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मतभेद की ख़ुराक और मुस्लिम राजनीति / सैयद सलमान
Sunday, January 15, 2023 8:25:26 PM - By सैयद सलमान

किसी के भी बयान पर सुविधानुसार अपनाया गया चयनात्मक दृष्टिकोण राजनीतिक महारथियों के लिए सुखद मौक़ा होता है
साभार- दोपहर का सामना 13 01 2023

सियासी बिसात बिछाने वालों की रणनीति के तहत इधर कई तरह के बयान देखने-सुनने को मिल जाएंगे जिनके दूरगामी परिणाम होने हैं। अलग-अलग राजनीतिक दल के नेताओं के अलावा कुछ ऐसी शख़्सियात भी हैं जिनके बयानों का असर समाज में होता है। लोग उन्हें अपनी-अपनी सुविधानुसार पढ़ते-समझते हैं। उन पर अमल की कोई गारंटी नहीं होती, लेकिन उनके बयानों पर लोगों की प्रतिक्रियाएं आती रहती हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत, जमीयत उलेमा हिंद के मौलाना अरशद मदनी जैसे कुछ महत्वपूर्ण लोगों की बातों का अवाम पर असर पड़ता है। फिर वह चाहे उनके पक्ष में हो या फिर विरोध में। मसला यही है कि ऐसी ग़ैर-राजनीतिक लेकिन राजनीति को प्रभावित करने वाली हस्तियां जब भी कोई बयान देती हैं बखेड़ा शुरू होता ही है। मीडिया का एक तबक़ा तो इस ताक में ही रहता है कि वह इनके बयानों को ले उड़े। वैसे ओवैसी बिरादरान, गिरिराज सिंह, साक्षी महाराज, साध्वी प्रज्ञा, आज़म खान जैसे राजनेताओं की कमी नहीं है जो मीडिया के लिए ख़ुराक का काम करते हैं। लेकिन लीक से हटकर दिए गए बयान तड़के का काम करते हैं।

पिछले दिनों मोहन भागवत ने यह कहकर सियासत गरमा दी कि, 'हिंदुस्तान में मुसलमानों को डरने की कोई ज़रूरत नहीं है, लेकिन उन्हें ख़ुद को सर्वश्रेष्ठ बताने की ग़लत बयानबाज़ी से परहेज़ करना होगा।' साधारण तौर पर पहली पंक्ति 'मुसलमानों में सुरक्षा का भाव' के लिए कही गई लगती है। लेकिन दूसरी पंक्ति पर कई लोगों को ऐतराज़ है। क्यों, यह वही जानें। भागवत का मानना है कि, हिंदुस्तान, हिदुस्तान ही रहना चाहिए और यहां रह रहे मुसलमानों को कोई नुक़सान नहीं है, इस्लाम को कोई ख़तरा नहीं है। वैसे मुसलमानों की तरफ़ से कौन ग़लत बयानबाज़ी कर रहा है यह भागवत ने नहीं बताया। शायद उनका इशारा कुछ ऐसे मुस्लिम नेताओं की तरफ़ रहा होगा जो कट्टरपंथी बयान देकर देश की फ़िज़ा बिगाड़ना चाहते हैं। हालांकि भागवत ने यह कहकर बात का संतुलन बनाए रखना चाहा कि, 'इस देश में रहने वाले चाहे हिंदू हों या कम्युनिस्ट, सबको इस भाव को छोड़ देना चाहिए।' लेकिन प्रतिक्रिया देने वालों को भागवत का यह बयान कम महत्वपूर्ण लगा होगा क्योंकि उस से राजनीति नहीं चमकती। मुसलमानों वाले बयान पर तो मुस्लिम नेताओं ने बिदक कर विरोध किया लेकिन हिंदुओं वाले बयान पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी गई।

किसी के भी बयान पर सुविधानुसार अपनाया गया यही चयनात्मक दृष्टिकोण राजनीतिक महारथियों के लिए सुखद मौक़ा होता है। उसी तर्ज़ पर एमआईएम चीफ़ असदुद्दीन ओवैसी ने मोहन भागवत को निशाने पर लेते हुए पूछ लिया कि, 'मुसलमानों को हिंदुस्तान में रहने या हमारे धर्म का पालन करने की अनुमति देने वाले मोहन भागवत कौन होते हैं? ' यही नहीं बल्कि सीपीएम नेता वृंदा करात ने भी भागवत के बयानों पर आपत्ति जताते हुए उसे संविधान के ख़िलाफ़, आपत्तिजनक और भड़काऊ बताया। सपा की मदद से राज्यसभा सांसद बने कपिल सिब्बल ने भी मोहन भागवत के बयान पर तंज़ करते हुए कह दिया कि, 'हिंदुस्तान हमेशा हिंदुस्तान रहे, इससे मैं सहमत हूं, लेकिन इंसान को भी इंसान रहना चाहिए।' करात, सिब्बल और ओवैसी ने अपनी-अपनी सुविधानुसार वही कहा जो विरोध में उन्हें कहना था। यही बात भागवत समर्थकों ने अलग दृष्टिकोण से देखी। भाजपा नेता शहजाद पूनावाला का कहना है कि, भागवत के संदेश का सभी को स्वागत करना चाहिए। सबका साथ और सबका विश्वास की बात कहते हुए शहजाद ने दावा किया कि, ख़ुद मुसलमान होने के नाते उन्हें मुसलमानों के लिए हिंदुस्तान से बेहतर जगह नहीं दिखती है। शहजाद ने यह बयान भागवत के बयान के समर्थन में दिया है, लेकिन उन्हें यह पता होना चाहिए कि इस देश का हर मुसलमान इस बात को भली-भांति समझता और मानता है।

