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धर्म, नैतिक शिक्षा और मुस्लिम समाज / सैयद सलमान
Friday, January 13, 2023 10:17:15 AM - By सैयद सलमान

कोई शिक्षा तब तक कारगर सिद्ध नहीं होती जब तक उसे व्यवहार में न लाया जाए
साभार- दोपहर का सामना 06 01 2023

विद्यालयों और कॉलेज में क्रिसमस की छुट्टियों के पहले और बाद में ज़्यादातर या तो पिकनिक हो रही होती है, स्पोर्ट्स डे हो रहे होते हैं या फिर 'एनुअल डे' की धूम होती है। लेकिन मुंबई के ही अंग्रेजी माध्यम से जुड़े विद्यालय के एक शिक्षक ने बताया कि उनके विद्यालय में नैतिक और धार्मिक शिक्षा को लेकर अध्ययन सत्र रखा गया है, जिसमें विद्यार्थियों को सभी धर्मों से जुड़ी बातें बताई जाएंगी ताकि एक तो वे सभी धर्मों की बातों को अच्छे से समझ सकें और उनमें समभाव का विकास हो, साथ ही गलतफहमियां भी मिटें। उन्होंने मुस्लिम विद्यार्थियों को बताने के लिए कुछ इस्लामिक जानकारियां मांगीं, जिसमें हराम-हलाल को लेकर उनकी जिज्ञासा ज़्यादा थी। हालांकि मोटे-मोटे तौर पर सभी धर्म लगभग एक सी शिक्षा देते हैं। सभी धर्मों के समझदार धर्मगुरु भी सभी को यही समझाते हैं कि, उपासना की पद्धति भले ही अलग हो, लेकिन सभी धर्म एक ही मार्ग पर ले जाते हैं। सभी की मंज़िल एक है। लेकिन समस्या यही है कि ऐसे ज्ञान विद्यार्थियों तक पहुंचाने की ज़िम्मेदारी लेने से लोग कतराते हैं। हालांकि नैतिक विषयों की विशेष कक्षाओं पर ज़ोर दिया जा सकता है क्योंकि नैतिक, आध्यात्मिक या धार्मिक शिक्षा व्यक्ति के व्यवहार से संबंधित होती है। गहराई से अध्ययन किया जाए तो आसानी से समझ में आ जाएगा कि, मनोविज्ञान, समाजशास्त्र और मानव विज्ञान भी व्यवहार के ही शास्त्र हैं। लेकिन ये विज्ञान केवल मानव व्यवहार के बारे में तथ्य एकत्र करते हैं और उनकी व्याख्या करते हैं। इस प्रकार की शिक्षा में व्यवहार का मूल्यांकन होता है। बच्चों, किशोरों और युवाओं को धार्मिक और नैतिक शिक्षा देना इसलिए भी ज़रूरी है, क्योंकि इससे उनमें उत्तरदायित्व का बोध, सत्य की खोज, उत्तम आदर्शों की प्राप्ति, जीवन दर्शन की रचना, आध्यात्मिक मूल्यों की अभिव्यक्ति जैसे कई सद्गुण और अच्छी आदतें पैदा होती हैं।

सवाल यह भी उठा कि, आख़िर मुस्लिम बच्चों को क्या सिखाया जाए? क्योंकि ऐसी मान्यता है कि वह ज़्यादातर मदरसों में पढ़ते हैं और कट्टरवादी होते हैं। ऐसा नहीं है। हर मुसलमान यह समझने लगा है कि शिक्षा से दूरी और इस्लाम का मूल जहां से शुरू होता है उस ‘इक़रा’ यानी ‘पढ़ो’ को भूल जाने से उनकी स्थिति बद से बदतर हो गई है। क्योंकि वह क़ुरआन की नसीहतों को अपनाने के बजाय उन मौलवियों को मानने लगे थे, जो केवल अपना लाभ देखते रहे हैं। जिनका इस्लाम से इतना ही नाता था कि वह अरबी, फ़ारसी, उर्दू नामधारी थे और धार्मिक किताबें पढ़ रखी थीं। क़ुरआन की सही व्याख्या, भावना या गहराई में उन्होंने जाना ही नहीं चाहा। आम मुसलमान बेचारा इनके चक्कर में इस्लाम की मूल शिक्षा से हटता गया और क़िस्सों-कहानियों में उलझकर रह गया। अगर ढंग से इस्लाम की शिक्षा दी जाती तो उनका जीवन अनुशासित होता, उनके विचारों में बदलाव आता, समाज के लोगों के प्रति उनमें दया और समर्पण भाव होता, अच्छे समाज की उत्पत्ति होती और अन्य धर्मों के साथ मिल जुलकर एक प्रगतिशील समाज की स्थापना होती। लेकिन ऐसा तभी होता जब उन्हें इस्लाम से जुड़ी नैतिक शिक्षा दी जाती। चूंकि इंसान शुरू से जो सीखता है वही बनता है, इसलिए नैतिक शिक्षा बच्चों को छोटी उम्र से ही देना शुरू हो जाना चाहिए था। नैतिक शिक्षा के अभाव में बच्चों का चरित्र बिगड़ता है और वह चोरी, डकैती, लूटपाट, व्यभिचार, धूम्रपान जैसी ग़लत आदतों का शिकार हो जाते हैं। ऐसे में ज़रूरी है कि बच्चों को अधिक से अधिक नैतिक शिक्षा का पाठ पढ़ाया जाए। उन्हें इस्लामी लिहाज़ से हराम-हलाल की तमीज़ सिखाई जाए।

