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मुस्लिम धर्मगुरुओं की तक़रीरों में हो जन-जागरण की बात ! / सैयद सलमान
Friday, October 28, 2022 - 2:36:02 PM - By सैयद सलमान

मुस्लिम धर्मगुरुओं की तक़रीरों में हो जन-जागरण की बात ! / सैयद सलमान
आज़ाद भारत में मुसलमानों को भी अन्य लोगों की भांति ही संविधान द्वारा समानता, स्वतंत्रता और न्याय प्राप्त करने के अधिकार दिये गए हैं
साभार- दोपहर का सामना 28 10 2022

अमूमन मुस्लिम धर्मगुरु अपनी बयानबाज़ियों के लिए जाने जाते हैं। मुस्लिम समाज में जितनी अच्छी भाषा शैली और अच्छा प्रवचन देने का अंदाज़ होता है, उस मुस्लिम धर्मगुरु की बड़ी इज़्ज़त और पूछ होती है। मुस्लिम धर्मगुरुओं में आलिम, फाज़िल, हाफिज़, क़ारी, मुफ़्ती जैसे सम्मानित पद होते हैं, जिनकी अलग-अलग ज़िम्मेदारियां होती हैं। सबसे ज़्यादा चर्चित मुफ़्ती होते हैं, क्योंकि वह आम जनजीवन से जुड़े फ़तवे देने की शिक्षा लेते हैं। हां, अच्छे मुक़र्रिर उलेमा की भी पूछ होती है जो इस्लामी शिक्षा को अपने सुंदर प्रस्तुतीकरण से लोगों के बीच पहुंचाते हैं। अक्सर ऐसे हज़रात के कई लोग मुरीद भी होते हैं। पीरी-मुरीदी का यह सिलसिला मुस्लिम समाज के एक विशेष वर्ग में ही मान्य है। मुस्लिम समाज के कई धड़े इस सिलसिले को स्वीकार नहीं करते हैं। अक्सर यही सवाल उठता है कि अगर इस्लाम एक है, तो उसकी अलग-अलग मान्यताएं कैसे हो सकती हैं? यही अंतर्विरोध इस्लाम को बहस मुबाहिसे का कारण देता है, विवादित बनाता है।

जहां तक बात मुस्लिम धर्मगुरुओं की है, अगर प्रतिदिन नहीं भी तो तक़रीबन प्रति शुक्रवार जुमे की नमाज़ के दौरान वह लोगों के संपर्क में आते ही हैं। जुमा में उन्हें अवाम से मुख़ातिब होने का मौक़ा मिलता है। ज्यादातर मौलवी रटी-रटाई पुरानी बातों को ही दोहराते हैं। कुछ हदीसों के सहारे पैग़म्बर मोहम्मद साहब की जीवनी और इस्लाम की अच्छाइयां बताते हैं। इस दौरान कुछ मौलवी तो बस अपने फ़िरक़े के मुसलमानों को सर्वोच्च बताने पर ही ज़्यादा केंद्रित होते हैं। कुछ बहुत समझदार और सामाजिकता को महत्व देने वाले धर्मगुरु अपने बयानों में नेकियों को समझाते हैं, उनमें बेहतर इंसान बनने का जज़्बा भरते हैं, उहें राष्ट्रप्रेम की ओर मोड़ते हैं। कुछ धर्मगुरुओं ने अपने बयानों से क्रांति लाने का भी काम किया है। जंगे आज़ादी में उलेमा देशप्रेम से जुड़ी ऐसी तक़रीरें करते थे जिनसे मुसलमानों में जोश पैदा हो। अपने हमवतन भाइयों के साथ मिल-जुलकर रहने और उनके साथ मिलकर अंग्रेज़ो से संघर्ष करने को वह प्रेरित करते थे। अनगिनत उलेमा उस दौरान शहीद हुए, जेल गए, यातनाएं झेलीं। अब वो जज़्बा कम देखने को मिलता है। हालांकि उलेमा जनजागरण का सबसे बेहतर माध्यम हो सकते हैं, क्योंकि उन्हें प्रतिदिन, पांच बार, पांच नमाज़ों में और बड़ी संख्या में जुमा की नमाज़ में बिना किसी औपचारिक आमंत्रण के अच्छी-ख़ासी जनता मिल जाती है, जिनके ज़रिए वह लोकोपयोगी संदेश देकर जनजागृति लाने का काम कर सकते हैं।

