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हठधर्मिता की मुसीबत और मुस्लिम समाज / सैयद सलमान
Friday, July 30, 2021 2:10:42 PM - By सैयद सलमान

पहले तब्लीग़ी जमात और अब केरल में ईद-उल-अज़हा के दौरान मिली अघोषित छूट के बहाने अगर मुस्लिम समाज को कटघरे में खड़ा किया जा रहा है
साभार- दोपहर का सामना 30 07 2021

केरल में कोरोना के मामले बढ़ रहे हैं। ज़िम्मेदार ईद-उल-अज़हा अथवा बक़रीद में दी गई छूट को माना जा रहा है। पिछले कुछ दिनों में देश में पाए गए कोरोना संक्रमण के कुल मामलों में से ५० प्रतिशत से ज़्यादा मामले अकेले केरल से सामने आए हैं। कोरोना संक्रमित मरीज़ों की संख्या में आई अचानक वृद्धि को लेकर कोई ठोस वजह नहीं बताई जा सकी है। वैसे सरकारी या अधिकृत तौर पर तो नहीं लेकिन ईद-उल-अज़हा यानी बक़रीद के मौक़े पर पाबंदियों में छूट से संक्रमण बढ़ने की बात कही जा रही है। इस बात की पहले से ही आशंका जताई गई थी। यहां तक कि राज्य सरकार के इस फ़ैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती भी दी गई थी, जिस पर सुनवाई के दौरान शीर्ष अदालत ने भी नाराज़गी जताई थी। संक्रमण बढ़ने पर ज़िम्मेदार लोगों के ख़िलाफ़ सख़्त कार्रवाई की सुप्रीम कोर्ट ने चेतावनी भी दी थी। लेकिन इन सब बातों से लापरवाह होकर पर्व को अपने तरीक़े से मनाया गया तो पूरा पर्व और मुस्लिम समाज कटघरे में खड़ा कर दिया गया। बिलकुल उसी तर्ज़ पर जैसा कोरोना संक्रमण के पहले चरण में तब्लीग़ी जमात पर इल्ज़ाम लगा था।

दिल्ली स्थित निज़ामुद्दीन के मरकज़ और तब्लीग़ी जमात को कोरोना संक्रमण की पहली लहर का ज़िम्मेदार माना गया था। यहां तक कि केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने भी तब कोरोना वायरस के संक्रमण के मामलों में आई अचानक बढ़ोतरी के लिए तबलीग़ी जमात को ही ज़िम्मेदार ठहराया था। आरोप लगा था कि तब्लीग़ी जमात से जुड़े लोगों ने कोरोना वायरस संक्रमण के 'कैरियर' के रूप में काम किया। उस दौर में तेलंगाना, तमिलनाडु और दिल्ली सबसे ज़्यादा प्रभावित राज्य के तौर पर सामने आए थे। इन आरोपों पर तबलीग़ी जमात ने दावा किया था कि लॉकडाउन की घोषणा होते ही उन्होंने अपने सारे कार्यक्रम रद्द कर दिए थे, लेकिन आने-जाने की सुविधा न होने की वजह से मरकज़ में फंसे हुए लोग वापस नहीं लौट सके। उनकी बातों पर तब किसी ने ध्यान इसलिए भी नहीं दिया था क्योंकि तब कोरोना मरीज़ों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि पाई गई थी। तब तब्लीग़ी जमात पर आरोप लगाने और उनके ख़िलाफ़ सख़्त कार्रवाई की बात करने वालों में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के अलावा ख़ुद उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी शामिल थे। इस सबके पीछे की वजह थी लॉकडाउन के बावजूद मरकज़ में तब्लीग़ी जमात के लोगों का रुकना और सरकारी दावे के मुताबिक़ वहां से धार्मिक गतिविधियों को संचालित करते रहना। बिल्कुल उसी तरह का माहौल केरल में कोरोना के बढ़ते मामलों में बनता दिखाई दे रहा है।

तब तब्लीग़ी जमात और अब केरल में ईद-उल-अज़हा के दौरान मिली अघोषित छूट के बहाने अगर मुस्लिम समाज को कटघरे में खड़ा किया जा रहा है, तो उसका कारण कोई और नहीं बल्कि खुद मुस्लिम समाज ही है। जब तमाम धर्मों के धर्मस्थल बंद हों, उनके तीज-त्यौहार और धार्मिक आयोजन पर सरकारी नियमों की सख़्ती बरती जा रही हो, तब मुस्लिम समाज के लोगों का धार्मिक कट्टरपंथी विचारों के साथ सामने आना बिलकुल ठीक नहीं कहा जाएगा। आख़िर यह 'विशेष छूट' क्यों चाहिए, इसका जवाब किसी के पास नहीं होता। बस औरों से अलग दिखने की चाहत और झूठी नेतागिरी के कारण पूरे मुस्लिम समाज को बदनाम करवाना ही इस तरह की मांग करने वालों की शायद मंशा होती होगी। वरना, क्या कारण है कि जब कोरोना की पहली और दूसरी लहर के बीच मुस्लिम समाज के लिए सबसे पवित्र स्थल माने जाने वाले 'ख़ाना-ए-काबा' में पूर्णतया पाबंदी लगी थी, तब भी देश के अनेक कोनों से ईद-बक़रीद की नमाज़, मुहर्रम और ईद मिलादुन्नबी के जलसे-जुलूस वग़ैरह की मांग उठ रही थी। कुंभ सहित अन्य धर्मावलंबियों के तीज-त्योहारों में इकठ्ठा हुई भीड़ और पश्चिम बंगाल की चुनावी रैलियों का तर्क दिया जाता था। लेकिन मुस्लिम समाज इस बात को भूल जाता है कि उन आयोजनों पर भी समझदार और निष्पक्ष बिरादरान-ए-वतन ने सख़्ती से ऐतराज़ जताया था। जबकि मुस्लिम समाज के बुद्धिजीवियों ने मुखरता से मुस्लिम समाज की मांगों के ख़िलाफ़ उतनी सख़्ती से अपनी बात नहीं रखी थी।

