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कुप्रथाओं के चंगुल से बाहर निकलें मुसलमान / सैयद सलमान
Friday, May 6, 2022 9:53:14 AM - By सैयद सलमान

इस्लाम और मुसलमानों की प्रतिष्ठा को ठेस पहुंचाने वाली हर कुप्रथा का विरोध करना भी एक तरह का जिहाद है
साभार- दोपहर का सामना 06 05 2022

मुस्लिम समाज एक विवाद से बाहर नहीं निकलता कि दूसरा कोई मामला उसके इंतज़ार में होता है। बाबरी मस्जिद विवाद तो ख़ैर तमाम विवादों में शीर्ष पर रहा है। सुप्रीम कोर्ट तक यह मामला चला और वहां से फ़ैसला आया तब जाकर इस विवाद का पटाक्षेप हो सका। शाहबानो का गुज़ारा भत्ता वाला मामला भी ख़ूब चला था। उस मामले में अदालत के फ़ैसले के ख़िलाफ़ जाकर क़ानून बनाने की प्रक्रिया से बिरादरान-ए-वतन में तीखी प्रतिक्रिया हुई। इस एक मामले ने ध्रुवीकरण की नींव को सींचने का काम किया। हालिया वर्षों में, गोहत्या, बीफ़ बैन, मॉब लिंचिंग, ट्रिपल तलाक़, हिजाब, अज़ान, लाउडस्पीकर जैसे मुद्दे ख़ूब चर्चा में रहे। अधिकांश मामलों में इस्लाम के नज़रिये से दूसरा पक्ष जाने बिना ही पूरे समाज को बदनामी झेलनी पड़ी। ट्रिपल तलाक़ के तरीक़े को लेकर पहले से ही मुस्लिम समाज का प्रबुद्ध तबका मुख़ालिफ़त करता रहा है। हिजाब के मुद्दे पर भी मुस्लिम बुद्धिजीवी क़ुरआन के हवाले से बुर्क़े पर सवाल उठाते रहे हैं। गोमांस अथवा बीफ़ को लेकर भी मुसलमानों की सभी संस्थाओं और बड़े मुफ़्ती हज़रात ने यह साफ़ किया था और फ़तवा तक निकाला था कि अगर देश का बहुसंख्यक समाज गाय को माता मानकर पूजता है तो उनकी भावनाओं का आदर करना हर मुसलमान के लिए लाज़िमी है। बीफ़ मुद्दा तो खाने से ज़्यादा कारोबार से जुड़ा हुआ था। बीफ़ के कारोबार से जुड़े व्यापारी ख़ुद मानते हैं कि इस व्यापार में सिर्फ़ एक ही समुदाय के लोग नहीं हैं। लगभग ३० हज़ार करोड़ रुपए के इस व्यवसाय में मुनाफ़े के एक बड़े हिस्सेदार ग़ैर-मुसलमान व्यापारी भी हैं। लेकिन इस विवाद को भड़काऊ नेताओं के बहकावे में अपने सर लेकर मुस्लिम समाज ने पूरे समाज को विलन बना दिया। ऐसे और भी कई मामले हैं जिनका संबंध इस्लामी लिहाज़ से दुरुस्त न हो तब भी मुसलमान अपने लिए अना का मसला बना लेता है।

अब एक नए विवाद के पैर पसारने के आसार नज़र आ रहे हैं। मामला है मुस्लिम पर्सनल लॉ यानी शरीयत क़ानून १९३७ की धारा २ का, जिसे असंवैधानिक घोषित करने की मांग उठी है। दावा है कि यह धारा अनुच्छेद १४, १५, २१ और २५ का उल्लंघन करती है। दरअसल दहेज देने से इनकार करने पर एक पति ने अपने वकील के ज़रिये अपनी पत्नी को तलाक़ ए-हसन के तहत तलाक़ दे दिया। अब इस प्रक्रिया पर संवैधानिक सवाल उठ रहे हैं कि यह प्रक्रिया संविधान के विभिन्न अनुच्छेद के अलावा यूएन कन्वेंशन का भी पूर्ण उल्लंघन है। इस से पहले बड़ी संख्या में मुस्लिम पति फ़ोन पर, ग़ुस्से में या मैसेज के ज़रिए तीन तलाक़ दे देते थे। उसके ख़िलाफ़ एक अभियान शुरू किया गया और आख़िरकार तीन तलाक़ को क़ानून बनाकर पूरी तरह से प्रतिबंधित कर दिया गया। लेकिन अब सुप्रीम कोर्ट में तलाक़ ए-हसन का मसला पहुंचा है। इस तरह के तलाक़ को असंवैधानिक और अवैध घोषित करने की मांग की गई है। अपील में कहा गया है कि इस तरह के तलाक़ मनमाना, तर्कहीन और मौलिक अधिकारों का उल्लंघन हैं। ग़ाज़ियाबाद की रहने वाली एकतरफ़ा तलाक़ ए-हसन का शिकार एक पीड़िता ने सुप्रीम कोर्ट में यह याचिका दायर की है। इस याचिका में सुप्रीम कोर्ट से केंद्र को लिंग-तटस्थ, धर्म-तटस्थ और सभी के लिए तलाक़ की समान प्रक्रिया की गाइडलाइन जारी करने का निर्देश देने की मांग की गई। ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि, आख़िर तीन तलाक़ के बाद यह तलाक़-ए-हसन क्या बला है और क्यों इसे ख़त्म किए जाने को लेकर सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की गई है।

