इंसानियत के नायक हैं….... श्रीराम व मोहम्मद साहब / सैयद सलमान
साभार- दोपहर का सामना 23 04 2021
'हे राम तेरे नाम को हर नाम पुकारे,
बंदा ये तेरा पल-पल तेरी राह निहारे।'
अगर किसी अनजान व्यक्ति से अचानक यह सवाल किया जाए कि यह पंक्तियां किसने लिखी हैं, तो शायद अच्छे-अच्छे लोग न बता पाएं। और अगर दिमाग़ पर ज़ोर डालें भी तो यह सोच भी नहीं पाएंगे कि इन पंक्तियों का रचयिता शायद कोई मुसलमान हो। लेकिन मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के प्रति आस्था व्यक्त करती ये पंक्तियां किसी हिंदू कवि की नहीं बल्कि मुस्लिम महिला साहित्यकार डॉ. माहे तलत सिद्दीक़ी की ग़ज़ल का हिस्सा हैं। कानपुर की मुस्लिम महिला साहित्यकार डॉ. माहे तलत सिद्दीक़ी ने अपनी ग़ज़ल और नज़्मों से श्रीराम की अक़ीदत के साथ 'रामकथा और मुस्लिम साहित्यकार समग्र' का उर्दू अनुवाद भी किया है। अब तक उत्तर भारत में 'जय सिया राम', 'राम-राम' जैसे अभिवादन आम थे। राम मंदिर आंदोलन के बाद 'जय श्री राम' के नारे की गूंज में यह दोनों अभिवादन कहीं खो गए। मुस्लिम समाज 'जय सिया राम' और 'राम-राम' जैसे अभिवादन वाले शब्दों, विभिन्न स्थानों पर होने वाली रामलीलाओं, बौद्धिक रूप से सक्षम साहित्यकारों और अपने पड़ोसी हिंदू भाइयों के सहारे श्रीराम की शख़्सियत से गहरे तक परिचित था। यह कहने में संकोच या हर्ज नहीं कि मुस्लिम समाज के बीच श्रीराम के प्रति जानकारियों का अब अभाव देखने को मिलता है। डॉ. माहे तलत सिद्दीक़ी का उद्देश्य शायद यही होगा कि मुस्लिम समाज भी नए सिरे से श्रीराम के कृतित्व और व्यक्तित्व से रूबरू हो। उनकी पुस्तक में मुस्लिम साहित्यकारों ने अपनी रचनाओं से श्रीराम को अपने तरीक़े से सम्मान के साथ याद किया है।
जब पूरे देश में इधर कुछ वर्षों से धार्मिक भेदभाव और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को बढ़ावा दिया जा रहा हो, ऐसे समय में सांप्रदायिक सौहार्द्र और आपसी भाईचारे की अनूठी मिसाल पेश करते हुए एक मुस्लिम शिक्षिका का उर्दू में राम कथा लिखना किसी आश्चर्य से कम नहीं। सिर्फ़ इतना ही नहीं डॉ. माहे तलत सिद्दीक़ी ने रामचरित मानस की तमाम चौपाइयों को भी उर्दू में लिखा है और इनका भावार्थ भी लिखा है। रामायण का उर्दू में अनुवाद कर डॉ. सिद्दीक़ी ने उन लोगों तक रामायण की शिक्षा पहुंचाने का काम किया है, जो सिर्फ़ उर्दू ज़ुबान समझते हैं। रामायण का उर्दू अनुवाद करने में उन्हें डेढ़ साल का वक़्त लगा। गहराई से अगर डॉ सिद्दीक़ी को पढ़ा जाए और उनकी ज़ुबानी श्रीराम की व्याख्या हो तो यही पता चलता है कि श्रीराम महापुरुष और एक ऐसे आदर्श अवतार के रूप में सामने आते हैं जिनसे सभी को अपने