ऐसा ही एक उदाहरण इंडोनेशिया का दिया जा सकता है, जहां जलवायु परिवर्तन को लेकर जन-जागरण के लिये कोशिशें हो रही हैं। वहां जुमे की नमाज़ में उमड़ी मस्जिदों की भीड़ से लेकर रिहायशी मदरसों की क्लास तक, मौलवी हज़रात अपने प्रभाव का इस्तेमाल जलवायु परिवर्तन की आशंकाओं पर विजय पाने में कर रहे हैं। दुनिया में मुसलमानों की सबसे बड़ी आबादी इंडोनेशिया में ही पाई जाती है। इंडोनेशिया के शीर्ष मुस्लिम प्रतिनिधियों ने पिछले दिनों मिलकर ग्लोबल वॉर्मिंग के बारे में जागरूकता फैलाने और जलवायु के समाधानों को इस्लाम की शिक्षा से जोड़ने के तरीक़ों पर चर्चा की है। इसके साथ ही उन्होंने 'मुस्लिम कांग्रेस फ़ॉर सस्टेनेबल इंडोनेशिया' नामक फ़ोरम बनाकर उसमें दान देने की भी अपील की है, ताकि इन कोशिशों के लिये सरकार पर अधिक बोझ न डालते हुए समाज से ही धन की व्यवस्था हो सके। पर्यावरण के लिए अभियान चलाने वाले मुस्लिम धर्मगुरु जलवायु परिवर्तन से लड़ने और उसके बारे में लोगों की समझ बढ़ाने में अहम भूमिका निभा रहे हैं। इसके साथ ही वे सरकारों के साथ भी काम कर सकते हैं ताकि उनकी नीतियों में केवल आर्थिक विकास ना हो कर शाश्वत विकास पर भी ध्यान रहे। इंडोनेशिया के मुसलमानों पर इसका सकारात्मक प्रभाव भी पड़ा है।

ऐसा ही कुछ अब हमारे देश में भी होना चाहिए। भविष्य निर्माण के साथ-साथ हमारी साझा संस्कृति पर भी उलेमा को अपनी तक़रीरों में जगह देना चाहिए। आख़िर यह भी सामाजिक जन-जागरण का ही एक भाग है। जलवायु परिवर्तन समस्या की तरह देश में धार्मिक भेदभाव बढ़ा है। उसके इलाज में उलेमा बड़ी भूमिका निभा सकते हैं। माना जाता है कि ग़रीबी, बेरोज़गारी और अशिक्षा मुसलमानों की तीन बुनियादी समस्याएं हैं। इन विषयों पर ध्यान देने के बजाय केवल उनका राजनीतिक, सामाजिक शोषण ही हुआ है। वह महज़ वोट बैंक बनकर रह गए हैं। वर्तमान में भारत के अल्पसंख्यकों में सर्वाधिक जनसंख्या मुसलमानों की है, जो लगभग ११ से १२ प्रतिशत के बीच मानी जाती है। अंग्रेज़ी शासनकाल में ४० करोड़ जनसंख्या में से ९ करोड़ मुसलमान थे। मुसलमानों में तब आत्मसम्मान, सामाजिक सौहार्द और देशप्रेम की भावनाओं को उलेमा ने ज़बरदस्त तरीक़े से भरने का काम किया था। उसी कड़ी में अंग्रेजों के समय मुसलमानों का सर्वप्रथम संगठित आंदोलन एक धर्म-सुधार आंदोलन के रूप में शुरू हुआ था और बंगाल के मुस्लिम किसानों में भी फैला जिसने किसान विद्रोह को जन्म दिया। १८५७ के विद्रोह में मुसलमानों ने अधिक भाग लिया। रेशमी रुमाल आंदोलन और ख़िलाफ़त आंदोलन चलाया। मुस्लिम धर्मगुरुओं को ऐसे स्वर्णिम इतिहास से जुड़ी जानकारियां लोगों से साझा करनी चाहिए।

