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‘बहिष्कार’ की चोट और ‘संवाद’ का मरहम ! / सैयद सलमान
Friday, October 21, 2022 - 10:07:46 AM - By सैयद सलमान

‘बहिष्कार’ की चोट और ‘संवाद’ का मरहम ! / सैयद सलमान
गहरे धार्मिक और सामाजिक विभाजन के बीच अगर संवाद का सिलसिला आगे बढ़ता है तो नतीजे बेहतर ही आएंगे
साभार- दोपहर का सामना 21 10 2022

पिछले दिनों मुस्लिम समुदाय से जुड़ी कुछ ख़बरें दिल दुखाने वाली रहीं, तो कुछ ने सुकून पहुंचाया। एक तरफ मुस्लिम समाज के साथ तमाम रिश्ते ख़त्म करने की बातें हुईं तो पिछले दिनों शुरू हुए हिंदू-मुस्लिम संवाद को और गति मिली। एक जनप्रतिनिधि ने मुस्लिम समाज की दुकानों और रेहड़ी वग़ैरह से सामान ना लेने और उनके पूर्ण बहिष्कार करने की धमकी दी। श्रीमान भाजपा के सांसद हैं। सोशल मीडिया पर उनके राजनीतिक विरोधियों और आलोचकों ने जमकर उन पर निशाना साधा। अभी तक उनकी टिप्पणी पर भाजपा हाईकमान का कोई बयान तो नहीं आया है, लेकिन उम्मीद की जानी चाहिए कि उनकी अपनी पार्टी के नेतृत्व को भी शायद उनकी बात अच्छी नहीं लगी होगी। एक और मामला है, जिसमें मुस्लिम समाज के कुछ लोगों पर हनुमान चालीसा पढ़ने को लेकर आईपीसी की धारा २९५ ए, १५३ ए और ३४ के तहत मामला दर्ज किया गया है। इसमें एक हिंदूवादी संगठन के नेता का नाम भी शामिल है, जिन पर मुसलमानों को हनुमान चालीसा का पाठ कराने का इलज़ाम है। इन सभी पर धार्मिक भावनाएं आहत करने की धाराएं लगाई गई हैं। हालांकि हिंदू नेता का कहना है कि मुस्लिम युवकों ने अपनी स्वेच्छा से पाठ किया। वहीं एक अन्य मामले में मुस्लिम मौलवियों को ‘सामान पैक करने’ की चेतावनी दी गई। मुस्लिम मौलवियों पर ज़मीन हथियाने के आरोप लगाए गए हैं।

मुसलमानों के बहिष्कार वाले बयान के पीछे एक हत्या का मामला है, जिसमें आरोपी मुस्लिम समुदाय का है। हालांकि उस आरोपी के पड़ोसी मुसलमान भी कह रहे हैं कि, आज उसने एक हत्या की है, कल को वह हमारे बच्चों की भी हत्या कर सकता है, इसलिए आरोपी को सज़ा मिलनी चाहिए। लेकिन जिन्हें नफ़रत फैलानी है या सियासी रोटी सेंकनी है, उन्होंने मुसलमानों के बहिष्कार की बात शुरू कर लोगों को भड़काने में ही अपना हित समझा। एक तरफ़ तो यह कोशिश होती है कि, लोग एक-दूसरे के धर्मों का आदर करें, एक-दूसरे के धर्मों को जानें-समझें और दूसरी तरफ़ धार्मिक स्थल पर हनुमान चालीसा पढ़ने पर आम जनमानस की भावना को ठेस पहुंचाने और सांप्रदायिक भावनाएं भड़काने का आरोप लगता है। यह बात दीगर है कि, शायद ही यह कोई सद्भावना हेतु किया गया प्रयास हो। इसमें भी निश्चित ही कहीं न कहीं गहरी सियासी साज़िश है। क्योंकि, इस घटना के बाद मुस्लिम संगठनों को कोसा जा रहा है।