एक तरफ़ आम मुसलमान रोज़ी-रोटी, शिक्षा और सुरक्षा के मुद्दे से जूझ रहा है, तब भागवत का ऐसा बयान आना मूल मुद्दों से हटकर केवल हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण को बढ़ावा देने वाला ही कहा जाएगा। राजनेताओं के लिए यह मुफ़ीद बयान है। अभी पिछले ही दिनों मुस्लिम समाज के प्रमुख धार्मिक विद्वान मौलाना अरशद मदनी ने को-एजुकेशन की नीति का मुद्दा उठाते हुए कहा था कि, यह नीति मुस्लिम लड़कियों को धर्म त्याग की ओर ले जा रही है। इस पर रोक लगाने के लिए और अधिक शिक्षण संस्थान खोलने की ज़रूरत पर उनका ज़ोर था। मदनी बिना को-एजुकेशन का मुद्दा उठाए भी अगर अधिक शिक्षण संस्थान खोलने की बात कहते तो ज़्यादा असरकारक होता। लेकिन तब उसमें मुस्लिम एंगल नहीं आता, अब आ गया है। इस्लाम ख़तरे में वाली बात ने उनके बयान को अलग दिशा दे दी है। भागवत अगर कहते कि सभी देश वासी यहां सुरक्षित हैं तो कोई बात न थी लेकिन शर्त जोड़ दी कि, मुसलमानों को वर्चस्व की बात से बाज़ आना होगा तो बात विवादित हो गई। मुद्दों की ताक में बैठे मीडिया को भी इसी में मसाला मिल गया। हिंदुस्तान में लगभग १८ करोड़ मुसलमान रहते हैं। यह दुनिया के किसी भी देश में मुसलमानों की तीसरी सबसे बड़ी आबादी है। हिंदुस्तान के मुसलमानों में जितनी विविधता, अनेकरूपता और विभिन्नता देखने को मिलती है वो किसी और देश के मुसलमानों में नहीं दिखती। मुस्लिम धर्म के अलग-अलग फ़िरक़े-तबक़े यहां की मिट्टी में रच-बस गए हैं।

इस बात में शायद ही किसी को कोई संदेह हो कि देश के स्वतंत्रता संग्राम में मुस्लिम क्रांतिकारियों, उलेमा, कवियों और लेखकों का अतुलनीय योगदान रहा है। इसी देश में डॉ. ज़ाकिर हुसैन, फख़रुद्दीन अली अहमद, डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम जैसी मुस्लिम शख़्सियात ने देश के सर्वोच्च राष्ट्रपति के पद को सुशोभित किया है। देश को आज़ाद कराने में अशफ़ाक़उल्लाह ख़ान की शहादत की कोई मिसाल है ही नहीं। कोई कैसे भूल सकता है स्वतंत्रता संग्राम के पहले मुस्लिम पत्रकार मौलवी मुहम्मद बाक़र को, जिन्हें अंग्रेज़ो ने तोप के आगे बांधकर उड़ा दिया था। मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ने स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण सेवाएं प्रदान कीं। देश के अनेक मुस्लिम नेताओं की देशभक्ति पर भी कभी कोई संदेह नहीं रहा। हां, धर्म के नाम पर बने पाकिस्तान के बंटवारे से बनी नफ़रत की दीवारों ने ज़रूर अब तक यहां के मुसलमानों को शक के दायरे में रखा है। उनकी लाख कोशिशों के बावजूद किसी भी धार्मिक-सामाजिक माहौल के बिगड़ने पर उन्हें पाकिस्तान भेजने वालों की कमी नहीं है। देश का सच्चा मुसलमान यह अच्छे से जानता है कि इस देश में रहना उनके लिए गर्व की बात है। यह किसी के एहसान से नहीं है। मुसलमानों ने धर्म के नाम पर बने देश को चुनने के बजाय हिंदुस्तान में रहना पसंद किया। 'बाय चांस' नहीं, 'बाय चॉइस' यानी संयोग से नहीं बल्कि अपनी पसंद से उन्होंने अपने हमवतन भाइयों के साथ यहीं रहना चुना। यहां के मुसलमानों ने इस देश की सांस्कृतिक विरासत को परवान चढ़ाया है। यहां की सनातन संस्कृति के साथ बेहतरीन तालमेल बिठाते हुए गंगा-जमनी तहज़ीब को अपनाया है। मुसलमान अपने हमवतन भाइयों के साथ सुरक्षित भी है और ख़ुश भी। बस उन्हें ध्रुवीकरण के जाल में न उलझाया जाए। यही बात उन्हें बेचैन कर देती है। भागवत-मदनी या अन्य शायद इस बात को समझकर भी नहीं समझ रहे कि उनकी बातों के मतलब कुछ और लिए जाते हैं। या शायद वह यही चाहते भी हों ताकि विवाद बना भी रहे और अपने-अपने समर्थकों को गाहे-बगाहे मतभेद की ख़ुराक मिलती रहे। इसी बयानबाज़ी की ख़ुराक से मुसलमानों को बचना है।



(लेखक मुंबई विश्वविद्यालय, गरवारे संस्थान के हिंदी पत्रकारिता विभाग में समन्वयक हैं। देश के प्रमुख प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं।)