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इंद्रिय निग्रह और नियंत्रण का नाम है रोज़ा / सैयद सलमान
Friday, April 1, 2022 - 9:29:49 AM - By सैयद सलमान

इंद्रिय निग्रह और नियंत्रण का नाम है रोज़ा / सैयद सलमान
रमज़ान आत्मशुद्धि और भक्ति का महीना
साभार- दोपहर का सामना 01 04 2022

जिस प्रकार भौतिक ऋतुओं में बसंत ऋतु होती है, उसी प्रकार रमज़ान के महीने में आध्यात्मिक जगत का वसंत मास होता है। इस्लाम की पांच बुनियादों में से एक रोज़ा भी शामिल है और इस सप्ताहांत से रमज़ान का पवित्र महीना और रोज़े शुरू हो जाएंगे। बंदे को हर बुराई से दूर रखकर अल्लाह के नज़दीक लाने का मौक़ा देने वाले पाक महीने रमज़ान की रूहानी चमक से दुनिया एक बार फिर रोशन हो जाएगी। दौड़-भाग और ख़ुदग़र्ज़ी भरी ज़िंदगी के बीच इंसान को अपने अंदर झांकने और ख़ुद को अल्लाह की राह पर ले जाने की प्रेरणा देने वाले रमज़ान का इस्तक़बाल करने के लिए अच्छा और सच्चा मुसलमान तैयार है। रोज़ा रखना हर वयस्क मुसलमान पर फ़र्ज़ है। दुनिया के हर धर्म में उपवास प्रचलित है। बस इस्लाम में शाब्दिक अर्थ के कारण उसे 'रोज़ा' कहा गया है। मिसाल के तौर पर सनातन धर्म में नवरात्र का उपवास, जैन धर्म में पर्युषण पर्व का उपवास और ईसाई धर्म में फ़ास्टिंग फ़ेस्टिवल जिन्हें फ़ास्टिंग डेज़ या होली फ़ास्टिंग कहा जाता है, ठीक उसी प्रकार इस्लाम में ३० दिन तक उपवास रखने की परंपरा है। सूरज निकलने के कुछ वक़्त पहले से सूरज के अस्त होने तक कुछ भी नहीं खाना-पीना यानी निर्जल-निराहार रहना और इबादत करते रहना ही रमज़ान महीने की विशेषता है, जिसकी इस्लाम में बहुत अहमियत है। ख़ुद अल्लाह ने क़ुरआन शरीफ़ में इस महीने का ज़िक्र किया है। दरअसल दूसरे शब्दों में कहें तो इस्लाम धर्म में रोज़ा, धर्म का स्तंभ भी है और रूह का सुकून भी। पवित्र क़ुरआन (२:१८४) में अल्लाह का आदेश है- 'और रोज़ा रखना तुम्हारे लिए ज़्यादा भला है अगर तुम जानो।' अल्लाह के इस कथन में जो बात साफ़ तौर पर नज़र आ रही है वह यही है कि रोज़ा भलाई का संदेश है। अरबी भाषा का सौम या स्याम लफ़्ज़ ही दरअसल रोज़ा है। सौम या स्याम का संस्कृत और हिन्दी में भावार्थ होगा 'संयम'। यानी रोज़ा 'संयम' सिखाता है।

बात अगर रोज़ेदार की हो तो यह समझ लेना ज़रूरी है कि हर रोज़ेदार को अपने आप को हर बुराई से बचाना है। शरीर और आत्मा को हर बुराई से रोकना है। ज़ुबान से बुरी बात नहीं कहनी है। हाथों से किसी को मारना नहीं है, चोरी-डकैती या अन्य कोई भी दूसरे बुरे काम नहीं करना है। चुग़ली करने और ख़ुदग़र्ज़ी से दूर रहना है। पैरों को बुराइयों की तरफ़ जाने से रोकना है। आंखों से बुराई नहीं देखना है। इसी तरह दिल-ओ-दिमाग़ सबको बुराइयों से दूर रखकर अपने आपको ख़ुदा की याद में मशग़ूल रखना है। शाम को जब मग़रिब की अज़ान हो तब इफ़्तार करना है। रात में रमज़ान माह में ईशा नमाज़ के साथ-साथ आयोजित की जाने वाली विशेष नमाज़ तरावीह, सूर्योदय से काफ़ी पहले सेहरी और फिर सूर्यास्त के समय मग़रिब की अज़ान के साथ इफ़्तार करना है। पूरे महीने हर रोज़ेदार को अपना यही मामूल बना लेना है। इस्लाम में इस त्योहार को काफ़ी सादगी से मनाए जाने के लिए कहा जाता है। सादगी से मनाए जाने का मतलब यह है कि, रमज़ान के दौरान वे कोई ऐसा काम न करें जिससे कि अहंकार या धूमधाम का अहसास हो। ज़कात, फ़ितरा और सदक़ा जैसे दान-पुण्य करना इस त्योहार को अलग ही ऊंचाई पर ले जाते हैं। यानी यह कहना ग़लत नहीं होगा कि रमज़ान आत्मशुद्धि और भक्ति का महीना है।