जीवन में प्रेरणा लेना लाज़िमी हो जाता है। दरअसल श्रीराम को किसी ने सही से नहीं समझा और जिस किसी ने समझा, उसने आगे समझाने से न जाने क्यों परहेज़ किया। श्रीराम को केवल लड़ाई, जंग जैसी भावनाओं का एक माध्यम बना कर पेश किया गया। जबकि उनकी जीवनशैली, उनके आदर्श, उनकी वचनबद्धता, उनका न्याय, उनका समर्पण, उनका प्रेम वग़ैरह जंग के मैदान वाले श्रीराम से कहीं बड़ा है। उनके इन रूपों को कम प्रचलित किया गया जिस से न केवल बड़ी संख्या में हिंदू बल्कि मुसलमान भी अनभिज्ञ रहे। डॉ. सिद्दीक़ी के बहाने श्रीराम के इन रूपों का भी ज्ञान बड़ी आसानी से होने की उम्मीद बढ़ जाती है।
दरअसल जब तुलसीदासजी कहते हैं कि 'रामहि केवल प्रेम पियारा' यानी 'राम को केवल प्रेम प्यारा लगता है' तो यह बात भी शीशे की तरह साफ़ हो जाती है कि राम का प्रेम सब को वशीभूत कर लेता है। यह कोई अतिश्योक्ति नहीं है। श्रीराम एक भारतीय शब्द है और इस शब्द का नामधारी, हिंदू धर्मग्रंथ रामायण और रामचरित मानस का नायक है। लेकिन क्या यह किसी को पता है कि श्रीराम पर फ़ारसी में भी मुहावरे बने हैं? फ़ारसी में एक मुहावरा बहुतायत में इस्तेमाल होता है, 'राम करदन', यानी किसी को वशीभूत कर लेना, अपना बना लेना। श्रीराम की यह विशेषता है कि वह सबको अपना बना लेते हैं। तुलसीदास के ही समकालीन कवि संत रहीम ने अनेक राम कविताएं भी लिखी हैं। अकबर के दरबारी इतिहासकार बदायूनी अनुदित फ़ारसी रामायण की एक निजी हस्तलिखित प्रति रहीम के पास भी थी। इस ५० आकर्षक चित्रों वाली रामायण के कुछ खंड 'फ़ेअर आर्ट गैलरी वॉशिंगटन' में अब भी सुरक्षित हैं। कभी तुलसीदास और रहीम के आपसी संबंधों पर ग़ौर करना चाहिए। अकबर के नवरत्नों में से एक रहीम ख़ानख़ाना और तुलसीदास जी समकालीन और अच्छे मित्र थे। आज जब सियासत से ऊपर उठकर आचरण और बोध के धरातल पर रिश्तों को परखने की बात करनी हो तो रहीम ख़ानख़ाना और संत तुलसीदास का उदहारण दिया जा सकता है, जिन्होंने हिंदू-मुस्लिम सौहार्द और सौमनस्य को चरितार्थ किया था।
एक बार का वाक़या है कि अब्दुर्रहीम ख़ानख़ाना सम्राट अकबर का निमंत्रण लेकर संत तुलसीदस के पास गए। यह निमंत्रण उस दौर की सबसे बड़ी और शक्तिशाली सल्तनत की ओर से भेजा गया था। जबकि उस दौर में सम्राट की इच्छा और उसकी आज्ञा ही क़ानून था। लेकिन तुलसीदास ने सविनय निमंत्रण को यह कहकर अस्वीकार दिया कि,
'हौं तो चाकर राम को पटो लिखो दरबार,
तुलसी अब का होंयगे नर के मनसबदार।'
इस जवाब पर रहीम की जगह कोई और होता तो तुलसीदास के इनकार को निजी व्यक्तिगत मान-सम्मान का प्रश्न बनाता। आख़िर रहीम ख़ानख़ाना का अकबर के दरबार में रुतबा जो था। उसी रुतबे के वशीभूत रहीम का अहंकार विकृत और कुरूप होकर उभर सकता था, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। महामना रहीम ने इस विनम्र दृढ़ अस्वीकृति को अपनी सहमति प्रदान की।
