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अब कट्टरता छोड़ो - क़लम से नाता जोड़ो / सैयद सलमान
Friday, November 16, 2018 10:50:47 AM - By सैयद सलमान

सैयद सलमान
साभार: दोपहर का सामना 16 11 2018

लोकसभा चुनाव की हलचल और कुछ राज्यों के चुनाव प्रचार के बीच एक बात मुस्लिम समाज के बीच इन दिनों चर्चा में है कि आगामी चुनाव में आख़िर उनका नेतृत्व करेगा कौन? सर जोड़कर बैठा जाए और विचार किया जाए तो पता चलता है कि मुस्लिम नेतृत्व का आभाव मुसलमानों के लिए कोई नई बात नहीं है। स्वतंत्रता प्राप्ति तक और उसके बाद मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, डॉ. ज़ाकिर हुसैन, रफ़ी अहमद क़िदवई जैसे अनेक नाम मुस्लिम रहनुमा के तौर पर लिए जाते थे। ख़ुर्शीद आलम खान, ज़ेड. ए. अंसारी, सलाहुद्दीन ओवैसी, जी.एम. बनातवाला व अन्य ने बाद में अपनी छाप छोड़ी। बाद के दौर में तारिक़ अनवर, गुलाम नबी आज़ाद, सलमान ख़ुर्शीद जैसे नेताओं ने भी राजनीतिक तौर पर खुद को मज़बूत बनाया। इस बीच जम्मू-कश्मीर का अब्दुल्लाह परिवार भी राजनैतिक रूप से अपनी उपस्थिति दर्ज करता रहा। राजीव गाँधी और वीपी सिंह के कार्यकाल में आरिफ़ मोहम्मद खान और मुफ़्ती मोहम्मद सईद भी चमके। लेकिन इस दौर में मुस्लिम रहनुमा के तौर पर लिए जाने वाले सभी नाम या तो ख़ुद विवादों में आ जाते हैं या फिर उन्हें विवादित बना दिया गया है। ओवैसी ब्रदर्स, आज़म खान, अबू आसिम आज़मी जैसे नेताओं की कट्टरपंथी छवि उन्हें एक मख़सूस तबके में लोकप्रियता तो दिला रही है, लेकिन आम मुसलामानों को उनके नाम का फ़ायदा कम नुकसान ज्यादा हो रहा है। उनके बयानों के आधार पर आम मुसलमानों को टारगेट करना रोज़ का मामूल बन गया है।

सच यह है कि मुसलमानों के विषय पर संवैधानिक दायरे में प्रश्न उठाने वाले नेताओं पर कोई ख़ास महत्व नहीं दिया जाता लेकिन ज़रा सा बयान विवादित हुआ कि नेताओं को राष्ट्रीय स्तर पर लोकप्रियता मिल जाती है। और शायद यह नेता चाहते भी यही हैं। मुस्लिम समाज की मूल समस्याओं पर सवाल उठाने के बजाय जब-जब राजनैतिक बयान आए हैं इन नेताओं की पौ-बारह हुई है। लेकिन यही बात मुस्लिम समाज समझ नहीं पा रहा है। इस वक्त मुस्लिम समाज रूपी घर को किसी एक समझदार, कुशल और मज़बूत मुखिया की तलाश है। अगर मुखिया समझदार न हो तो घर को ठीक से चला पाना चुनौती होता है। घर का सही रूप से चलना देश और समाज के लिए भी हितकर होता है। विडंबना तो यही है कि जिस समाज को उचित नेतृत्व की आज सबसे ज़्यादा ज़रुरत है उसे देशव्यापी नेतृत्व मिल नहीं रहा। मुसलमानों ने कांग्रेस पर विश्‍वास कर आज़ादी के बाद से लगातार वोट दिया लेकिन बदले में उसे आशातीत सहयोग नहीं मिला। कुल मिलाकर आज के मुस्लिम समाज को लगता है कि आज़ादी के बाद से अब तक उसे उपेक्षा ही मिली है। कुछ वर्षों तक समाजवादी, आरजेडी, एनसीपी और बीएसपी जैसी पार्टियों ने सब्ज़ बाग दिखाए भी, वोट भी झोली भर-भर लिया और फिर उदासीन हो गए। विडंबना यह भी है कि योग्य नेतृत्व की कमी के कारण मुसलमानों के पास अपने उत्थान का कोई ठोस न तो कार्यक्रम है न योजना। सच्चर कमिटी की रिपोर्ट बताती है कि मुसलमानों की दुर्दशा दलितों से भी बदतर है। लेकिन मुसलमान अब भी होश के नाख़ून नहीं ले रहा।