वैसे इस घटना पर मुस्लिम बुद्धिजीवियों का बयान राहत भरा है। उनका मानना है कि हनुमान चालीसा हो या जो भी कोई धार्मिक चीज़ हो, उसे कोई भी अपनी मर्ज़ी से पढ़ता है, तो उसमें कोई रुकावट नहीं है। लेकिन इसमें मुस्लिम समाज को एक पेंच यह नज़र आता है कि, हनुमान चालीसा पढ़ाने वाले के दावे के अनुसार उसने मुसलमानों से ‘पाठ करवाया’ है। संविधान में किसी से ज़बरदस्ती कोई बात कहलवाना ग़लत है। फिर चाहे यह ग़लती हिंदू करे, मुसलमान करे, ईसाई करे या चाहे कोई दूसरा नाम रखकर यह काम कराए, यह पूर्णतया ग़लत है। एक अन्य मामला भी है जिसमें मौलवियों को ‘सामान पैक करने’ की चेतावनी दी गई है। यह चेतावनी एक मस्जिद निर्माण को लेकर दी गई, जिसमें आरोप लगाया कि मुस्लिम समाज मस्जिद की आड़ में ‘लैंड जिहाद’ कर रहा है। इस दौरान लव जिहाद, लैंड जिहाद, धर्मांतरण, मंदिर विध्वंस समेत कई अन्य मुद्दों को भी वक़्त-ब-वक़्त उछाला जा रहा है।

इन घटनाओं के बीच आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत और मुस्लिम विद्वानों के बीच शुरू हुई बातचीत का सकारात्मक असर भी दिखा। इसकी शुरुआत ५ मुस्लिम बुद्धिजीवियों ने की थी। उनकी इस पहल की अब देश के कई बड़े मुस्लिम विद्वानों और धार्मिक नेताओं ने भी सराहना की है। भागवत से मिलने वाले लोगों ने पिछले दिनों जमात-ए-इस्लामी हिंद, जमीयत उलेमा-ए-हिंद और दारुल उलूम देवबंद के ज़िम्मेदारान के साथ मुलाक़ात की और इस संवाद को लेकर अपनी स्थिति स्पष्ट की। उन्हें समझाने की कोशिश की गई कि, समाज में घर करती सांप्रदायिकता और हिंदू-मुस्लिम के बीच बढ़ती दरार के बीच इस संवाद की अहमियत क्यों है। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि हमारे जैसे कई धर्मों और समूहों वाले देश में संवाद ही समस्याओं का एकमात्र समाधान है। हाँ, यह संवाद किस नीयत से हो रहा है, किसके साथ हो रहा है, कौन कर रहा है यह भी महत्वपूर्ण है। फ़िलहाल मुस्लिम राजनीतिक रहनुमाओं से ऐसे संवाद की उम्मीद बेमानी है। वह अगर करेंगे भी तो असरकारक नहीं होंगे, क्योंकि आम जनमानस में यह धारणा गहरे तक बैठ गई है कि राजनीतिक दलों से जुड़े नेताओं ने ही हिंदू-मुस्लिम के बीच की दूरियों को ज़्यादा बढ़ाया है। अब अगर मुस्लिम दानिश्वरों की बैठकें लगतार हों और पारदर्शी हों, तो किसी को शायद ही आपत्ति हो। बशर्ते, बैठकों का जो भी निष्कर्ष निकले वह संदेश हिंदू-मुस्लिम समाज में सकारात्मक रूप से पहुंचे।

