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शरीयत, हक़ीक़त और मुसलमान / सैयद सलमान
Friday, December 24, 2021 - 9:23:27 AM - By सैयद सलमान

शरीयत, हक़ीक़त और मुसलमान / सैयद सलमान
इस्लामी शरीयत के लिए मरने-मारने वालों को सोचना होगा कि इस्लाम कहना क्या चाहता है और हक़ीक़त में मुसलमान समझ क्या लेता है
साभार- दोपहर का सामना 24 12 2021

इस्लाम को लेकर तरह-तरह की मान्यताएं हैं। कोई इसे शांति का मज़हब बताता है कोई इसे आतंक का पर्याय। इसके पीछे की वजह है कि पैग़ंबर मोहम्मद साहब, कुरआन और इस्लाम से जुड़ी हर बात को विभिन्न काल में विभिन्न उलेमा ने अपनी सोच और समझ के अनुसार अपने विचारों के अनुरूप आम मुसलमानों को समझाया है। अब जब विभिन्न मकतब-ए-फ़िक्र के उलेमा अपने हिसाब से दीन का विश्लेषण करेंगे तो दीन के अलग-अलग रूप देखने को मिलेंगे ही। सही इस्लाम की परिभाषा के अनुसार इस्लाम को समझने के लिए और ज़िन्दगी जीने के लिए के लिए एक अल्लाह की हिदायत को समझना ज़रूरी है। इस्लाम की सही शिक्षा और हिदायत क़ुरआन और मोहम्मद साहब की शिक्षाओं से मिलते हैं। अगर मुसलमान इन हिदायतों पर अमल करे तो एक ऐसे समाज के निर्माण का मार्ग प्रशस्त होता है जिसमें तमाम इंसानों को अल्लाह का बंदा और एक ही रब की मख़लूक़ समझा जाएगा, जहां रंग, जाति, लिंग आदि के आधार पर भेदभाव की कोई संकल्पना नहीं है। आसान शब्दों में कहा जाए तो अल्लाह की इबादत, क़ुरआन पर अमल और पैग़ंबर मोहम्मद साहब को अनुकरणीय मानना ही ईमान की निशानी है।

अक्सर इस्लाम की हक़ीक़त और शरीयत में लोग भ्रमित हो जाते हैं। इस्लामी क़ानून को शरीया क़ानून या शरीयत कहा जाता है। इस्लामी शरीयत में मर्द और औरत दोनों को हलाल रोज़ी के आधार पर अपनी संपत्ति बनाने और रखने, कारोबार या नौकरी करने, अपने श्रम का मेहनताना पाने और अपने धन को अपनी इच्छा से खर्च करने का अधिकार होता है। कुछ उलेमा महिलाओं की रोज़ी और कारोबार को उचित नहीं मानते लेकिन शरीयत में औरतों को किसी भी जायज़ और उचित तरीक़े से धन कमाने की पूरी इजाज़त है। उम्मुल मोमिनीन हज़रत ख़दीजा का उदाहरण सामने है कि, वह एक आला दर्जे की कारोबारी थीं और उनके व्यापार की दूर-दूर तक ख्याति थी। अगर इस्लाम में महिलाओं को कमाने की इजाज़त न होती तो मोहम्मद साहब के बाद सबसे पहले ईमान लाने वाली ख़ातून को क्या यह नहीं पता होता? लेकिन इसी के साथ-साथ इस्लाम में धन पर महिलाओं का अपना कितना भी अधिकार क्यों न हो, महिलाओं का ख़र्च उठाने की ज़िम्मेदारी पुरुष पर ही होती है। यह भूमिका किसी की भी हो सकती है। चाहे उसका ख़र्च उठाने वाला उसका पिता हो, भाई हो, पति हो या दूसरा कोई भी क़रीबी रिश्तेदार हो। शरीयत के मुताबिक़ इस्लामी मुल्कों में किसी महिला का ख़र्च उठाने वाला अगर कोई रिश्तेदार भी न हो तो उस स्थिति में उसके ख़र्च की ज़िम्मेदारी सीधे सरकार पर होती है। शरीयत के मुताबिक़ महिलाओं को एक प्रकार का पेंशन दिया जाना चाहिए।

