयानबाज़ी का अर्थ यही निकलता है कि वे आतंकवाद का समर्थन कर रहे हैं। इस बात से आतंकियों के हौसले बढ़ते हैं।

कश्मीर में पिछले तीन दशक से कश्मीरियों के विद्रोह को बल मिला है। पहले ढंके छुपे लेकिन अब खुले तौर पर कश्मीर का एक तबका आतंकवादियों के समर्थन में न सिर्फ़ सड़कों पर उतरता है बल्कि पत्थरबाज़ी करता है। स्थानीय ख़बरों पर यक़ीन करें तो पता चलता है कि कश्मीर के इन पत्थरबाज़ों को बाक़ायदा आतंकी संगठनों द्वारा राशि उपलब्ध करवाई जाती है। कश्मीर में ऐसी हिंसा फैल चुकी है कि कभी आतंकी तो कभी प्रदर्शनकारी इसका हिस्सा होते हैं। नतीजतन सरकारी सैन्य बलों को भी गोलियां बरसाने के आदेश मिल जाते हैं। और इस तरह कश्मीर की हसीन वादियां ख़ून से लथपथ होती रहती हैं।

कश्मीर में कश्मीरियत की बात की जाती है और कश्मीरियों के लिए कश्मीरियत का अर्थ है धार्मिक अभिमान से ऊपर क्षेत्रीय स्वाभिमान को महत्व देना। कभी कश्मीरियों के आत्मसम्मान और आज़ादी के जज़्बे को सम्मान देते हुए हुए विशेष राज्य का दर्जा देकर हिंदुस्तान में शामिल किया गया था। हैदराबाद और जूनागढ़ की तरह यहाँ भी जनमत संग्रह की मांग स्वीकार की गई। लेकिन राजनैतिक पंडितों का मानना है की इस विशेष दर्जे का कश्मीर को लाभ कम नुक़सान ज़्यादा हुआ। क्षेत्रीय स्वाभिमान की आड़ में कश्मीरी देश के अन्य हिस्सों से ख़ुद को काटते गए। पाकिस्तान ने उनकी भावनाओं का दोहन कर उनके मन में देश के प्रति विरक्ति भाव को बढ़ाया। कुछ चरमपंथी संगठनों को तन-मन-धन से मदद की। नतीजा सामने है। धरती का स्वर्ग आज जहन्नुम बन चुका है। इस्लाम और जिहाद की आड़ में ख़ून की होली खेलने वाले मुसलमानों की अक्सरियत वाले कश्मीर में इस्लाम का नहीं ज़ुल्म का बोलबाला है। कश्मीर की हरकतों का ख़ामियाज़ा देश के अन्य हिस्से के मुसलमानों को भुगतना पड़ता है। मुस्लिम समाज के हाथ से अब बात निकल चुकी है। अब अगर सरकारें सख़्त होती हैं तो बग़ावत और सरकार ने ढील दी तो आतंकवाद का ख़तरा। कश्मीर की समस्या को वहाँ के मुस्लिम समाज ने जिहाद से क्या जोड़ा वहां के कश्मीरी पंडितों को पलायन करना पड़ा। कश्मीर की कश्मीरियत क्या उन पंडितों के लिए मायने नहीं रखती रही होगी जिन्हें कथित जिहाद के कारण अपना राज्य छोड़कर दूसरे राज्यों में शरण लेनी पड़ी? यह एक तरह से ज़ुल्म हुआ और इस्लाम कहता है कि अल्लाह को न तो ज़ुल्म पसंद है न ज़ालिम। तो फिर यह आतंकवादी अल्लाह की नापसंदगी का ख़तरा उठाकर आख़िर किसकी पसंद का ख़्याल रख रहे हैं?