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पांच कविताएं / सीत मिश्रा
Saturday, April 1, 2017 - 10:29:03 PM - By डॉ. वागीश सारस्वत

पांच कविताएं / सीत मिश्रा
सीत मिश्रा
समकालीन हिंदी कविता में नवोन्मेष आश्वस्त करता है कि नयी पौध कविता की गूढ़ता को कुछ अपने ही अलग अंदाज में जिस प्रकार से सहजता में बदल रही है वह दिन दूर नहीं कि हमे हिंदी कविता में कुछ ऐसे चेहरे अवश्य दिखेंगे जो पुरानी पीढ़ी को उन चिंताओं से मुक्त कर सकें जो वह हिंदी साहित्य और कविता पर मंडराते संक्रमण को लेकर व्यक्त करते रहे हैं

हिंदी कविता में एक ऐसा ही चेहरा हम सीत मिश्रा का भी मान सकते है कविता पर वह खुद को किसी एक शैली या विषय तक न सीमित रखती हुई एक बड़ा वितान तय करती हैं वह प्रेम लिखती हैं .. नदी लिखती है आक्रोश और प्रतिरोध पर बात करती है जहाँ हम नए कवियों में एक विशेष सेफ जोन में बने रहने की चिंता देखते है हम देखते है कि युवा अपनी कविताओ में शैलियों को लेकर अधिक प्रयोगात्मक नहीं होना चाहते है वहीँ सीत मिश्रा ख़ारिज होने के खतरों का सामना करना चाहती है खास विषय पर केंद्रित न रहते हुए वह स्वयं का संवाद अपनी कविता में लाती है

कहीं-कहीं वह तथ्यात्मक होती है तो कहीं-कहीं उनकी कविता में भावुकता का अनावश्यक बोध भी प्रतीत होता है पर उनकी विशेषता यह रही कि वह अपनी कविताओ में सहजता को बनाये रखने में सफल रहती है वह कविता बनाने से बचती है संभवत उनकी कविताएँ आने वाले समय में स्वतः जनित परिपकक्वता के साथ अपनी राह चुनेंगी

सीत मिश्रा की भाषा-शैली कविता के विषय के साथ खुद को बदलने की क्षमता रखती हैं चूँकि वह आकाशवाणी दिल्ली में समाचार प्रस्तोता है तो वह अपनी कविताओ में एक खास तरह का संवाद रचती है और संभवतः इसी विशेषता के कारण उनकी कविता मंच पर भी अपना एक अलग प्रभाव छोड़ जाती हैं

सीत मिश्रा की कविताओ पर आपकी प्रतिक्रिया आपेक्षित है क्योंकि वह आलोचनाओ को अपनी रचनाप्रक्रिया के गठन का एक माध्यम मानती है कवयित्री को उनके उज्जवल रचनात्मक भविष्य की शुभकामनाएँ देते हुए यहाँ उनकी पाँच कविताएँ प्रस्तुत की जा रही है

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१.

चीखों का बियाबान
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हर कोई चीख रहा है
विरोध जता रहा है
हर बात की शिकायत है

लेकिन सुनवाई किसी बात की नहीं

फिर भी चीख जारी है
गाड़ियों की
जानवरों की
बच्चों की
खिड़कियों की
दरवाजों की
धर्म की
जाति की
स्त्री की
पुरुष की

बस चीख

चीख...

हर तरफ शोर
विद्रोह
बगावत
धरना
खिलाफत

हर कोई चीख रहा है
विरोध जता रहा है
हर बात की शिकायत है

लेकिन सुनवाई किसी बात की नहीं

२.

सेमीनार
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खूब चर्चा हुई जल स्रोतो पर

नदी का इतिहास
नदी का आशय
नदी का मिथक

और नदी का पैमाना

चिंता बहुत बड़ी थी
बर्बाद होते पानी पर
गंदे होते जल पर

प्रदूषण के वजहों को भी गिनाया
प्रदूषित न करने का दृढ़ संकल्प भी लिया

दो दिन बिसुरते रहे जल पर,
वहाँ एकत्र हर शख्स रहा परेशान
हर बार चर्चा के केंद्र में जल रहा
विरोध किया गलत फैसलों का

गलत इरादों के खिलाफ आवाज भी उठाई

अपनी राय रखकर
अब घर लौट आए हैं हम

नल थोड़ा खराब है
रोज पानी रिसता है
अब कौन समय और पैसे खर्च करे

वैसे भी पानी का बिल तो भरना नहीं पड़ता
अब इतना भी क्या सोचना

सेमीनार खत्म हो चुका है!

