साभार- दोपहर का सामना 02 04 2021
मुस्लिम समाज के भीतर से अब कई तरह के परिवर्तन की आवाज़ें उठ रही हैं। ऐसा नहीं है कि यह परिवर्तन इस्लाम की रोशनी में कोई नया है, बल्कि यह इस्लाम का मूल ही है जो अब नए रूप में लोगों के सामने आ रहा है। रूढ़िवाद का इस्लाम से कोई वास्ता नहीं है, लेकिन अपने स्तर पर की गई इस्लाम की व्याख्या से इस्लाम का नया-नया स्वरुप सामने लाया गया। इस प्रक्रिया में सही इस्लाम कहीं पीछे छूटता गया और जो छवि इस्लाम की बनी आज वह सबके सामने है। इस्लाम एक कट्टरपंथी, रूढ़िवादी, हिंसक, महिला विरोधी और न जाने किस-किस रूप में विश्व में कुख्यात बन गया। इस्लाम की सही शिक्षा से दूर होकर ख़ास मकतब-ए-फ़िक्र का अनुयायी होने की वजह से ऐसी स्थिति बन गई। ७२ फ़िरक़ों की अवधारणा से 'मेरा इस्लाम सबसे बेहतर' का चलन चल पड़ा। और जब कोई घोषणा कर दे कि वह सबसे बेहतर है तो फिर दूसरे को गौण समझा ही जाएगा। यही मुसलमानों के साथ हुआ। हर फ़िरक़ा खुद को सही और बाक़ियों को ग़लत ठहराता रहा। न ख़ुद एक मंच पर आया न मुसलमानों की अन्य धर्मावलंबियों के साथ निकटता को प्रोत्साहन दिया। 'सबका रब' केवल मुसलमानों का रब बना दिया गया और 'रहमतुल लिल आलमीन' अर्थात सारे जग के लिए रहमत कहलाने वाले पैग़ंबर मोहम्मद साहब को मुसलमानों की जागीर बना दिया गया। ऐसे में मुसलमानों की स्थिति पूरे विश्व में क्या बन गई है यह किसी सच्चे मुसलमान से पूछा जाए तो वह ख़ून के आंसू रो देगा।
मुस्लिम समाज में अशिक्षा की वजह से सामाजिक बुराइयां पनपती रहीं इस बात से शायद ही कोई इनकार करेगा। ज़्यादा दूर जाने की ज़रूरत नहीं है। अगर हम भारत की ही बात करें तो पाएंगे कि भारत दुनिया के किसी भी देश में मुसलमानों की तीसरी सबसे ज़्यादा बड़ी आबादी वाला देश है। यहां के मुसलमानों में जितनी विविधता देखने को मिलती है वह किसी और देश के मुसलमानों में नहीं देखने को मिलेगी। हालांकि इस्लाम हमेशा एकता और एकजुटता की बात करता है लेकिन न केवल पूरी दुनिया के मुसलमान बल्कि भारतीय मुसलमान जिस तरह आपस में बंटे हुए हैं, वह इस्लाम के इस बुनियादी उसूल को ही नकारते हैं। यहां के मुसलमान, सुन्नी, शिया, बोहरा, अहले हदीस, जमात-ए-इस्लामी और न जाने कितने वैचारिक गुटों में बंटे हुए हैं। हालांकि तमाम मुस्लिम धर्मगुरु खुले आम बात करने पर इस बात से बार-बार इनकार करते हैं, लेकिन वास्तविकता यह है कि यहां के मुसलमान भी, अन्य लोगों की तरह ही अगड़े-पिछड़े की तर्ज़ पर सामाजिक बंटवारे का शिकार हैं। यहां के मुसलमान भौगोलिक दूरियों के हिसाब से भी बंटे हुए हैं और पूरे देश में इनकी आबादी बिखरी हुई है। अगर बारीकी से अध्ययन किया जाए तो ज्ञात होगा कि तमिलनाडु के मुस्लिम तमिल बोलते हैं, तो केरल में वह मलयालम, उत्तर भारत से लेकर हैदराबाद तक बहुत से मुसलमान उर्दू भाषा का इस्तेमाल करते हैं। इस बात से कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन अगर एक अल्लाह, एक क़ुरआन, एक रसूल के नाम पर एक होने की बात पर हामी भरने वाले मुसलमान भौगोलिक स्तर पर भी एक दूसरे को बड़ा-छोटा समझने लगें तो सवाल उठना लाज़िमी है। इस्लाम के असल उसूलों के ख़िलाफ़ अगर कोई बुराई गहराई तक घर कर चुकी है तो उस से उबरना निहायत ज़रूरी है।
मुस्लिम समुदाय की सबसे बड़ी ख़ूबी उसकी एकरूपता है। मुस्लिम समाज में राजा से लेकर रंक तक एक पंक्ति में नमाज़ पढ़ सकते हैं। इस्लाम की इसी ख़ूबसूरती पर अल्लामा इक़बाल ने कहा था, 'एक ही सफ़ में खड़े हो गए महमूद ओ अयाज़, न कोई बंदा रहा और न कोई बंदा-नवाज़।' यानि अल्लाह के घर में नमाज़ के लिए खड़े होने पर न कोई मेहमान रहता है और न कोई मेहमान नवाज़ी करने वाला। मुसलमानों के बीच इस शे’र को गाहे-बगाहे तब याद किया जाता है जब मुस्लिम समाज में जाति, वर्ण और ऊंच-नीच जैसी किसी व्यवस्था पर चोट करने की बात आती है। लेकिन चंद मुस्लिम धर्मगुरुओं की इस्लाम की अपने