साभार- दोपहर का सामना 30 09 2022
अभी गुजरात और हिमाचल प्रदेश के विधानसभा चुनाव सर पर हैं। साथ ही साथ कुछ अन्य प्रदेशों के चुनाव भी लोकसभा चुनाव से पहले होने की संभावना है। केंद्र में बैठी सरकार और उसका नेतृत्व कर रही भाजपा महंगाई, बेरोज़गारी, नफ़रत जैसे मुद्दों पर दिन-प्रतिदिन घिरती नज़र आ रही है। उस बैकलॉग को पूरा करने के लिए वह इस देश में सबसे ज़्यादा आज़माए गए फ़ॉर्मूले यानी मुस्लिम समाज को आकर्षित करने के प्रयास में लग गई है। एक तरफ़ उन्हें प्रत्यक्ष लुभाया जा रहा है तो दूसरी तरफ़ अपरोक्ष रूप से भी उन पर डोरे डाले जा रहे हैं। या हो सकता है उन को शांत करने का ही प्रयास हो रहा हो। अचानक पसमांदा मुस्लिम समाज के साथ-साथ आंचलिक स्तर पर भी मुस्लिम समाज उनके लिए महत्वपूर्ण हो गया है। पूरे के पूरे मुस्लिम समाज को भी तरह-तरह से लुभाने के प्रयास हो रहे हैं वह अलग। यह अचानक तो हो नहीं सकता कि आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत मस्जिद पहुंच जाएं। अपने तीन वरिष्ठ सहयोगियों के साथ अखिल भारतीय इमाम परिषद के अध्यक्ष डॉ. उमेर अहमद इलियासी से मिलकर लगभग एक घंटा बंद कमरे में गुफ़्तुगू करें। गदगद इलियासी भावावेश में उन्हें ‘राष्ट्रपिता’ और ‘राष्ट्रऋषि’ क़रार दे दें। इससे पहले भागवत सेवानिवृत्त लेफ़्टिनेंट जनरल ज़मीरुद्दीन शाह, पूर्व चुनाव आयुक्त एस वाई क़ुरैशी, दिल्ली के पूर्व उप-राज्यपाल नजीब जंग, पूर्व सांसद-पत्रकार शाहिद सिद्दीक़ी और दानवीर सईद शेरवानी से मिल चुके हैं। देश की सुरक्षा और प्रगति में इन महानुभावों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। मौजूदा हालात में इस मुलाक़ात के कई मायने हैं। तय है कि इस तरह की मुलाक़ातों की स्क्रिप्ट सोच-समझकर ही तैयार की गई होगी।
यही नहीं कट्टर छवि वाले केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह भी अब इसी डगर पर चलने का प्रयास कर रहे हैं। जम्मू-कश्मीर की बात करें तो वहां मार्च २०२३ में विधानसभा चुनाव होने की संभावना है। परिसीमन आयोग की सारी औपचारिकताएं पूरी हो गई हैं। इस बीच, अमित शाह १ और २ अक्टूबर को जम्मू-कश्मीर के दौरे पर रहेंगे। शाह श्रीनगर के ईदगाह में वक़्फ़ बोर्ड के कैंसर अस्पताल की आधारशिला रखेंगे। शाह शहीद पुलिसकर्मियों के घर भी जाएंगे। इनमें ज़्यादातर कश्मीरी मुसलमान हैं। अर्थात गृहमंत्री के रूप में अमित शाह को आगे कर जम्मू-कश्मीर में भाजपा मुस्लिम आबादी तक पहुंचने की हर संभव कोशिश कर रही है। राज्य स्तर पर मुसलमानों को लोकलुभावन वादों-नारों से आकर्षित करने का प्रयास होगा। स्थानीय नेताओं की ढुलमुल नीतियों और सीमा पार से अलगाववादियों को मिलते समर्थन के कारण अशांत जम्मू-कश्मीर के आम मुसलमानों में वैसे भी नाराज़गी और ग़ुस्सा है। देश के प्रति अपनी वफ़ादारी सिद्ध करते-करते वह तंग आ गए हैं। ऐसे में अगर थोड़ा सा भी उन्हें पुचकारा, बहलाया-फुसलाया जाए तो वह बिछने को तैयार हो जाएंगे। ग़ुलाम नबी आज़ाद, अब्दुल्लाह पिता-पुत्र, महबूबा मुफ़्ती जैसों से वहां की जनता अब ऊब चुकी है। इसी का फ़ायदा उठाने का भाजपा वहां प्रयास करेगी। अमित शाह इसी लाइन पर काम कर रहे हैं।
मुसलमानों को रिझाने की क़वायद में प्रधानमंत्री भी शामिल रहे है। उन्हें ट्रिपल तलाक़ जैसे मुद्दों पर मुस्लिम महिलाओं का हमदर्द होने का तमग़ा देने में भाजपा और उनके द्वारा पल्लवित-पोषित मीडिया ने कोई कसर बाक़ी नहीं रखी। अब भाजपा की चुनावी रणनीति में 'पसमांदा मुस्लिम' भी शामिल हो गए हैं। पसमांदा शब्द उर्दू-फ़ारसी का है, जिसका अर्थ होता है पीछे छूटे या नीचे धकेल दिए गए लोग। आंकड़ों के हिसाब से यह वोट बैंक लोकसभा की लगभग सौ से अधिक सीटों पर अपना प्रभाव रखता है। अगर यह महत्वपूर्ण न होते तो अभी हाल ही में हुई भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पसमांदा मुस्लिमों का नाम यूं ही नहीं लेते। उन्होंने एक सोची-समझी रणनीति के तहत