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फ़रमानी, फ़तवा और फ़रमान / सैयद सलमान
Friday, August 5, 2022 8:38:49 AM - By सैयद सलमान

यह बहस का विषय हो सकता है कि क्या किसी गाने से किसी का धार्मिक विश्वास आहत होता है?
साभार- दोपहर का सामना 05 08 2022

एक बार फिर मुस्लिम समाज का एक 'कथित फ़तवा' चर्चा में आ गया है। मुस्लिम समाज पर एक बार फिर छींटाकशी शुरू हो गई है। वैसे भी विभिन्न फ़तवों को लेकर मुस्लिम समाज अक्सर विवादों में रहता है। इस बार एक गायिका इसकी ज़द में आई है। उत्तर प्रदेश के मुज़फ़्फ़रनगर में रहने वाली गायिका फ़रमानी नाज़ के ख़िलाफ़ मुस्लिम समाज का एक तबक़ा खड़ा हो गया है। पिछले दिनों सावन में निकलने वाली कांवड़ यात्रा के दौरान फ़रमानी नाज़ ने 'हर-हर शंभू' गाना गाया और यूट्यूब चैनल पर उसे अपलोड कर दिया। देखते ही देखते ये गाना वायरल हो गया। उनके इसी गाने को इस्लाम के विरुद्ध बताया जा रहा है। गायन फ़रमानी का शौक़ है और वह लगातार रियाज़ करती रहती हैं। शायद इसलिए उनके गाए इस गीत में एक नई ताज़गी महसूस की गई। अपने गांव से इंडियन आइडियल के मंच तक फ़रमानी का संघर्षपूर्ण सफ़र रहा है। हर बार वह प्रशंसकों के सामने नए अंदाज़ में प्रस्तुति देती रही हैं। उनकी बुलंद और पुरकशिश आवाज़ सुनकर लोगों को लगा कि यह गीत उन्होंने अपनी रूह से गाया है। लेकिन फ़रमानी नाज़ का वही शिव भक्ति वाला गीत अब उनके लिए विवाद का कारण गया है।

एक मुस्लिम महिला का हिंदुओं के भगवान पर गीत गाना कुछ लोगों को पसंद नहीं आया। हर तरफ़ यह ख़बर चलने लगी कि फ़रमानी के ख़िलाफ़ फ़तवा जारी हुआ है। दरअसल फ़रमानी नाज़ के गीत के बाद दारुल उलूम देवबंद के दारुल इफ़्ता से जुड़े मुफ़्ती असद क़ासमी ने केवल एक बयान दिया, जिसमें उन्होंने अपने विचार रखते हुए गायन, विशेषतः भजन गायन को ग़ैर इस्लामी बताया और फ़रमानी से तौबा करने को कहा। मुफ़्ती क़ासमी के इसी बयान को फ़तवा कहकर प्रचारित किया गया। मीडिया और शिक्षित वर्ग को कम से कम फ़तवा और बयान के बीच के फ़र्क़ को समझना होगा। दरअसल फ़तवा एक तरह की सलाह होती है जिसे मुस्लिम समाज के अलग-अलग मकतब-ए-फ़िक्र के मुफ़्ती हज़रात तब देते हैं, जब उनसे किसी मसले पर सवाल किया जाता है या राय मांगी जाती है। ऐसे फ़तवे देने वालों को मुफ़्ती कहा जाता है। हालांकि फ़रमानी के मामले में ऐसा कुछ नहीं हुआ और मुफ़्ती क़ासमी ने अपनी तरफ़ से ऐसा बयान जारी कर दिया जिसे फ़तवा बताया जाने लगा। अब भले यह फ़तवा न भी हो, लेकिन एक ज़िम्मेदार मुफ़्ती का बयान आता है तो चर्चा तो होगी ही और मामला अगर धार्मिक विश्वास का हो तो विवादित भी होगा। अब यह अलग से बहस का विषय है कि क्या किसी गाने से किसी का धार्मिक विश्वास आहत होता है?