नज़रिये से की गई व्याख्या के कारण यह बात पूर्ण सत्य नहीं कही जा सकती। इस्लाम में जाति या वर्ण व्यवस्था नहीं है, यह कहना ग़लत होगा। कहने को सही, लेकिन इस्लाम की सही शिक्षा तो यही कहती है कि इस्लाम में ऊंच-नीच या भेदभाव नहीं है। इस्लाम के मानने वाले जहां पर भी हैं, एक साथ बैठकर, यहां तक कि एक थाली में भी खाना खा लेते हैं। कहने का तात्पर्य यह कि इस्लाम का सादगी पर बहुत जोर होता है, लेकिन हक़ीक़तत में मुसलमान दिखावा पसंद बनता गया। यह कहने में बिल्कुल संकोच नहीं होना चाहिए कि भारत में मुसलमानों में भी जातियां हैं और यहां के लोग अलग-अलग जातियों में बंटे हुए भी हैं। हालांकि इनका पवित्र धर्मग्रंथ क़ुरआन सर्वमान्य है, जिसमें ऐसी किसी व्यवस्था का कोई ज़िक्र नहीं है।
मुस्लिम समाज बात तो एकता की करता है जो इस्लाम का मूल है, लेकिन वह शेख, सैयद, खान, पठान, अंसारी, मोमिन, मंसूरी, सलमानी, क़ुरैशी जैसे उपनामों से ज़्यादा जाना जाता है। इन उपनामों से सहज अंदाजा लग जाता है कि फ़लां उपनामधारी किस जाति का है। जबकि इस्लाम की असल परिभाषा में यह कहीं फ़िट नहीं बैठता। मोहम्मद साहब के ज़माने में भी मुसलमान ऐसे कई पेशों से संबंधित थे, जिनके नाम पर आज बिरादरियां वजूद में आ गई हैं लेकिन उस दौर में न कोई धोबी था, न तेली, न बुनकर था, न रंगरेज़, न सैफ़ी था, न सलमानी, न राइन था, न क़ुरैशी, न कुम्हार था, न मनिहार, न घोंसी था, न कुछ और। उस वक़्त जो भी थे, सिर्फ़ मुसलमान थे। मगर आज यही बात दावे से नहीं कही जा सकती। आज का मुसलमान अशराफ़, अज़लाफ़, अरज़ाल जैसे तीन हिस्सों में बंटा है। अशराफ़ में ख़ुद को ऊंची जाति का बताने वाले अफ़ग़ान, अरब, पर्शियन या तुर्क कहलाने वाले मुग़ल, पठान, सैयद, शेख वग़ैरह शामिल हैं। इनमें ऊंची जातियों से धर्मपरिवर्तन किये हुए मुस्लिम राजपूत भी शामिल हो गए हैं। फिर आते हैं अज़लाफ़ जो गैर-सवर्ण जातियों से धर्मांतरित दर्जी, धोबी, धुनिया, गद्दी, फ़क़ीर, नाई, जुलाहा, कबाड़िया, कुम्हार, कंजरा, मिरासी, मनिहार, तेली इत्यादि शामिल हैं। और तीसरे हैं सबसे पिछड़े अरज़ाल, जो कि यहां दलित जातियों से धर्मांतरित होकर हलालख़ोर, भंगी, हसनती, लाल बेगी, मेहतर, नट, गधेरी वग़ैरह कहलाए।
एक बात शीशे की तरह साफ़ है कि सभी मुसलमान पैग़ंबर मोहम्मद साहब के प्रति बहुत आदर भाव रखते हैं। उनकी शिक्षाओं को ग्रहण करने की बात कहते हुए उनकी शिक्षा का प्रचार भी करते हैं। उस शिक्षा का आधार कहता है कि इस्लाम इंसानी समाज में सुधार के लिए आया था। इस्लाम तो अपनी जगह जैसा था बिलकुल वैसा ही रहा, लेकिन मुस्लिम समाज का लगातार चारित्रिक पतन होता रहा। सही इस्लाम को मानने वाले स्वीकार करते हैं कि मुसलमानों की सामाजिक संरचना इस्लाम और क़ुरआन के निर्देशों पर आधारित है। लेकिन इस बात को अनेक फ़िरक़े के धर्मगुरु ठीक से समझाना नहीं चाहते। हक़ीक़त यह है कि सही इस्लाम जाति व्यवस्था को बिलकुल स्वीकार नहीं करता है। सही इस्लाम के मुताबिक जन्म, वंश और स्थान के आधार पर सभी मुसलमान एक समान हैं। लेकिन मुसलमानों को व्यवहार की दृष्टि से अगर देखें तो निश्चित ही ऐसा देखने को नहीं मिलेगा। न जाने किस आधार पर मुस्लिम समाज में इस्लाम के विरुद्ध जाति व्यवस्था की जड़ें गहरे तक अपना प्रभाव बना चुकी हैं। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि अगर दुनिया के साथ-साथ भारतीय मुसलमानों को अपनी ख़राब होती स्थिति से बाहर निकलना है तो उन्हें अपनी शिक्षा के साथ-साथ अपनी एकजुटता पर ध्यान देना होगा। उन्हें जातिवाद से ऊपर उठकर सही इस्लाम के संदेश को अपनाना होगा। अगर ऐसा नहीं किया गया तो 'मुसलमानों की ग़लतियों का ठीकरा इस्लाम के सर' फोड़े जाने का सिलसिला कभी नहीं थमेगा।
(लेखक मुंबई विश्वविद्यालय, गरवारे संस्थान के हिंदी पत्रकारिता विभाग में समन्वयक हैं। देश के प्रमुख प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं।)