पसमांदा मुस्लिमों का ज़िक्र किया। उन्होंने पार्टी को 'स्नेह यात्राओं' के जरिए पसमांदा मुसलमानों का समर्थन हासिल करने पर ज़ोर दिया। उनके बयान के बाद से ही पार्टी नेताओं के बयान आने शुरू हो गए कि भाजपा, मुस्लिम समुदाय के आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़े पसमांदा वर्ग को लोक कल्याणकारी योजनाओं से जोड़ने की कोशिश करेगी। अपनी इस कोशिश में वह राष्ट्र धरोहर शहीद वीर अब्दुल हमीद को भी इस्तेमाल करने से नहीं चूक रही। मुस्लिम पसमांदा समाज से आने वाले परमवीर चक्र विजेता शहीद वीर अब्दुल हमीद को सम्मानित करने और उनकी जयंती पर समारोह आयोजित करने की भी योजना बनाई गई है। राजनीति का ककहरा जानने वाला भी समझ जाएगा कि एक शहीद के नाम पर यह राजनीतिक लाभ लेने का प्रयास है। अब तक सभी राजनीतिक दलों द्वारा पसमांदा को नज़रअंदाज ही किया गया है। ऐसे में भाजपा का उनकी तरफ़ हाथ बढ़ाना पार्टी को फ़ायदा पहुंचाने की क़वायद के अलावा भला क्या हो सकता है।
इतने सब संयोग अचानक हों तो ख़ुशी होनी चाहिए कि चलिए संघ-भाजपा को मुस्लिम समाज की चिंता तो हुई। पर क्या सचमुच ऐसा है? वही मुस्लिम समाज, जिसे संघ-भाजपा के अधिकतर कार्यकर्ता नेता सीधे पाकिस्तान भेजने पर आमादा रहते हैं। ऐसे में शंका तो होगी। ऐसा भी नहीं है कि सभी ऐसे ही होते हैं। अगर सब ऐसे होते तो मुस्लिम समाज के साथ संवाद की यह भूमिका ही न बन पाती। भागवत जब कहते हैं कि मुसलमानों और हिंदुओं का डीएनए एक ही है, तो समझा जा सकता है कि कहीं ना कहीं उनके भीतर भी यह भाव है कि नफ़रत की बुनियाद पर न सरकारें चला करती हैं, न समाज चलता है और न ही देश चल पाता है। मदरसों के प्रति तमाम तरह की नकारात्मक सोच के बावजूद, उसकी खोजबीन, उसके सर्वे, उसकी पूछताछ से यही संदेश देने का प्रयास हो रहा है कि इससे मुस्लिम समाज आधुनिक समाज के साथ क़दमताल कर पाएगा। कुछ हद तक यह सही भी हो सकता है, लेकिन अगर नीयत में खोट न हो तो। यही बात इलियासी के साथ भेंट, जम्मू-कश्मीर की रणनीति और पसमांदा मुसलमानों को आकर्षित करने के प्रयास पर भी लागू होती है। लेकिन ऊपर से जैसा दिख रहा है क्या भीतर भी ऐसा है, यह सवाल महत्वपूर्ण है।
धार्मिक होने में बुराई नहीं है, लेकिन धार्मिक कट्टरता नुक़सानदेह होती है। ख़ासकर तब, जब उसके नकारात्मक प्रभाव का असर अन्य देशवासियों पर भी पड़ने लगे। अफ़गानिस्तान, पाकिस्तान, ईराक, सीरिया सहित कई मुस्लिम कट्टरपंथी देशों की मिसाल सामने है, जहां की अवाम कट्टरपंथ से त्रस्त है। अब तो हिजाब जैसे मुद्दे पर ईरान में भी बवाल खड़ा हो गया है। पिछले कुछ वर्षों में भारत में भी बेमतलब के विवाद सुर्ख़ियां बन चुके हैं। बस यहां धर्म अलग है। मुस्लिम समाज में असुरक्षा की भावना का पनपना सरकारी असफलता है। नफ़रत जब अपने पैर पसारती है तो वह प्रांत, भाषा, जाति, धर्म और देश की सीमा नहीं देखती। देश की तरक़्क़ी में बाधक तत्व धार्मिक भेदभाव को ख़त्म नहीं होने देना चाहते। राष्ट्रीय एकात्मता को मज़बूत करने के बजाय कई राजनैतिक पार्टियां और नेतागण एक-दूसरे को कोसने में लगे रहते हैं। भूतकाल के आधार पर, वर्तमान पर प्रहार करते हुए भविष्य नष्ट करने में लगी इन शक्तियों के कारण अलगाव बढ़ रहा है। मुस्लिम समाज के कट्टरपंथियों की करतूत का ख़ामियाज़ा आम मुसलामानों को भुगतना पड़ रहा है। एक तबक़े ने पूरी तरह से मुसलमानों को अलग-थलग कर दिया है। ज़िम्मेदार संवाद की कमी इसका सबसे बड़ा कारण है। अगर केवल राजनीतिक फ़ायदे के लिए संवाद किया जाता है, तो कोई लाभ नहीं है। लेकिन अगर सचमुच एक स्वस्थ संवाद स्थापित होता है तो उसका स्वागत भी होना चाहिए। एक मज़बूत राष्ट्र का निर्माण तभी संभव है जब देश का कोई भी तबक़ा वंचित, आशंकित, असुरक्षित और भयभीत न रहे।
(लेखक मुंबई विश्वविद्यालय, गरवारे संस्थान के हिंदी पत्रकारिता विभाग में समन्वयक हैं। देश के प्रमुख प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं।)