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धर्मांधता है बर्बादी का प्रवेशद्वार / सैयद सलमान
Friday, February 24, 2023 8:56:51 AM - By सैयद सलमान

धर्म अध्यात्म की कुंजी है। हिंसा से उसका दूर-दूर तक कोई नाता नहीं।
साभार- दोपहर का सामना 24 02 2023

एक मुल्क जो धर्म के नाम पर बना आज कंगाली के मुहाने पर खड़ा है। वह महंगाई और अन्य समस्याओं से तो त्रस्त है ही, साथ ही आपसी ख़ूनी जंग में भी मुब्तिला है। जी हां, यहां बात पाकिस्तान की हो रही है, जहां मस्जिदों तक में ब्लास्ट होते हैं। फ़िदायीन मस्जिदों में नमाज़ियों के परख़च्चे उड़ाकर न जाने किस जन्नत के दरवाज़े खटखटा रहे हैं। जबकि वहां की हालत ऐसी हो गई है कि रोज़मर्रा की चीज़ें भी आम आदमी की पहुंच से बाहर हैं। पाकिस्तान का आम शहरी आटा, दाल, चावल जैसे घरेलू सामान को तरस रहा है। पाकिस्तान अपने आर्थिक संकट से उबरने के लिए संयुक्त अरब अमीरात, चीन और अमेरिका समेत कई संस्थाओं और देशों से मदद मांगता घूम रहा है। लेकिन वहां के कट्टरपंथी अब भी अपनी शैतानी हरकत से बाज़ नहीं आते। मस्जिदों और नमाज़ियों पर हमले तो मानो उनके लिए कोई खेल हो। अभी चंद दिनों पहले ही पाकिस्तान के पेशावर स्थित एक मस्जिद में आत्मघाती हमला हुआ था। इस ज़ोरदार धमाके में सैकड़ों लोग काल का ग्रास बन गए। कराची, इस्लामाबाद वग़ैरह में भी ऐसी अनेक हृदयविदारक घटनाएं हुई हैं। धर्म को सर्वोच्च मानने वाले देश में मानवीय त्रासदी का यह मंज़र बेहद भयानक और अकल्पनीय है। लेकिन यह कहने में बिलकुल भी गुरेज़ नहीं कि पाकिस्तान ने जो बोया, वही काट रहा है।

दरअसल, पाकिस्तान की इस स्थिति का मुख्य कारण वहां के हुक्मरानों की कट्टरपंथी सोच, ओछी राजनीति, ग़लत नीतियां और दहशतगर्दी को बढ़ावा देने की मानसिकता रही है। एक दूसरे पर इल्ज़ाम लगाकर सत्ता प्राप्त करना और फिर सत्ता गंवाना और उस सत्ता को पुनः प्राप्त करने के लिए अवाम की भावनाओं से खेलना अब वहां के सियासतदानों का मुख्य शग़ल बन गया है। पाकिस्तान की भयावह स्थिति का अंदाज़ा पाकिस्तान के रक्षा मंत्री ख़्वाजा आसिफ़ के उस बयान से लगाया जा सकता है जिसमें उन्होंने ख़ुद माना है कि, 'पाकिस्तान दिवालिया हो नहीं रहा बल्कि हो चुका है और हम एक दिवालिया देश में रह रहे हैं।' एक ज़िम्मेदार मंत्री की स्वीकारोक्ति पाकिस्तान की असल कहानी बयान करती है। पाकिस्तानी पत्रकारों, बुद्धिजीवियों और सामाजिक संगठनों के प्रतिनिधियों का मानना है कि पाकिस्तान में आतंकवाद की वापसी हो गई है। आतंकवाद पाकिस्तान की नियति बन गया है। हालांकि यह तबक़ा इस बात को अब स्वीकार कर रहा है, जबकि आतंकवाद को पनाह देने वाला पाकिस्तान आज नहीं वर्षों से दहशतगर्दी को पाल पोसकर ख़ुद अपनी जड़ों को खोखला करता रहा है। दीमक की तरह हमारे मुल्क को भी उसने चाट जाने की हर मुमकिन कोशिश की है। जिसने अपने पाप को हमारे देश में पोषित करने का नापाक काम किया। कश्मीर की बिगड़ी हालत उसी की देन है। देश के विभिन्न हिस्सों में हुए बम विस्फोट में उसका हाथ रहा है। २६/११ का मामला तो आईने की तरह साफ़ है जिसमें पाकिस्तानी आतंकी क़साब को फांसी हुई। वही आतंक अब पाकिस्तान के लिए सिर दर्द बन गया है।

पाकिस्तान में मस्जिदों को निशाना बनाने का रिकॉर्ड रहा है। वहां मस्जिदों के अलावा स्कूल भी सुरक्षित नहीं हैं। कुछ वर्ष पूर्व पेशावर आर्मी पब्लिक स्कूल पर हुए आतंकी हमले में १४८ लोग मारे गए थे जिसमें से १४१ मासूम स्कूली बच्चे थे। आश्चर्य की बात तो यह है कि, दहशतगर्दी का सरग़ना पाकिस्तान अपने यहां के हर हमलों में अफ़ग़ानिस्तान का हाथ देखता है। अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान के बीच तनाव बेहद ख़तरनाक रूप ले चुका है। दोनों देशों के बीच डूरंड लाइन पर तमाम एंट्री और एग्ज़िट पॉइंट बंद कर दिए गए हैं। हालांकि कहने को दोनों देश एक ही धर्म को मानने वाले हैं। पिछले साल मार्च में एक शिया मस्जिद में धमाका हुआ था। धमाके के वक़्त मस्जिद में जुमे की नमाज़ चल रही थी। इस आत्मघाती हमले की ज़िम्मेदारी इस्लामिक स्टेट खोरासान ग्रुप (आईएस-केपी) ने ली थी। एक और समूह तहरीक-ए-लब्बैक पाकिस्तान भी मस्जिदों पर हमलों में शामिल रहता है। पाकिस्तान सरकार द्वारा प्रतिबंधित तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) भी सुर्ख़ियों में रहता है। टीटीपी के हमलों को रोकने के लिए पाकिस्तान के सैन्य नेतृत्व को अफ़ग़ान तालिबान प्रमुख हिबतुल्लाह अख़ूनज़ादा के हस्तक्षेप की मांग करनी पड़ी। क्या पाकिस्तान अपने वरदहस्त प्राप्त आतंकी संगठनों को रोकने का जिगर रखता है?