३.

एतराज
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हमें एतराज है

तुम्हारी दुआ से
तुम्हारी मजहब से
तुम्हारे तहजीब से

हमें एतराज है

तुम्हारी भाषा से
तुम्हारी परिभाषा से
तुम्हारी आवाम से

हमें एतराज है

तुम्हारी आहट से
तुम्हारी आवाज से
तुम्हारी चाप से

हमें एतराज है

तुम्हारे रहने से

हमें एतराज है

तुम्हारे हुक्म से
तुम्हारी तालीम से
तुम्हारे सुख़न से

हमें एतराज है

तुम्हारे ज़ीस्त से
तुम्हारे मुफ़लिसी से
तुम्हारे रिदा से

हमें एतराज है

तुम्हारे विरोध से
तुम्हारे धरने से
तुम्हारे चीखों से

हमें एतराज है ..

४.

नियंता
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सुनो,
एक काम करते हैं
तुम मुझे बदनाम करो
हम खुद को तुम्हारे नाम करते हैं
तुम हमें बहलाओ और
दुत्कारो भी,
हमें चुभलाओ और करो दारोश भी

दुर्गा कहकर कुचलो पैरों तले
लक्ष्मी कहकर छीन लो जीने का अधिकार
हम वंदना करेंगे तुम्हारी
पुजेंगी तुम्हें

सौन्दर्य का ताज पहनाकर कैद करो
बेड़िया डालो रूढ़ियों की
हवाला दो शास्त्रों का
बांध लो बाहुपाश में
और खींच दो लक्ष्मण रेखा
काट दो हमारे पंख
हम उफ्फ तक नहीं कहेंगी
टूटकर चाहेंगी तुम्हें
तुम्हारे अंश को खुद में पालेंगी
देंगी तुम्हें बाप बनने का गौरव
तुम हमपर लांछन लगाना
फिर भी तुम्हारा गुणगान करेंगी हम
कृतज्ञ रहेंगे तुम्हारी,
आजीवन आभारी भी
अब भी तो सांसे चल रही हैं हमारी
तुमने हमारा अस्तित्व कुचला
लेकिन हमें मिटाया नहीं
हम इसे अपनी नियति मानते हैं
हमारे नियंता हो तुम
तुम्हारी जय-जयकार हो


५.

विस्मय मैं खुद हूँ
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अरे प्रेम
अबूझे हो तुम, अपने होने के सभी कारणो की तरह
कामना सा उभरते और मिटते हो
फिर मिलते हो नए मोड़ पर नए चेहरे के साथ,

याद की मिटटी में दबा पुराना चेहरा चीखता है
सुनो मैं यहाँ दबा हूँ
और तुम वेगमय हो उड़ जाते साथ मे

नया प्रेम, नयी हँसी
अंतिम क्रिया है पुराने चेहरे के दाह की
और राख उड़ लिपटती है

नया प्रेम पुराने चेहरे की राख से लिपटा एक नव-आवाहन है

और मैं भौचक
बस भौचक

कहीं कोई कारण नहीं
तुम्हारी हर परत में मेरे प्रेम सबसे बड़ा विस्मय मैं खुद हूँ

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संक्षिप्त-परिचय
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सीत मिश्रा

जन्म- 4 नवम्बर 1986 रॉबर्ट्सगंज (उत्तर-प्रदेश)

शिक्षा- एम.ए. (अर्थशास्त्र), पत्रकारिता

इलाहाबाद से पत्रकारिता की शुरुआत, पांच सालों तक इलेक्ट्रानिक मीडिया में कार्य करने के बाद रेडियो से जुड़ी

अलग-अलग विषयों पर बहुवर्णी लेखन और नियमित प्रकाशन।

रचनाएं- नया अध्याय-2009, वजूद-2012, वापसी-2014, (कहानी प्रकाशन)

ताकि वे दोबारा न लौट सकें (लघुकथा), रिक्शा पेट से चलता है (लघुकथा)

कुछ कविताओं का प्रकाशन

"रूममेट्स" प्रथम उपन्यास ( शब्दारंभ से प्रकाशित )

सम्प्रति- आकाशवाणी में समाचार वाचक (दिल्ली)

ईमेल- seetmishra04@gmail.com