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क़ुदरत का क़्वॉरेंटाइन / सैयद सलमान
Friday, March 27, 2020 - 11:48:48 AM - By सैयद सलमान

क़ुदरत का क़्वॉरेंटाइन / सैयद सलमान
सैयद सलमान
पूरे विश्व में हाहाकार मचा है। कोरोना का क़हर पूरी दुनिया पर छाया हुआ है। कोरोना ने महामारी का रूप ले लिया है। दुनिया में शक्तिशाली देश कहलाने में गर्व महसूस करने वाले अमेरिका, रूस, और चीन भी इस से अछूते नहीं रहे। बेहतर चिकित्सकीय सेवा के लिए जाने जाना वाला इटली तो भयंकर रूप से इस बीमारी की चपेट में है। इस वायरस से हर कोई आतंकित है। कोरोना वायरस के संक्रमण को रोकने के लिए दुनिया भर के देश अपने स्तर पर तैयारियाँ कर रहे हैं। सबसे बड़ी बात है कि अभी तक इस वायरस की कोई वैक्सीन सामने नहीं आई है। कोरोना प्रभावित देशों के साथ ही अन्य देशों में भी अभी तक ट्रायल ही चल रहे हैं। ऐसे में, सावधान रहने और सुरक्षा के इंतजाम करने के बजाय काफ़ी लोग प्रार्थना और धार्मिक विधि-विधानों के जरिए इस वायरस से अपना बचाव करना चाहते हैं। कहीं गोबर का लेप और गोमूत्र को इलाज बताया जा रहा है, कहीं दुआ-तावीज़ का सहारा लिया जा रहा है। सामूहिक प्रार्थना का तो जैसे रिवाज बन गया है। कहना ग़लत नहीं होगा कि ऐसे लोग अंधविश्वास के शिकार हैं और उन्हें पता नहीं है कि इन सब से कोरोना वायरस का संक्रमण और भी बढ़ेगा, क्योंकि सामूहिक प्रार्थना के कार्यक्रमों में हज़ारों की संख्या में लोग जुटते हैं। एक तरफ़ जहां कोरोना वायरस से बचाव के लिए कहा जा रहा है कि लोग घरों से नहीं निकलें, वहीं हज़ारों की संख्या में लोगों का जुटना अंधविश्वास नहीं तो और क्या कहा जाएगा। कुछ जाहिलों को छोड़ दिया जाए तो अधिकांश मुस्लिम उलेमा भी इस संकट की घड़ी में देश के स्वर में स्वर मिला रहे हैं। और अब तो भारत भी २१ दिनों के संपूर्ण लॉक डाउन में है। 

इस बीमारी का भय केवल आम जनों में नहीं बल्कि आतंकी संगठनों में भी है। यानि बेक़सूरों का ख़ून बहाकर उसे जिहाद का नाम देने वाले आतंकी भी ख़ौफ़ज़दा हैं। सीरिया और इराक़ में सक्रिय आतंकी संगठन इस्लामिक स्टेट (आईएसआईएस) ने भी इस वायरस से बचने के लिए एडवाइज़री जारी करते हुए अपने जिहादी लड़ाकों को बताया है कि क्या करना है और क्या नहीं करना है। इस्लामिक स्टेट के आधिकारिक न्यूज़ वीकली ‘अल-नबा न्यूज़लेटर’ में इंफ़ोग्राफ़िक के ज़रिए ये एडवाइज़री जारी की गई है। इसमें आतंकियों को यूरोप न जाने का फ़रमान सुनाया गया है। इस न्यूज़लेटर के मुताबिक आईएसआईएस आतंकियों को महामारी ग्रस्त यूरोप से दूर रहना है। जो आतंकी या समर्थक पहले से यूरोप में हैं उन्हें वहीं रहने, यानि उन्हें वापस अपने ठिकाने पर न लौटने का फ़रमान सुनाया गया है। इसे अल्लाह का अज़ाब बताने वाला आईएसआईएस यह क्यों नहीं समझ पा रहा कि शायद यह महामारी उनके गुनाहों की वजह से ही आई हो जिसे वह अल्लाह के नाम पर करते रहे हैं? अपनी सल्तनत बढ़ाने की ज़िद में जिहाद की मूल भावना को दरकिनार कर जिहाद की अपनी व्याख्या कर उसी को अपना हथियार बनाकर कितने बेगुनाहों का ख़ून बहाया गया है, क्या आईएसआईएस ने इस विषय पर चिंतन किया है? महामारी कोरोना से संक्रमित इस्लामी मुल्कों की हालत पर ऐसे सरफिरों को नज़र डालनी चाहिए। कोरोना के बहाने ही सही, इस्लाम के आईने में अपने कृत्यों पर एक बार ग़ौर करके तो देखें। 