धार्मिक स्थलों को निशाना बनाने वाले दरअसल मज़हबी जुनूनी होते हैं जो जो धार्मिक कम, हिंसक और विधर्म विरोधी अधिक होते हैं। सभी धर्मों की इबादतगाहें अथवा उपासना स्थल पवित्र माने जाते हैं जहां विभिन्न धर्मावलंबी अपने-अपने मज़हब के अनुसार अपनी आस्था का सुरक्षित और स्वतंत्र तरीक़े से पालन करते हैं। एक दूसरे की इबादतगाहों का सम्मान सभी का फ़र्ज़ बन जाता है। लेकिन अब ऐसा नहीं रहा। बेधड़क जहां जिसकी लाठी चलती है वही भैंस हांक रहा है। धर्म, विश्वास और आस्था की आज़ादी एक सार्वभौमिक मानव अधिकार है, जिसमें शांति और सुरक्षा के साथ प्रार्थना करने का अधिकार भी शामिल है। किसी भी धार्मिक समूह की तरफ़ से अन्य समुदायों के ख़िलाफ़ भेदभाव, असहिष्णुता और हिंसा की बढ़ती घटनाएं चिंता की बात है। इनमें इस्लामोफ़ोबिया, हिंदू विरोध, यहूदी विरोध, ईसाइ विरोध और अन्य धर्मों, विश्वास और आस्थाओं, लिंग और नस्ल के लोगों के ख़िलाफ़ नफ़रत की घटनाएं और उनके प्रति पूर्वाग्रह रखना भी शामिल हैं। आम नागरिकों और धार्मिक स्थलों के ख़िलाफ़ सभी प्रकार की हिंसा और आतंकवाद के कृत्यों को किसी भी आधार पर बर्दाश्त नहीं किया जा सकता न ही उसे उचित ठहराया जा सकता है। इसकी कड़ी निंदा होनी चाहिए। इस तरह की गतिविधियों में शामिल लोगों को सुविधानुसार दिया जाने वाला नैतिक समर्थन भी गलत है। इस से हिंसक तत्वों का मनोबल बढ़ता है।

माना जाता है कि विभिन्न वैचारिक कारणों से हिंसा की जाती है या उसका समर्थन किया जाता है। ख़ासकर धर्म के नाम पर की जा रही हिंसा को व्यापक समर्थन मिलता रहा है। आजकल धर्म आमतौर पर सामाजिक और राजनीतिक कारकों का एक साधन बन गया है जो अशांति पैदा करने का रास्ता बनाता है। 'धर्म' और 'हिंसा' दोनों की प्रकृति जटिल हो गई है। लेकिन स्पष्ट नहीं कहा जा सकता कि धर्म हिंसा का एक महत्वपूर्ण कारण है। सभी धर्म हर तरह की हिंसा को ग़लत ठहराते हैं। हिंसा अपने आप में ही एक बहुत व्यापक अवधारणा है जिसे परिभाषित करना बेहद कठिन है क्योंकि इसका उपयोग सुविधानुसार किया जाता है। जबकि धर्म एक अमूर्त अवधारणा है जिसमें आस्था, विश्वास, प्रथाएं और उनके अपने पवित्र स्थान शामिल हैं। धार्मिक विश्वास और आस्था के बीच की कड़ी को समझाना इतना भी कठिन नहीं है। असल में सामान्य रूप से धर्म, नैतिक व्यवस्था और समाज शायद ही कभी किसी रूप में हिंसा को बढ़ावा देते हों क्योंकि हिंसा को सार्वभौमिक रूप से नापसंद किया जाता है। धार्मिक कट्टरता को प्रोत्साहन और हिंसा को सहमति देने से अशांति फैलती है, जिस से समाज और देश का नुक़सान होता है। इस तथ्य को जानते हुए भी अशांति पैदा की जाती है। धार्मिक कट्टरता का सहारा लेने वाले लोग बहुत अधिक न होते हुए भी बहुत प्रभावशाली होते हैं। इस्लाम के नाम पर हिंसा को जायज़ ठहराने वाले भी इस बात को समझें कि इस्लाम का भावार्थ ही सलामती के है। क्या फ़िदायीन हमलों से, बेक़सूर नमाज़ियों या स्कूली बच्चों को मारने से इस्लाम का नाम रोशन होता है? यही बात मॉब लिंचिंग के लिए भी कही जा सकती है। क्या उस से देश की प्रगति होती है? यही बात धर्म की लाठी चलाने वाले सभी हिंसक तत्वों पर भी लागू होती है। धर्मांधता बर्बादी का प्रवेशद्वार है। पाकिस्तान की बर्बादी का उदाहरण सामने है। धर्म अध्यात्म की कुंजी है। हिंसा से उसका दूर-दूर तक कोई नाता नहीं।



(लेखक मुंबई विश्वविद्यालय, गरवारे संस्थान के हिंदी पत्रकारिता विभाग में समन्वयक हैं। देश के प्रमुख प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं।)