ध्यान देने की बात है कि इस संवाद को लेकर मुस्लिम समाज का एक धड़ा अब भी विरोध कर रहा है। ख़ासकर एमआईएम प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी का मानना है कि, आरएसएस के साथ संवाद साधने वाले लोग मुस्लिम समाज के अभिजात वर्ग से आते हैं, जिन्हें ज़मीनी हक़ीक़त का ज्ञान नहीं हैं। जबकि देश के कुछ प्रमुख मुस्लिम संगठनों ने इस बातचीत को और आगे बढ़ाने की हिमायत की है। एक ज़माने में पाकिस्तान के राष्ट्रपति रहे जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ को भारतीय मुसलमानों के देशप्रेम से जुड़ा मुंह तोड़ जवाब देकर लोगों की प्रशंसा पाने वाले मौलाना महमूद मदनी सहित कई उलेमा ने इस बातचीत का स्वागत किया है। ऐसे लोगों की राय है कि संवाद लोकतंत्र की बुनियादी ज़रूरत है और नफ़रत के माहौल को बदलने की कोशिश के लिए ऐसी मुलाक़ातें ज़रूरी हैं। हालांकि, इन मुलाक़ातों के बीच भी कई कट्टरपंथी नेताओं के भड़काऊ भाषण जारी हैं। सार्वजनिक रैली में खुलेआम मुसलमानों के सामाजिक बहिष्कार की बात उसका एक उदाहरण है। यही नहीं, गुरुग्राम की एक मस्जिद में भीड़ का घुसना और लोगों को नमाज़ नहीं पढ़ने नहीं देना भी इसी जैसी एक कड़ी है। क्या ऐसी घटनाओं को उसी के आक्रामक अंदाज़ में रोका जा सकता है? नहीं, निस्संदेह नफ़रत न फैले, उसके लिए बातचीत ही एकमात्र रास्ता है।

इस तरह के संवाद पर अभी कुछ कहना जल्दबाज़ी है। भागवत के साथ बातचीत में शामिल एक विद्वान का भी मानना है कि इस बातचीत से उम्मीदें बहुत अधिक नहीं हैं। लेकिन गहरे धार्मिक और सामाजिक विभाजन के बीच अगर संवाद का सिलसिला आगे बढ़ता है तो नतीजे बेहतर ही आएंगे। अब संवाद की पहल करने वाले पांचों मुस्लिम विद्वानों ने इस सिलसिले को देश के अन्य हिस्सों में ले जाने की योजना बनाई है। ये लोग प्रधानमंत्री ऑफ़िस के भी संपर्क में हैं। वक़्त की नज़ाकत और ज़रूरत दोनों कहती है कि इस बातचीत के सिलसिले को आगे बढ़ाना होगा। समाज में बढ़ रहे सांप्रदायिक तनाव को कम करना होगा। देश की आबादी का बड़ा हिंदू वर्ग भी सहिष्णु है। वह नफ़रत पर यक़ीन नहीं रखता। लेकिन वह चाहता है कि मुस्लिम कट्टरपंथी भी अपना अड़ियल रवैया छोड़ें। ऐसे में ज़रूरी यह है कि संवाद धार्मिक के बजाय सामाजिक मुद्दों पर हो। तभी मुसलमानों के बहिष्कार को अधिक महत्व नहीं मिलेगा, न लव जिहाद, लैंड जिहाद जैसे मुद्दे हावी होंगे, न मस्जिदों में घुसकर नमाज़ रोकी जाएगी न ही मॉब लिंचिंग होगी, न ही दंगे होंगे। हिंदू-मुस्लिम संवाद के आधार पर ही हिंदू-मुस्लिम कट्टरपंथियों पर भी अंकुश लगेगा। मुस्लिम समाज के बीच पैर पसारने को व्याकुल कट्टरपंथी और आतंकी संगठनों को भी मुंहतोड़ जवाब दिया जा सकेगा। निश्चित ही ‘बहिष्कार’ की चोट का इलाज केवल ‘संवाद’ के मरहम से हो सकता है।



(लेखक मुंबई विश्वविद्यालय, गरवारे संस्थान के हिंदी पत्रकारिता विभाग में समन्वयक हैं। देश के प्रमुख प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं।)

@सैयद सलमान