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सूफ़ीवाद- सहअस्तित्व की शिक्षा / सैयद सलमान
Friday, May 29, 2020 - 9:31:43 AM - By सैयद सलमान

सूफ़ीवाद- सहअस्तित्व की शिक्षा / सैयद सलमान
सैयद सलमान
​साभार- दोपहर का सामना 29 05 2020 ​

कोरोना और लॉकडाउन के बीच मुस्लिम समुदाय का सबसे बड़ा पर्व ईद-उल-फ़ित्र भी बीत गया। हर वर्ष ईद की तैयारियां, फिर ईद के दिन की चहल-पहल और कमोबेश तीन दिन तक रहने वाली ईद की ख़ुमारी इस बार नदारद रही। मुस्लिम समाज ने इस बार सूझबूझ का सहारा लेते हुए बाज़ारों, मस्जिदों, ईदगाहों से ख़ुद को दूर रखा। इक्का-दुक्का घटनाओं को छोड़ दें तो यह बात काफ़ी हद तक संतोषजनक ही कही जाएगी कि मुसलमानों ने सरकार और प्रशासन की गाइडलाइन का मान रखा और ईद की नमाज़ घरों में ही अदा की। हालांकि ईद की नमाज़ को लेकर अलग-अलग गाइडलाइन जारी कर नमाज़ को अलग-अलग तरीक़े से पढ़ने की नसीहत की गई थी जिस से नमाज़ हो जाने तक काफ़ी उहापोह की स्थिति भी बनी रही। यह बात काफ़ी हद तक अखरने वाली थी, लेकिन जब मक़सद बड़ा हो और नीयत साफ़ हो तो छोटे-मोटे वैचारिक मतभेद या धार्मिक पद्धतियों के तरीक़ों के विरोधाभास को दरकिनार कर दिया जाना चाहिए। हनफ़ी, शाफ़ई, मालिकी और हंबली के अलावा अहले हदीस, तटस्थ मुसलमानों का एक बड़ा बुद्धिजीवी वर्ग और हनफ़ियों के ही दो मसलक देवबंदी और बरेलवी हज़रात ने अपने अपने उलेमा की बताई तरकीबों से नमाज़ अदा की। यह सुकून वाली बात रही।

ईद-उल-फ़ित्र की नमाज़ को लेकर चांद रात को अनेक मुस्लिम धर्मगुरुओं और दीन के जानकारों से चर्चा होती रही। सभी ने अपने-अपने तरीक़े को ही उचित और सही बताया। ख़ैर, ईद की नमाज़ें तो अदा कर दी गयीं लेकिन एक सवाल अनुत्तरित रहा कि एक अल्लाह, एक रसूल, एक क़ुरआन होते भी आख़िर ईद की नमाज़ को लेकर यह कन्फ़्यूज़न क्यों? एक सूफ़ी विचारधारा से प्रभावित शिक्षित मुस्लिम मित्र से ईद के दिन चर्चा किये जाने पर उनका अलग ही तर्क सामने आया। उनके मुताबिक़ उन्होंने मय-ज़ायद छः तकबीरों वाली ईद की नामाज़ भी पढ़ी, विशेष तरीक़े से अतिरिक्त सना, दरूद शरीफ़ के साथ पढ़ी जाने वाली चार रकअत वाली नमाज़-ए-चाश्त भी पढ़ी और बिलकुल साधारण तरीक़े वाली २ रकअत नफ़िल नमाज़-ए-चाश्त भी पढ़ी। उनके मुताबिक़ यह मेरे और मेरे अल्लाह के बीच का मामला है। न जाने अल्लाह को कौन सी अदा पसंद आ जाए। उनके मुताबिक़ शायद सब ही सही हों। या जो भी तरीक़ा सही होगा अल्लाह उसे क़ुबूल करेगा। उनका तर्क था कि अल्लाह कोरोना महामारी और लॉकडाउन के बहाने ही शायद हमारा इम्तेहान ले रहा है। उनकी कई बातों से असहमत होते हुए भी बहुत हद तक कई बातों से मुत्तफ़िक़ होने की वजह यह थी कि ईश्वर भावनाएं देखता है।