इस मामले में सुरों के बेताज बादशाह कहे जाने वाले मरहूम मोहम्मद रफ़ी को भी याद किया जा रहा है जिनके गाए हुए भजन आज भी उतने ही लोकप्रिय हैं, जितने उनके हयात रहते लोगों के दिलों के क़रीब थे। 'ईश्वर अल्लाह तेरे नाम सबको सन्मति दे भगवान, सबको सन्मति दे भगवान सारा जग तेरी संतान।' रफ़ी साहब के इस भक्ति से ओत-प्रोत गीत को सुनकर जो सुकून मिलता है उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। क्या कहेंगे इसे ? किसी धर्म विशेष का भजन है ? या फिर सभी मानव जाति की तरफ़ से परम परमेश्वर अल्लाह की भक्ति का नायाब तोहफ़ा इस गीत को शब्दों में ढाला था साहिर लुधियानवी ने। मुस्लिम परिवार में जन्मे मोहम्मद रफ़ी ने अपने ३४ बरस के फिल्मी करियर में हिंदू देवी-देवताओं की स्तुति में लिखे अनगिनत भक्ति गीत गाए हैं, जिसका मुक़ाबला कोई मुस्लिम तो क्या ग़ैर मुस्लिम गायक भी नहीं कर सकता। रफ़ी साहब जिस भक्ति भाव से भजन गाते थे, उसी भक्ति भाव से हम्द-ओ-सना, नात शरीफ़ और सलाम पढ़ते थे। उसी आध्यात्मिकता से सूफ़ियाना क़व्वालियां गाया करते थे। लेकिन तब किसी मौलाना ने शरीयत का हवाला देते हुए रफ़ी साहब की आलोचना नहीं की। शायद इसलिए कि तब समाज में नफ़रत का ऐसा माहौल नहीं था। रफ़ी साहब की तरह ही शब्बीर कुमार और मोहम्मद अज़ीज़ ने भी अनेकों भजन गाए हैं। पिछले कई सालों से हमसर हयात निज़ामी साईंबाबा के भजन गा रहे हैं। इन सब पर भी कभी उंगली नहीं उठी। ग़ौर करने वाली बात है कि पाकिस्तान के कई ऐसे मशहूर गायक हैं जिन्होंने हिंदू धार्मिक गीत और भजन गए हैं। जिनमें आबिदा परवीन का गाया, 'भला हुआ मेरी मटकी फूटी रे..', उस्ताद नुसरत फ़तेह अली और राहत फ़तह अली खान का गाया, 'साँसों की माला पे सिमरूँ..' फ़रीद अयाज़ और अबु मोहम्मद का गाया,'कन्हैया, याद है कुछ भी हमारी...', शफ़ी मोहम्मद फ़क़ीर का गाया,' हम गुरु गुरुनाथ रे...', पकिस्तान में जन्मे उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली का गाया, 'हरी ओम....' प्रमुख हैं। इस्लाम के नाम पर भारतीय उपमहाद्वीप का सबसे बड़ा ख़तरा कहलाने वाले इस्लामिक देश पाकिस्तान में इन कलाकारों को हाथों हाथ लिया जाता है। शायद इसीलिए कहते हैं, कलाकार का कोई धर्म नहीं होता। क्या फ़रमानी नाज़ इन्हीं लोगों की परंपरा का हिस्सा नहीं हैं?

वैसे आलोचकों ने जब अति कर दी तो फ़रमानी नाज़ ने अपनी आलोचना करने वाले मुस्लिम समाज के ठेकेदारों को दो टूक जवाब भी दिया। दरअसल फ़रमानी एक तलाक़शुदा महिला हैं। फ़रमानी नाज़ ने अपनी पीड़ा ज़ाहिर करते हुए कहा कि, 'आज जो लोग विरोध कर रहे हैं वो तब कहां थे जब मेरे पति ने बिना तलाक़ लिए दूसरी शादी कर ली थी ? मैं अपने बच्चे का पेट पालने के लिए गाती हूं।' हालांकि फ़रमानी का ग़ुस्सा अपने समाज पर है, लेकिन इस बहाने वह अपना बचाव भी कर ले रही हैं और समाज के विरोधाभास को भी उजागर कर रही हैं। फ़रमानी नाज़ पर उंगली उठाने से पहले समाज को उनकी मजबूरी का ख़्याल करना चाहिए था। उन्होंने मजबूरी में ही गायन को अपना पेशा बनाया। पति के छोड़े जाने के बाद से वह अपने मायके में रह रही हैं और गाने गाकर परिवार का भरण पोषण कर रही हैं। उनका एक साल का बेटा भी है। फ़रमानी नाज़ के ख़िलाफ़ लामबंद हुए लोगों से एक अहम सवाल तो बनता है कि यह सारा बवाल एक मजबूर महिला से क्यों? उसकी परेशानी पर कितने लोगों ने उसका साथ दिया था? वह जिस हालत में है क्या कभी किसी ने उसके साथ सहानुभूति दिखाई? या फ़रमानी नाज़ को अपने पैरों पर खड़ा होने में कोई मदद की?

आजकल धर्म और आस्था के नाम पर नफ़रत और हिंसा को अपने आसपास पनपते देखा जा सकता है। जितना धर्म के ठेकेदारों ने धार्मिक आस्था को सर्वव्यापी नहीं बनाया उससे कहीं ज्यादा आक्रामक और हिंसक बना दिया है। मोहम्मद रफ़ी, शकील बदायुनी, नौशाद की तिकड़ी ने कई कर्णप्रिय भजन दिए हैं। साहिर, मजरूह, कैफ़ी, हसरत जैसों ने भी ख़ूब लिखा है। क्या यह लोग आक्रामक सोशल मीडिया के दौर में जीवित होते तो सरफिरों द्वारा ट्रोल न हो रहे होते? अच्छा है ऐसी महान विभूतियां ऐसी ओछी और टुच्ची विचारधारा के पनपने से पहले दुनिया को अलविदा कह गईं। कट्टरपंथी ताकतों का न कोई धर्म होता है और न ही कोई मज़हब। वह हर समाज में मौजूद होते हैं। बेशक उनकी संख्या उंगलियों पर गिनने के लायक़ ही क्यों न हो। फ़रमानी नाज़ पर टिप्पणी करना आसान है, लेकिन उनकी या उन जैसी हालात की मारी महिलाओं की मदद करना मुश्किल है। आसान काम तो हर किसी के बस में है। अगर धर्म के प्रति सच्ची आस्था है तो पहले मुश्किल काम हाथ में लेने का हौसला दिखाया जाए और तभी कोई फ़रमान भी जारी किया जाए।



(लेखक मुंबई विश्वविद्यालय, गरवारे संस्थान के हिंदी पत्रकारिता विभाग में समन्वयक हैं। देश के प्रमुख प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं।)