इतिहास के पन्नों में अनगिनत मुस्लिम हस्तियों के नाम दफ़्न हैं जिन्होने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में अपने जीवन का बहुमूल्य योगदान दिया। आज जिनका ज़िक्र भूले से भी सुनने को नहीं मिलता है। मुस्लिम समाज ख़ुद उन्हें भूल बैठा है। अंग्रेजों के ख़िलाफ़ भारत के संघर्ष में मुस्लिम क्रांतिकारियों, कवियों और लेखकों का योगदान भुलाया नहीं जा सकता। लेकिन उसके बाद के कार्यकाल में प्रगतिशील मुस्लिम नेतृत्व की कमी ने और मुसलमानों की संकीर्ण सोच ने मुसलमानों को दोयम दर्जे का नागरिक बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। स्वतंत्रता से पहले का एक दौर वो भी था जब सर सैयद ने शिक्षा की अलख जगाई लेकिन कालांतर में उनपर कट्टरपंथी होने का तमगा चस्पां कर दिया गया जबकि उन्होंने हमेशा हिन्दू-मुस्लिम एकता के विचारों का समर्थन किया था। सन १८८४ में पंजाब भ्रमण के अवसर पर हिन्दू-मुस्लिम एकता पर बल देते हुए सर सैयद ने कहा था, "हमें यानि हिन्दू और मुसलमानों को एक मन, एक प्राण हो जाना चाहिए और मिल-जुलकर कार्य करना चाहिए। उन्होंने तब कहा था, यदि हम संयुक्त हैं तो एक-दूसरे के लिए बहुत अधिक सहायक हो सकते हैं। यदि नहीं तो एक का दूसरे के विरूद्ध प्रभाव दोनों का ही पूर्णतः पतन और विनाश कर देगा।" एक अन्य अवसर पर उन्होंने कहा था, "हिन्दू एवं मुसलमान शब्द केवल धार्मिक विभेद को व्यक्त करते हैं, परन्तु दोनों एक ही राष्ट्र हिन्दुस्तान के निवासी हैं।" लेकिन सर सैयद की तामीरकरदा अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी भी अब सांप्रदायिक भेद का अखाड़ा बन गई है। क़ुसूर किसी और पर थोपने के बजाय मुसलमानों को ही ख़ुद को क़ुसूरवार ठहराना चाहिए क्योंकि उन्हीं की कभी ढुलमुल और कभी कट्टरपंथी नीतियों के साथ ही दूरदर्शिता के आभाव में नफ़रत का यह बीज अब पौधा बनता रहा है। किसी भी राजनैतिक दल का पिछलग्गू बनने का ख़ामियाज़ा आज की पीढ़ी को भुगतना पड़ रहा है। राम मंदिर-बाबरी मस्जिद, काशी और मथुरा मंदिर जैसे विवाद उसी की देन हैं। आतंकवाद के नाम पर आरोप झेलने पड़ रहे हैं। 'शेर आएगा और खा जाएगा' का डर दिखाकर वोटों की एकमुश्त डील होती रही और मुसलमान तुष्टीकरण के जाल में ऐसा उलझा कि उसे आज हर उस समस्या से जूझना पड़ रहा है जिस से उसे सिर्फ़ और सिर्फ़ नुकसान ही होना है।