इस्लाम में तलाक को अल्लाह ने जायज़ चीज़ों में सबसे नापसंदीदा बताया है। जब तक कि तलाक़ की कोई ठोस वजह न हो, तलाक़ नहीं होना चाहिए। बावजूद इसके मुस्लिम समुदाय में तलाक़ ए-अहसन, तलाक़ ए-हसन और तलाक़ ए-बिद्दत जैसे तीन तरीक़ों से तलाक़ देने की प्रथा आम है। पहला तरीक़ा है तलाक़ ए-अहसन का जिसके तहत तीन महीने के भीतर तलाक़ दिया जा सकता है। लेकिन अहम बात यह है कि इसमें तीन बार तलाक़ कहना ज़रूरी नहीं है। इस प्रक्रिया के तहत एक बार तलाक़ कहने के बाद तीन महीने तक पति-पत्नी को एक घर में रहने की इजाज़त होती है। इस अवधि को इद्दत कहते हैं। इस अवधि में अगर दोनों के बीच सहमति बन जाती है तो वह फिर से शादी में बने रह सकते हैं। यदि पति चाहे तो तीन महीने बाद तलाक़ वापस ले सकता है। अगर ऐसा नहीं होता है तो तलाक़ हमेशा के लिए हो जाता है, लेकिन पति-पत्नी दोबारा शादी कर सकते हैं। अगर बात करें तलाक़ ए-हसन की तो इसमें तीन महीने की अवधि में हर महीने एक बार तलाक़ कहना होता है। यानी पति तीन अलग-अलग मौक़ों पर बीवी को तलाक़ कहकर या लिखकर तलाक़ दे सकता है। तीसरे महीने अगर तलाक़ कह दिया जाता है तो इसे औपचारिक रूप से तलाक़ मान लिया जाता है। लेकिन इद्दत ख़त्म होने से पहले तलाक़ वापसी का मौक़ा रहता है। लेकिन तीसरी बार तलाक़ कहते ही शादी पूरी तरह से ख़त्म हो जाती है। हालांकि तीन बार तलाक़ देने के बाद भी पति-पत्नी दोबारा शादी कर सकते हैं। इसके लिए पत्नी को मुस्लिम समाज की सबसे बड़ी कुप्रथा हलाला की परीक्षा देनी होती है। इसके तहत महिला को दूसरे व्यक्ति से शादी के बाद ही दोबारा उसी व्यक्ति से शादी की इजाज़त होती है जिसे उसने तलाक़ दिया था। तीसरा है तीन तलाक़ या तलाक़ ए-बिद्दत। इस प्रक्रिया में पति किसी भी समय, जगह, फ़ोन पर, लिखकर पत्नी को तलाक़ दे सकता है। इसके बाद शादी तुरंत टूट जाती है और इसे वापस नहीं लिया जा सकता है। इस प्रक्रिया के तहत भी पति-पत्नी फिर से शादी कर सकते हैं। लेकिन इसके लिए भी पत्नी को हलाला से गुज़रना होता है। हलाला और तलाक़ की इस प्रक्रिया को लेकर कई मुस्लिम धर्मगुरुओं का कहना है कि यह क़ुरआन के लिहाज़ से ग़लत प्रक्रिया है। तलाक़ की इन तीनों प्रक्रियाओं के चलते महिलाओं को काफ़ी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। आर्थिक रूप से कमज़ोर और ग़रीब वर्ग की महिलाएं इससे सबसे ज़्यादा प्रभावित हैं।

तलाक़-ए-हसन को लेकर शीर्ष कोर्ट में दाख़िल की गई याचिका में दलील दी गई कि इस तरह के अन्य एकतरफ़ा अतिरिक्त न्यायिक तलाक़ प्रक्रियाएं न तो मानवाधिकारों और न ही लिंग अनुपात के आधुनिक सिद्धांतों से मेल खाती हैं। यही नहीं, ये प्रक्रियाएं इस्लामी मान्यता का भी हिस्सा नहीं हैं। याचिका में दावा किया गया है कि तलाक़ ए-हसन के कारण बहुत सारी मुस्लिम महिलाओं और बच्चों की ज़िंदगी भयावह स्थिति में है। बहुत सारे इस्लामी देशों में भी इन पर प्रतिबंध है। तो फिर यह कौन सा इस्लाम है जो इस तरह से अलग-अलग देशों में धर्म की अलग-अलग व्याख्या करता है? सच यही है कि इस्लाम में महिलाओं को बहुत ऊंचा स्थान दिया गया है और उन्हें जीवन के हर भाग में महत्व दिया गया है। माँ, पत्नी, बेटी, बहन, विधवा और चाची-मौसी के रूप में भी उन्हें सम्मान दिया गया है। क़ुरआन में साफ़ कहा गया है कि माँ के प्रति कृतज्ञ होने का मतलब है ख़ुदा के प्रति कृतज्ञ होना। महिलाओं के सम्मान और उनके अधिकारों को लेकर क़ुरआन का एक पूरा अध्याय सूरह निसा के रूप में मौजूद है। तो फिर यह कौन लोग हैं जो इस्लाम की ग़लत व्याख्या करते हैं? इस्लाम और मुसलमानों की प्रतिष्ठा को ठेस पहुंचाने वाली हर कुप्रथा का विरोध करना भी एक तरह का जिहाद है। तो क्यों न इस्लाम को कुप्रथाओं के चंगुल से आज़ाद कराने में मुस्लिम समाज अपनी ऊर्जा लगाए और इस्लाम का पवित्र रूप लोगों के समक्ष रखकर इस्लाम को लेकर फैली ग़लतफ़हमी को दूर करने में अपना योगदान दे?


(लेखक मुंबई विश्वविद्यालय, गरवारे संस्थान के हिंदी पत्रकारिता विभाग में समन्वयक हैं। देश के प्रमुख प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं।)