इस्लाम की मान्यता है कि रमज़ान में की गई हर नेकी का सवाब कई गुना बढ़ जाता है। यह तो शीशे की तरह साफ़ है कि इंसान जिस्म और रूह का सम्मिश्रण है। आम दिनों में इंसान का पूरा ध्यान खान-पान और अन्य शारीरिक ज़रूरतों पर रहता है। लेकिन असल चीज़ उसकी रूह है। इसी की तरबीयत और पाकीज़गी के लिए ही रमज़ान में रोज़ा रखने को कहा गया है। दिल के सुकून का ताल्लुक़ चूंकि नेकी और सत्कर्म से है, इसलिए ज़रूरी है कि इंसान नेकी के रास्ते पर चले। ऐसे में रोज़ा बुराइयों पर लगाम लगाता है और सीधी राह चलाता है। रोज़ा भूख-प्यास पर संयम के साथ ही घमंड, छल-कपट, झगड़ा, बेईमानी, बदनीयती, बदग़ुमानी, बदतमीज़ी पर भी नियंत्रण रखना सिखाता है। रोज़ा हिम्मत और हौसले के साथ-साथ सीधी राह का भी संदेश देता है। नेकनीयत से रखा गया रोज़ा अच्छे और सच्चे मुसलमान की पहचान है। रमज़ान माह में रोज़ेदार अल्लाह के नज़दीक आने की कोशिश के लिए भूख-प्यास समेत तमाम इच्छाओं को रोकता है। इस्लाम की मान्यता है कि बदले में अल्लाह अपने उस इबादतगुज़ार रोज़ेदार बंदे के बेहद क़रीब आकर उसे अपनी रहमतों और बरकतों से नवाज़ता है। अमूमन ३० दिनों के रमज़ान माह को तीन अशरों यानी १०-१० दिनों के तीन खंडों में बांटा गया है। पहला अशरा ‘रहमत’ का है। इसमें अल्लाह अपने बंदों पर रहमत की दौलत लुटाता है। दूसरा अशरा ‘बरकत’ का है जिसमें ख़ुदा बरकत नाज़िल करता है जबकि तीसरा अशरा ‘मग़फ़िरत’ का है। इस अशरे में अल्लाह अपने बंदों को गुनाहों से पाक कर देता है।

बात अगर रोज़े या उपवास की करें तो उपवास केवल भूख और प्यास का विषय नहीं है। यह मानव स्वभाव में है कि कोई जितना कम खाता है, उतना ही वह स्वयं को शुद्ध करता है और अपनी रूहानी शक्तियों को बढ़ाता है। इसलिए रोज़ा दिल की ईमानदारी से ही करना चाहिए। रमज़ान में ज़्यादा से ज़्यादा इबादत और नेक काम करना चाहिए क्योंकि अच्छे कामों में प्रगति के लिए रमज़ान सबसे उपयुक्त महीना है। पवित्र रमज़ान में अल्लाह का फ़रमान है, 'ऐ किताब (क़ुरआन पाक) के मानने वालो, रोजा तुम पर फ़र्ज़ है।' इसका मतलब यह भी है कि किताब और रोज़े को समझो। यानी क़ुरआन को समझ कर और सही पढ़ो। इसका मतलब यह है कि, पवित्र क़ुरआन ख़ुदा का कलाम है और उसको समर्पण की भावना के साथ पढ़ो। उसकी मनगढ़ंत या मनमानी व्याख्या मत करो। रोज़े को समझना सबसे बड़ी बात है। रोज़े को समझना यानी रोज़े से जुड़े एहतियात बरतना और ग़ुस्से, लालच, हवस पर क़ाबू रखना ही सच्चा रोज़ा है। सुबह सेहरी करके रोज़ा तो रख लिया मगर ज़ुबान से झूठ बोलते रहे, दिमाग़ से ग़लत सोचते रहे, हाथों से ग़लत काम करते रहे, पैरों से ग़लत जगह जाते रहे, आंखों से बुरा देखते रहे, जिस्म से ग़लत हरकतें करते रहे, ज़ेहन ख़ुराफ़ात में लगाते रहे तो ऐसा रोज़ा, रोज़ा न रहकर सिर्फ भूखा-प्यासा रहना हो जाएगा। यह रोज़ा नहीं बल्कि फ़ाक़ा कहलाएगा। उसमें आध्यात्मिकता भला कहां से आएगी।

दिल से लापरवाही का पर्दा हटाना, सृष्टि के असली मक़सद की ओर लौटना, पिछले ग्यारह महीनों में किए गए पापों के लिए माफ़ी मांगना और उन ग़लतियों को न दोहराने का प्रण लेना रमज़ान महीने का मुख्य मक़सद है। रमज़ान के पवित्र महीने में हर मुसलमान को अगले ग्यारह महीनों में, सर्वशक्तिमान ईश्वर की महानता और कृपालुता को याद करते हुए, जहन्नम में जवाबदेही की भावना के साथ, प्रार्थना और पाप न करने का जुनून पैदा करना चाहिए, जिसे 'तक़वा' कहा जाता है। इस तरह की आध्यात्मिकता से ही रमज़ान की सच्ची भावना और उसके माध्यम से ज्ञान का प्रकाश और आशीर्वाद प्राप्त होगा। अन्यथा यही होगा कि रमज़ान का महीना भी अन्य महीनों की तरह आएगा, चला जाएगा और मुसलमान इसका ठीक से लाभ भी नहीं उठा पाएंगे। रूहानी तौर पर मन-मस्तिष्क खाली रहेंगे जैसे हमेशा खाली रहा करते हैं। रमज़ान को असल रूप में अगर समझा जाए और उसका पालन किया जाए तो मानव-निर्मित कई बुराइयों को ख़त्म किया जा सकता है। आतंकवाद, हिंसा, ख़ून-ख़राबा, कट्टरवाद जैसी कई बुराइयां इससे ख़त्म हो सकती हैं क्योंकि रोज़ा इंद्रिय निग्रह और नियंत्रण का नाम है।


(लेखक मुंबई विश्वविद्यालय, गरवारे संस्थान के हिंदी पत्रकारिता विभाग में समन्वयक हैं। देश के प्रमुख प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं।)