मुस्लिम समाज को एक ग़लतफ़हमी यह भी है कि आज़ाद भारत में उनके साथ भेदभाव होता रहा है। उलेमा अपनी तक़रीरों में उन्हें असुरक्षित बताने के बजाय बता सकते हैं कि, आज़ाद भारत में मुसलमानों को भी अन्य लोगों की भांति ही संविधान द्वारा समानता, स्वतंत्रता और न्याय प्राप्त करने के अधिकार दिये गए हैं। वे देश के सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक जीवन में सक्रिय रूप से भाग ले रहे हैं। डॉ. ज़ाकिर हुसैन, फ़ख़रुद्दीन अली अहमद, एपीजे अब्दुल कलाम जैसे महानुभाव देश के सर्वोच्च पद को सुशोभित कर चुके हैं। एम. हिदायतुल्लाह उपराष्ट्रपति रह चुके हैं। सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के रूप में जस्टिस हिदायतुल्लाह, एम.एच. बेग, अल्तमश कबीर कार्य कर चुके हैं। राज्यपाल के पद पर अली यावर जंग, अकबर अली खां, सादिक अली, सैयद अहमद, नजमा हेबतुल्लाह और राजदूत के पद पर एम.सी. छागला, लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष पद पर ए.आर. क़िदवई, एयर चीफ़ मार्शल के पद पर इदरीस हसन लतीफ़ और शाहबुद्दीन याक़ूब क़ुरैशी देश के मुख्य चुनाव आयुक्त पद पर कार्य कर चुके हैं। इनके अलावा भी कई नाम हैं। जम्मू-कश्मीर तो ठीक है, लेकिन महाराष्ट्र जैसे हिंदु बहुल और संस्कृति प्रेमी राज्य में भी बैरिस्टर अब्दुल रहमान अंतुले मुख्यमंत्री रह चुके हैं। केंद्र और राज्यों के सांसद, मंत्री और विधायक के रूप में और न्यायालयों के न्यायाधीश तथा भारतीय और प्रांतीय प्रशासनिक सेवा के अनेक पदों पर कई मुसलमान कार्य कर चुके हैं और वर्तमान में भी कार्यरत हैं। इन उदाहरणों से उनकी हीनभावना को दूर किया जा सकता है। उनके भीतर सकारात्मकता भरी जा सकती है। उन्हें और भी बेहतर करने के लिए प्रेरित किया जा सकता है। समाज से अलग नहीं बल्कि उन्हें समाज का हिस्सा बताकर उनको राष्ट्रनिर्माण का हिस्सा बनाया जा सकता है। यह सब मस्जिद के मिंबर से आसानी से हो सकता है। यही नहीं नेक इंसान बनने के तौर तरीक़े, स्वच्छता, सामाजिकता, सामाजिक-धार्मिक सौहार्द, व्यापार, रोज़गार, शिक्षा जैसे कई पहलुओं पर उनका मार्गदर्शन किया जा सकता है। अनेक हदीसों में उल्लेख है कि पैग़म्बर मोहम्मद साहब हमेशा दीन के साथ दुनिया को भी महत्व देते हुए जुमा के ख़ुत्बे में लोगों को जागरूक किया करते थे। काश मुस्लिम समाज और उलेमा इस बात को समझ पाते।
किसी शायर ने कहा है,
बहुत मैंने सुनी है आप की तक़रीर मौलाना,
मगर बदली नहीं अब तक मेरी तक़दीर मौलाना....
इसलिए अब मुस्लिम धर्मगुरुओं को अच्छे आमाल और जनजागृति से लबरेज़ तक़रीरों से मुस्लिम समाज की तक़दीर बदलने पर ध्यान देने की ज़रूरत है।



(लेखक मुंबई विश्वविद्यालय, गरवारे संस्थान के हिंदी पत्रकारिता विभाग में समन्वयक हैं। देश के प्रमुख प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं।)