मुस्लिम समाज की हठधर्मिता अक्सर उसके लिए दर्द-ए-सिर बनती रही है। पिछले लॉकडाउन में मुस्लिम समाज के कुछ ठेकेदारों ने जुमा की नमाज़ के लिए मस्जिदें खोले जाने की ज़िद की थी। रमजान के दौरान तरवीह और ईद की नमाज़ के लिए भी अनेक राज्य सरकारों और केंद्र सरकार से अनुमति मांगी गई थी। उसके पीछे किसी वैज्ञानिक या धार्मिक तथ्य या तर्क न देकर शुद्ध राजनैतिक लाभ की भावना काम कर रही थी। अख़बारों में 'छपास का रोग' लगा चुके ऐसे लोगों में गली-मोहल्ले के सी ग्रेड नेताओं के साथ-साथ कई बड़े नेता भी शामिल थे। ऐसे लोग शायद यह भूल जाते हैं कि कोई बीमारी धर्म देखकर नहीं आती। ख़ासकर जब बीमारी संक्रमण से फैलती हो। नमाज़ों या जलसे-जुलूसों में इकठ्ठा हुई भीड़ में से अगर कोई एक शख़्स भी कोरोना का कैरियर हुआ तो न जाने कितने लोगों को संक्रमित कर देगा। क्या इतनी साधारण सी बात इन लोगों की समझ में नहीं आती होगी? ख़ूब आती होगी, मगर समझदारी दिखाने में नेतागिरी के चमकने में कमी आने का भय होगा। लेकिन ऐसे मूर्खों को कौन समझाए कि धार्मिक आयोजनों के लिए मांग करने से अच्छा टीकाकरण मुहिम को तेज़ करने में, जनजागरण लाने में, स्वास्थ्य सेवाओं में सरकारी मशीनरी के साथ अलग-अलग तरीक़ों से हाथ बंटाने में अपनी नेतागिरी का उपयोग करते तो इस बीमारी से जल्द से जल्द राहत मिलने की राह आसान होती। राजनैतिक लाभ के लिए त्योहारों में मांगी जाने वाली छूट का ख़ामियाज़ा अब केरल के मुसलमानों के साथ-साथ पूरे देश के मुसलमानों को भुगतना पड़ेगा। हो सकता है इस बीमारी के वहां इस बार इस क़दर फैलने का कोई और भी कारण हो लेकिन एजेंडा तो बन गया कि मुसलमानों को घेरना है तो मुसलमानों ने ख़ुद उसकी ज़मीन तैयार करके दे दी। हालांकि पूरे देश और जहान के सारे समझदार उलेमा और मुफ़्ती हज़रात ने महामारी और वबा के दौर में इस्लामी तरीक़े से और मोहम्म्मद साहब की सीख के आधार पर नमाज़ के लिए मस्जिदों में न जाने सहित धार्मिक आयोजनों में भीड़-भाड़ से बचने के फ़तवे जारी किये थे। लेकिन उन फ़तवों से नेतागिरी पर आंच आने का ख़तरा जो होता है।

यह केवल तस्वीर का एक रुख़ है। दूसरा रुख़ थोड़ा सकारात्मक है। दरअसल यह नहीं भूलना चाहिए कि पिछले डेढ़ वर्षों में कोरोना महामारी ने ऐसा कोहराम मचाया कि संक्रमण के डर से कई अपने भी दूर होने लगे। लेकिन इन दूरियों के बीच कुछ लोग ऐसे भी रहे जो धर्म के तमाम बंधनों को तोड़ सिर्फ इंसानियत में विश्वास दिखाते रहे। देश के कई कोने में सांप्रदायिक सौहार्द और भाईचारे की मिसाल देखने को मिली। अनेक ठिकानों पर कई मुस्लिम समाजी ख़िदमतगारों ने कोविड से मौत होने के बाद अपने पड़ोसी, किसी परिचित-अपरिचित या लावारिस हिंदू भाई-बहनों का हिंदू रीति-रिवाज से अंतिम संस्कार किया। ऐसा ही नेक काम अनेक हिंदू भाइयों ने भी किया। दरअसल यही संस्कार और यही इंसानियत इस देश की रूह में बसी हुई है। ऐसे में फिर आख़िर बीमारी को भी धार्मिक एंगल क्यों दिया जा रहा है? दरअसल यह चंद कट्टरपंथी मुसलमानों में दूरदर्शिता के आभाव और सामाजिक समरसता में रचने-बसने की भावना से अलग रहने का नतीजा है। तब्लीग़ी जमात वाली घटना से मुस्लिम समाज के बड़े तबक़े को यह सबक़ लेना चाहिए था कि जब तक इस वबा से पूरी तरह निजात न मिल जाए तब तक मस्जिदों में सामूहिक नमज़ , तीज-त्यहारों में विशेष छूट और धार्मिक आयोजनों की भीड़-भाड़ से बचा जाए। मुस्लिम समाज को सर जोड़कर इस बात के लिए चिंतन-मनन करने की ज़रूरत है।



(लेखक मुंबई विश्वविद्यालय, गरवारे संस्थान के हिंदी पत्रकारिता विभाग में समन्वयक हैं। देश के प्रमुख प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं।)