देशहित में आज की परिस्थिति कुछ ऐसी है कि मुसलमानों को ख़ुद अच्छा नेतृत्व पैदा करना होगा ताकि कोई देश के २० करोड़ मुसलमानों को वोट बैंक और बंधक बना कर देश को कोई नुकसान न पहुँचा सके। लेकिन क्या फिलहाल ऐसा नेतृत्व कहीं नज़र आ रहा है? टुकड़ों में बंटी इस क़ौम का भला कब और कैसे हो सकता है जब तक कि सही ढंग से कमान संभालने वाला कोई अच्छा नेतृत्व सामने न आए और लोग उसे अपना मुखिया तस्लीम न करें। सही मुस्लिम लीडरशिप की कमी की वजह से पुरे देश में एक प्रकार की रिक्तता पैदा हो गई है जिसकी वजह से मुसलमानों के मुद्दे हल नहीं हो रहे हैं। स्थिति यह पैदा हो गई है कि मुस्लिम समाज के मुद्दे विभिन्न विधानसभा से लेकर संसद तक उठाने वाला कोई नहीं है और मुसलमान विवादित मुद्दों में उलझ गए हैं। संसद में मुस्लिम प्रतिनिधियों का कम होना भी एक बड़ा कारण है। मुस्लिम समाज के विवादित होने के कारण उनके प्रति सहानुभूति का कम होना भी एक बड़ा कारण है जिसकी वजह से राजनैतिक दल उन्हें अब कम से कम टिकट देते हैं। लोकतांत्रिक ढांचे में कोई मुद्दा उस समय तक हल नहीं हो सकता जब तक उसे संवैधानिक मंच पर उचित नेतृत्व में न उठाया न जाए। यह भी सही है कि मुस्लिम समाज का नेतृत्व करने कोई आसमान से नहीं आएगा बल्कि उसके अपने भीतर से बेहतरीन नेतृत्व पैदा करने की ज़रूरत है। इस देश के बहुसंख्यक अपने अल्पसंख्यक भाइयों से कोई और अपेक्षा रखते भी नहीं। उनका सरोकार यही है कि मिलकर राष्ट्रनिर्माण का काम हो। विघटनकारी नेताओं के बयान इस मामले में अड़चन बन जाते हैं जिस से ध्रुवीकरण होता है और मुस्लिम समाज ख़ुद ही ख़ुद को राष्ट्र की मुख्यधारा से कटा हुआ पाता है। इसी स्थिति को बदलने की ज़रुरत है।

मुस्लिम समाज में अगर आधुनिक और योग्य शिक्षा का प्रभाव बढ़ाया जाए तो ख़ुद ही मुस्लिम नेतृत्व उभर कर सामने आएगा। एपीजे अब्दुल कलाम जैसे सर्वमान्य नेतृत्व की आज मुस्लिम समाज के साथ-साथ देश को भी ज़रुरत है। क्यों नहीं उन जैसे व्यक्तित्व को मुस्लिम समाज तलाशता और तराशता है ताकि समाज का भला हो। मुस्लिम समाज को यह अहद करना होगा कि कम खाएंगे लेकिन अपने बच्चों को तालीम जरूर दिलाएंगे। दुनियावी तालीम का हासिल करना बेहद ज़रुरी है। मुस्लिम बच्चे उर्दू-अरबी के साथ अंग्रेजी-हिंदी के भी जानकर बनेंगे तभी तो अपने मज़हब की सही तस्वीर लोगों के सामने रख सकेंगे। तभी तो उनमें यह गुण आएगा कि वे अपने समाज की समस्याओं की बारीकियों को समझ सकेंगे। शिक्षा से ही वे अपना बौद्धिक स्तर इतना ऊंचा कर सकेंगे कि कोई भी ऐरा-ग़ैरा दकियानूसी या कट्टरपंथी विचार का नेता उनका मुखिया नहीं बन सकेगा। यह तभी मुमकिन है जब मुस्लिम समाज गंभीरता से इस विषय पर मंथन करे।