इस्लाम ने बहुत बारीकी से हराम और हलाल को समझाकर इंसान को नैतिक रूप से मज़बूत बनाने की शिक्षा दी है। ‘हराम’ का मतलब है हर वह अवैध काम, जिसे जिसे उचित नहीं माना गया हो और जिसके करने पर पूरी तरह से रोक हो। ‘हलाल’ के मायने हैं हर वह वैध काम, जिसकी इजाज़त हो और जो हर तरह से उचित हो। संक्षेप में कहें तो इस्लाम में जिन कार्यों को करने की इजाज़त दी गई है, वे सब ‘हलाल’ हैं और जिन पर रोक है, वे सब ‘हराम’ हैं। इस्लाम अपने अनुयायियों को अपने जीवन में पालन करने के लिए विस्तृत दिशा-निर्देशों के साथ एक आदर्श आचार संहिता प्रदान करता है। यह अलग बात है कि उसे मानता कौन है। लेकिन न मानने से कुछ बदल नहीं जाएगा। जो अच्छे-बुरे का फ़र्क़ है वह हर हाल में रहेगा। सिर्फ़ इस्लाम ही क्यों यह हर जगह रहेगा। मुसलमानों को सूअर का गोश्त खाने, शराब पीने या किसी भी नशीले पदार्थ का सेवन करने से रोका गया है। इस्लाम में हलाल और हराम का मसला सिर्फ़ खाने-पीने तक ही सीमित नहीं है बल्कि जीवन जीने के लिए तौर-तरीक़ों को भी समझाया गया है। आम बोलचाल, व्यवहार, विवाह, आचरण, वस्तुओं, कार्यों, और नीतियों आदि पर भी यही नियम लागू होता है। क़ुरआन में स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया है कि आमदनी के कौन से ज़रिए हलाल हैं और कौन से हराम हैं। पवित्र क़ुरआन कहता है कि, ‘आपको मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है लेकिन कमाई वैध होनी चाहिए।’ इसका मतलब यह है कि, इस्लाम परिवार चलाने के लिए कोई ग़लत काम करने की इजाज़त नहीं देता है। अवैध, लूटी हुई, ग़बन की हुई, क़ब्ज़ा की गई या फिर जुआ, सूदखोरी, चोरी, धोखाधड़ी, जबरन वसूली या किसी भी ग़लत तरीक़े से कमाई गई दौलत अवैध है, हराम है। कोई भी ईमान वाला जो हराम माध्यमों से कमाई हुई दौलत से लाभ उठाता है या उस पर जीवन व्यतीत करता है, वह गुनहगार है। पैग़ंबर मोहम्मद साहब का यह कौल है कि, ‘हलाल रोज़ी कमाना फ़र्ज़ इबादतों के बाद सबसे अहम फ़र्ज़ है।’ झूठ, फ़रेब, मक्कारी, धोखेबाज़ी, बेईमानी, पीठ पीछे बुराई यानी ग़ीबत, समलैंगिक संबंध, व्यभिचार, दूसरों की जासूसी, किसी पर व्यंग्य करना या मज़ाक़ उड़ाना जैसे व्यवहार इस्लाम की नज़र में नापसंदीदा से लेकर हराम कर्मों के बीच में आते हैं। इस्लाम इन बुनियादी बुराइयों से बचने की तालीम देता है।

ऐसे में ज़रूरी है कि, ऐसी छोटी-छोटी बातों को लेकर आम लोगों को जागरूक किया जाए और नैतिकता का पाठ शुरू से पढ़ाया जाए। नैतिक मूल्य किसी को भी हिंसक और अनैतिक रूप से कार्य करने की अनुमति नहीं देते हैं। बेहतर नागरिक और समाज बनाने के लिए स्कूलों और यहां तक कि कॉलेज स्तर पर भी नैतिकता सिखाना आज के दौर में महत्वपूर्ण हो गया है। बच्चों, किशोरों और युवाओं के नैतिक मूल्यों में शिक्षित होने से समाज में घटित अनेक अनैतिक समस्याओं को दूर किया जा सकता है। प्राथमिक स्तर से ही नैतिक शिक्षा को अनिवार्य कर दिया जाए तो विद्यार्थियों के राष्ट्रीय चरित्र और नैतिक चरित्र के निर्माण में भी सहायता मिल सकेगी। हर धर्म परोपकार, दया, करुणा, ईमानदारी इत्यादि मूल्यों को व्यक्ति के जीवन में महत्व देकर धर्म और नैतिकता को परस्पर पूरक बनाता है। वहीं दूसरी तरफ़, धर्म के नाम पर होने वाले दंगे, लड़ाइयां, कथित धर्मगुरुओं द्वारा यौन शोषण, धर्म का राजनीतिक उपयोग इत्यादि धर्म और नैतिकता को एक-दूसरे से दूर खड़ा कर देते हैं। अगर नैतिक शिक्षा मिले तो इस भेद को शिक्षा ग्रहण करने वाले आसानी से समझ सकेंगे। हालांकि इसके व्यावहारिक पक्ष पर भी ध्यान दिया चाहिए। क्योंकि कोई शिक्षा तब तक कारगर सिद्ध नहीं होती जब तक उसे व्यवहार में न लाया जाए।


(लेखक मुंबई विश्वविद्यालय, गरवारे संस्थान के हिंदी पत्रकारिता विभाग में समन्वयक हैं। देश के प्रमुख प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं।)