सूफ़ीवाद की यही ख़ासियत है। वह हर हाल में ख़ुद को ढालना जानता है। उसे कट्टरवाद से परहेज़ होता है। सूफ़ीवाद या तसव्वुफ़ हमेशा से ही लोगों को अपनी तरफ आकर्षित करता रहा है और मुस्लिम समाज में यह विवादित भी रहा है। सूफ़ीवाद पर सवाल उठते रहे हैं कि, सूफ़ीवाद या तसव्वुफ़ क्या इस्लाम का ही एक अंग हैं या यह केवल अल्लाह को अपने तरीक़े से पाने का मध्यमार्गी रास्ता है? अक्सर देखा गया है कि किसी भी वली की दरगाह पर सूफ़ीवाद पर यक़ीन करने वाले इकठ्ठा होते हैं, ढोलक की थाप पर संगीत का समा बनता है, लोग वज्द में आते हैं, क़व्वाली की महफ़िल में शामिल होकर और सारी दुनिया से बेख़बर होकर बस अपने में मस्त हो जाते हैं। क़ुल शरीफ़ का विर्द करते हैं, नातिया कलाम और पीर-ओ-मुर्शिद के रिश्तों पर लिखे गए कलाम को पढ़ा या गाया जाता है और अपनी अक़ीदत का इज़हार किया जाता है। सवाल यही निकलकर आता है कि क्या यही सूफ़ीवाद या तसव्वुफ़ है? क्या इस्लाम का लक्ष्य ये है कि आदमी इस समाज से भाग कर एकांत में जा बसे या फिर इस समाज में रह कर ही सही मूल्यों को अपनाने की कोशिश करे? इस्लाम में ईश्वर के क़रीब रहने के कई रास्ते बताए गए हैं उनमें से ही निश्चिन्त, अलमस्त और मलंग होकर अल्लाह के क़रीब रहने वाले ख़ुद को सूफ़ीवाद से जोड़ते हैं। लेकिन यहां यह सवाल भी उठता है कि क्या तसव्वुफ़ उदारवादी इस्लामी संदेश देता है या फिर ये एक ऐसा बहाना है जो हर मनमर्ज़ी की बात मनवाने के लिए एक तर्क बन गया है। लेकिन इसका एक दूसरा पक्ष भी है। ख़ुद पैग़ंबर मोहम्मद साहब का व्यक्तित्व सूफ़ियाना था। नबूवत के एलान से पहले सूफ़ी दर्शन उनकी दिनचर्या और स्वभाव से ज्ञात हो जाता है। मोहम्मद साहब ग़ार-ए-हिरा में कई-कई दिन और कई-कई हफ़्ते मुजाहेदे और मुराक़बे में गुज़ारा करते थे, जैसा कि सभी सूफ़ियों, ऋषियों और मुनियों की दिनचर्या का यह महत्वपूर्ण हिस्सा रहा है।

इस्लामी परंपरा में ख़ुदा के संदेशों का प्रचार करने वाले रसूलों और पैग़ंबरों की संख्या एक लाख चौबीस हज़ार (१,२४,०००) बयान की गई है, जिनमें से क़ुरआन में विभिन्न शिक्षाओं की वज़ाहत करते हुए केवल पच्चीस (२५) पैग़ंबरों के नामों का ही उल्लेख किया गया है। इसलिए, ख़ुदा की वहदानियत और पैग़ंबर मोहम्मद साहब की नबूवत पर ईमान लाने के साथ एक मुसलमान पिछले सभी नबियों और रसूलों पर भी ईमान लाता है। ख़ुद क़ुरआन करीम अपने अनुयायियों को ख़ुदा के सभी नबियों पर ईमान लाने का हुक्म देता है जिन्होंने मोहम्मद साहब से पहले अपने दौर में क्षेत्रीय भाषाओं में ख़ुदा के पैग़ाम की तबलीग़ की, अब चाहे उन्हें जिस भी नाम से भी जाना जाता हो। इसीलिए किसी भी धर्म के किसी भी आराध्य देव को बुरा न कहने की इस्लाम ताकीद करता है कि संभवतः वो अपने दौर के पैग़ंबर रहे हों। इस्लाम की मान्यतानुसार अल्लाह द्वारा भेजे गए इनमें से कई पैग़ंबरों की शिक्षा से संवादहीनता की कमी कारण एक इलाक़े या मुल्क के लोग दूसरे इलाक़े के लोगो से ना-वाक़िफ़ रहे। हालांकि सभी का संदेश एक ही था। जिस-जिस पयंबर या पैग़ंबर ने जो वहदानियत और इंसानियत का इल्म दिया वह उस दौर और उस इलाक़े का मज़हब कहलाया। जिसे मुसलमान कलमा कहते हैं, ‘ला ईलाहा इल्लल्लाह’ यानि ‘नहीं है कोई माबूद सिवाय अल्लाह के’, उसे ही सनातन धर्म ‘एकं ब्रह्म द्वितीय नास्ति नेह ना नास्ति किंचन’ कहता है। इसी प्रकार ‘एक ओंकार सतनाम’ या ‘गॉड इज़ वन, अदरवाइज नन’ जैसे अनेक उदहारण हैं।