उसी कड़ी में डॉ. माहे तलत सिद्दीक़ी जैसे लोग जब श्रीराम पर कुछ लिखते हैं तो यह ज़रूरी हो जाता है कि श्रीराम को धार्मिक आधार पर नहीं बल्कि इंसानियत के रहनुमा के तौर पर भी देखा जाए। केवल डॉ. सिद्दीक़ी या रहीम की ही बात नहीं हो रही, अनेक मुस्लिम साहित्यकारों ने श्रीराम पर कलाम लिखे हैं। शायरे मशरिक़ के लक़ब से नवाज़े गए अल्लामा इक़बाल की नज़्म 'राम' का एक अंश है जिसमें वह कहते हैं,
'है राम के वजूद पे हिंदोस्तां को नाज़,
अहले नज़र समझते हैं उसको इमाम ए हिंद।'
और श्रीराम को यह सम्मान यूं ही नहीं मिल जाता। उनकी जीवनी इसका सशक्त उदहारण पेश करती है। राम क्षत्रिय कुल में पैदा हुए, लेकिन उन्होंने ब्राह्मणों के चरणों की पूजा की। इस तरह उन्होंने जातिगत भेद मिटाया। विष्णु के अवतार होकर रामेश्वरम में शिव की स्थापना की। इस तरह संप्रदायगत भेद मिटाया। वे चक्रवर्ती राजा थे, लेकिन उन्होंने निषाद, सबरी, गीध, कोल, भील, संथाल, यवन जैसे छोटे लोगों को गले लगाकर ऊँच-नीच का भेदभाव मिटाया। मानव को मानव से प्रेम करना सिखाया। परिवार में सद्भाव बनाए रखने के लिए त्याग किया। दरअसल राम के चरित्र से किसी जाति, वर्ग, संप्रदाय के बारे में कोई एक भी शब्द नहीं निकाल सकता। तुलसीदास जी के अनुसार श्रीराम का मानव धर्म ही सर्वोपरि धर्म है।
धर्म के लिए तुलसीदास ने कुछ चौपाइयां लिखी हैं जैसे; 'धर्म ना दूसर सत्य समाना' या 'परहित सरिस धर्म नहीं भाई।' ये चौपाइयां संपूर्ण मानवता पर एक सामान रूप से लागू होती हैं, चाहे वह किसी जाति, धर्म, अथवा वर्ग का क्यों ना हो। इन चौपाइयों के पीछे के नायक श्रीराम ही तो हैं। समस्या यही हुई है कि श्री राम को हिंदुओं का आराध्य बना दिया गया जबकि वह समस्त मानव जाति का कल्याण करने ही आए थे। ठीक यही बात ईशदूत पैगंबर मोहम्मद साहब पर भी लागू होती है जिन्हें 'रहमतुल लिल आलमीन' यानी तमाम आलम के लिए रहमत बनाकर भेजा गया, लेकिन उन्हें मुसलमानों का नबी बनाकर सीमित कर दिया गया। इस अवधारणा को तोड़ने के लिए तुलसी-रहीम और रामप्रसाद बिस्मिल और अशफाक़उल्लाह ख़ान जैसी नयाब जोड़ियों के उदहारण सामने लाने होंगे तभी श्रीराम या मोहम्मद साहब को किसी एक धर्म का नहीं बल्कि तमाम इंसानियत का नायक बताया जा सकेगा। दोनों की सही शिक्षा आम करना वक़्त की ज़रूरत है।
(लेखक मुंबई विश्वविद्यालय, गरवारे संस्थान के हिंदी पत्रकारिता विभाग में समन्वयक हैं। देश के प्रमुख प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं।)