ख़ैर, यह तो केवल संदर्भ के लिए था कि आतंकी भी ईश्वरीय शक्ति या प्राकृतिक आपदा से भयभीत होते हैं। वैसे विश्व में फैली इस जानलेवा बीमारी से भारत का आम मुस्लिम समाज भी परेशान है। देश की तमाम ऐतिहासिक जामा मस्जिदों में कोरोना वायरस को लेकर काफ़ी सतर्कता बरतने की ज़रूरत है। देश के सभी प्रतिष्ठित मदरसों में छुट्टी का एलान किया जा चुका है। जुमे की नमाज़ के ख़ुतबों में इमाम हज़रात लोगों को समझाते रहे हैं कि विश्व भर में आपदा बनकर सामने आए करोना वायरस से प्रत्येक भारतीय को बचाना ही सबसे बड़ा धर्म है। होना भी यही चाहिए। इस मुश्किल घड़ी में सभी को एकजुट होकर इस बीमारी का सामना करना होगा। पैग़ंबर मुहम्मद साहब ने आज से १४ सौ साल पहले ऐसे कठिन समय में क्या करना है, और क्या नहीं करना है इसके लिए हिदायत जारी कर दी थी। एक हदीस शरीफ़ के मुताबिक़ 'जो इलाक़े महामारी से प्रभावित हों वहा न जाएं और न ही दूसरी जगह का सफ़र करें, जिससे लोग बीमार हों, उनको डराएं नहीं, उनकी हिम्मत बढ़ाएं, उनकी मदद करें यही हमारा सबसे बड़ा धर्म है।'  लॉक डाउन से पहले मस्जिदों में नमाज़ियों से निवेदन किया जा रहा था कि वह घर से वज़ू कर के आएं, फ़र्ज़ के बाद सुन्नत नमाज घर पर ही अदा करें और हर जगह सफ़ाई का अच्छा प्रबंध किया जाए। क्योंकि इस्लाम में कहा गया है, 'सफ़ाई निस्फ़ (आधा) ईमान है।' संपूर्ण लॉक डाउन के बाद अब मस्जिदों में भी सिर्फ़ नमाज़ पढ़ाने वाले इमाम, अज़ान देने वाले बांग़ी, और मस्जिद की स्वच्छता वगैरह का कार्य देखने वाले कर्मचारी के अलावा किसी को भी आने नहीं दिया जा रहा है। सबकी सुरक्षा की दृष्टि से यह योग्य क़दम है। इस्लाम में घर पर नमाज़ों को अदा करने की छूट है। इबादत के मामले में सख़्ती, ज़िद या अहंकार की कोई जगह नहीं है। 

वैसे मुस्लिम समाज का यह आचरण अनोखी बात नहीं है। यदि किसी भी धर्म के क्रियाकलापों, उपदेशों, सिद्धांतों और नियमों के सार पर नज़र डालें तो उनका लक्ष्य होता है कि सबका कल्याण हो। इस सभी के अंतर्गत पर्यावरण, पेड़-पौधों, पहाड़ों और नदियों सहित प्रकृति से जुड़ी हर चीज़ को शामिल किया जाता है। विभिन्न धर्मों में पर्यावरण के संरक्षण पर बहुत ज़ोर दिया गया है। इस्लाम भी इस नियम से अलग नहीं है। लेकिन इंसान की फ़ितरत है कि वह सिर्फ़ पढ़ता है, सुनता है और धर्मग्रंथों का पाठ भी करता है, लेकिन कभी ग़ौर-ओ-फ़िक्र नहीं करता। ग़ौर करने वाली बात तो यह भी है कि प्रकृति के साथ तिहरा खिलवाड़ हो रहा है। पेड़ काटे जा रहे हैं, समंदर और नदियां पाटी जा रही हैं, चट्टानों और पर्वतों को तोड़ा जा रहा है। यह असंतुलन समाज के लिए घातक होता जा रहा है। इंसानी फ़ितरत तो यह भी है कि वह धर्म के नाम पर तो बहुत कुछ करने की वकालत करता है लेकिन ईश्वरीय संरचना की रक्षा और व्यवस्था से संबंधित कार्यकलाप प्राय: कम ही करता है। अनेक लोग धर्म और मज़हब के मर्म और उस मर्म में समाहित रूहानियत और अध्यात्म के बुनियादी उसूलों की ओर विशेष ध्यान नहीं देते। यही कारण है कि पूरी कायनात प्रदूषण के भार तले दबती जा रही है। झीलें, तालाब, नदियां, पर्वत, वन, उपवन सभी तिल-तिल कर क्षरण की ओर बढ़ रहे हैं, जबकि धर्म और अध्यात्म के सिद्धांतों के अनुसार ये इंसानों के रक्षक हैं। प्रकृति के सामंजस्य का बिगड़ना अनेक तह की आपदा लाने का कारण बनता है। महामारी, बाढ़, सुनामी, आंधी, तूफान, भूकंप सब प्राकृतिक आपदाएं ही तो हैं जो इंसानों पर बला बनकर उतरती हैं। इसी बला को तो ईश्वरीय अज़ाब कहा जाता है। क्या ऐसी आपदाएं देश, प्रदेश, रंग, नस्ल, जाति, मज़हब देखकर आती हैं? नहीं यह कोई भेद नहीं करतीं। यह सीख भी देती हैं कि हे मानव, तेरी बस इतनी सी औक़ात है कि प्रकृति जब चाहे तुझे 'क़्वॉरेंटाइन' कर सकती है, बिना किसी भेद के। क्या हम नहीं देख पा रहे कि विश्व समुदाय किस तरह नज़रबंद और एक दूसरे से अलग-थलग कर दिया गया है। जबकि आज का इंसान बहुत आधुनिक है न? इंसान काश ये समझ पाता कि धर्म, मजहब, रंग, नस्ल, जाति जैसे भेद इंसानों के बनाए हैं, प्रकृति, क़ुदरत या धार्मिक शब्दों में अल्लाह, ईश्वर या गॉड की इसमें कोई भमिका नहीं है। क़ुदरत प्राकृतिक सुविधा देने या फिर प्राकृतिक आपदा देने में कोई भेद नहीं करती। ज़माना देख ही रहा जिसमें अहंकार से भरे शाही तख़्त-ओ-ताज के मालिकान और विश्व के लगभग सभी देश के राष्ट्रप्रमुखों ने ख़ुद को क़्वॉरेंटाइन कर रखा है। मुस्लिम समाज भी इस बात को गांठ बांध ले। यह 'क़ुदरत का क़्वॉरेंटाइन' नहीं तो और क्या है?