इतनी समानताओं के बावजूद यह स्वाभाविक बात है कि मुसलमानों ने अपनी पिछली मान्यताओं और संस्कृतियों और परंपरा से इस्लाम स्वीकार तो कर लिया लेकिन पूर्ण रूप से ख़ुद को उनसे अलग करना आवश्यक नहीं समझा, जब तक उनसे इन नए इस्लामी सिद्धांत व मान्यताओं में बाधा पैदा होने का संदेह ना हो। पैग़ंबर के बाद का सहाबा का दौर हो, वली- अल्लाहों की बात हो या फिर अलग अलग मुल्कों में इस्लामी शासन हो उनमें सबका अपना-अपना दख़ल रहा है। इसीलिए सूफ़ीवाद में हमें हर उस मुल्क से जुड़ी मान्यताएं मिलती हैं जहां सूफ़ीवाद अपनी पहुंच बना पाया है। सूफ़ीवाद की सबसे बड़ी ख़ासियत रही है कि, जहां इस्लाम के चंद मसलक मज़हब को लेकर बिल्कुल सख़्त रवैया रखते हैं वहीं सूफ़ियों, औलियाओं ने अपनी करनी और कथनी दोनों के माध्यम से बहुलतावाद और सहअस्तित्व की शिक्षा दी है। मानवता के लिए उनकी सेवा और हर जाति, हर मज़हब, हर वर्ग के लिए उनका सुलूक एक मिसाली नमूना है। इसलिए, इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि हर धर्म के लोग वलियों की दरगाहों पर या वली सिफ़त लोगों के यहां ज़ियारत के लिए पूरी श्रद्धा के साथ जाते हैं, मज़ारों की ज़ियारत करते हैं और सूफ़ियों को अपना पीर मानते हैं।

कुल मिलाकर सारा मामला आस्था का है। मक्का-मदीना से लेकर कुंभ के मेले तक करोड़ों लोगों की सामूहिक आस्था देखने को मिलती है। हर साल वहां हादसों में बड़ी संख्या में लोगों की मौत हो जाती है फिर भी वहां जाने वालों की तादाद कम नहीं होती। यह एक तरह का प्रेम और आस्था है जो हर हाल में बनी रहती है। प्रेम को ईश्वर का दूसरा रूप भी शायद इसीलिए कहा गया है। दरअसल यह आस्था ही है जो किसी भी वस्तु के वजूद को महान बना देती है। सूफ़ीवाद का जोर इसी शिक्षा पर अधिक होता है कि ईश्वर का साक्षात स्वरूप भावनाओं में नज़र आए। यदि भावनाएं नहीं हैं और हम ख़ूब ईश्वर को भज लें तब भी ईश्वर की हम पर कृपा नहीं हो सकती। तमाम ऋषियों, मुनियों, पैग़ंबरों, सूफ़ियों, संतों ने यही तालीम दी है कि ईश्वर केवल और केवल भाव का भूखा होता है, भोग का नहीं। मन में बैर-भाव रखकर यदि हम ईश्वर आराधना करें, तो ऐसी आराधना औचित्यहीन होती है। इंसान अपनी पूजा, अर्चना, इबादत लाख करता रहे लेकिन अगर उसे इंसानियत का पाठ नहीं पता तो सब फ़िज़ूल है। इंसान हर हाल में अपने अख़लाक़ी मयार यानि नैतिक मानकों से अफ़ज़ल या हक़ीर ठहराया जाएगा और इसका हक़ सिर्फ़ अल्लाह पाक ने अपने ज़िम्मे रखा है। इसलिए किसी की इबादत पर किसी को ऊंगली उठाने से बचना चाहिए। इस बार की ईद की नमाज़ ने आम मुसलमानों को यह सीख तो ज़रूर दी होगी।