अगर ग़ौर से देखा जाए तो इस्लाम में महिलाओं को बेइंतेहा सम्मान देने की बात कही गई है। शरीयत के क़ानून वाली इस्लामी सरकारों के लिए ज़रूरी होता है कि वह महिलाओं को अधिक से अधिक सम्मान दें। इस्लाम में उनके सम्मान की पूरी सुरक्षा करने और उनका यौन उत्पीड़न करने वालों को कड़े से कड़े दंड देने का भी प्रावधान होना जरूरी है। शरीयत के अनुसार महिलाओं को बुर्क़ा पहनने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता लेकिन उनसे शालीन लिबास पहनने की अपेक्षा की जा सकती है। यह इतना पेचीदा और नाज़ुक मुद्दा है जिस पर अनेकों बार बहस-मुबाहिसे होते रहते हैं। किसी भी इस्लामी मुल्क के लिए ज़रूरी है कि मुस्लिम महिलाओं को शरीयत के अनुसार कपड़े पहनने और हिजाब का पाबंद बनाने के प्रयास तो हो सकते हैं, लेकिन ग़ैर-मुस्लिम महिलाओं को इसके लिए क़त्तई मजबूर नहीं किया जा सकता। उन्हें शालीन तरीक़े से अपनी पसंद के कपड़े पहनने, सजने-संवरने की पूरी इजाज़त देनी होगी। अगर नग्न या अर्धनग्न कपड़ों में बाहर निकलने की अनुमति दी जाती है तो इसे नैतिक रूप से अनुचित ही कहा जाएगा। यह केवल इसलिए कि महिलाओं का सम्मान बढ़े और उनकी तरफ़ बुरी निगाहों से देखने वालों का उत्साहवर्धन न हो।

इस्लाम के अनुसार समाज के सभी कमज़ोर और असहाय लोगों को मदद मिलनी चाहिए। अनाथ, बूढ़े, अपंग या और किसी वजह से अक्षम लोगों को एक सम्मानित स्तर का जीवन देने की ज़िम्मेदारी भी समाज पर होती है। शरीयत में कुछ ऐसा प्रावधान कर दिया गया है कि हर मालदार व्यक्ति पर कम से कम एक शरई टैक्स रूपी ज़कात को फ़र्ज़ कर दिया गया। इस्लामी मुल्क हो, राजशाही हो या प्रजातांत्रिक देश हो जहां भी मुसलमान रह रहे हैं उनपर कुल संपत्ति का २.५ प्रतिशत वार्षिक के हिसाब से ज़कात अदा करना फ़र्ज़ है। यानी अगर किसी मुसलमान के पास तमाम ख़र्च करने के बाद १०० रुपये बचते हैं तो उसमें से २.५ रुपये किसी ग़रीब को देना ज़रूरी होता है। इसके अलावा ग़रीबों की मदद के लिए फ़ितरा और सदक़ा देने का भी प्रावधान रखा गया है। इस्लाम के मुताबिक़, जिस मुसलमान के पास भी इतना पैसा या संपत्ति हो कि उसके अपने ख़र्च पूरे हो रहे हों और वो किसी की मदद करने की स्थिति में हो तो वह दान करने का पात्र बन जाता है। यह दान ज़कात, फ़ितरा या सदक़े के रूप में बिना किसी भेदभाव के ख़ासकर ग़रीबों, विधवा महिलाओं, अनाथ बच्चों या किसी बीमार और कमज़ोर व्यक्ति को दी जाती है।

इस्लाम के अनुसार हमेशा एक बेहतर समाज बनाने का प्रयत्न करते रहना भी एक तरह का सदक़ा ही है, जिसमें व्याभिचार, भ्रष्टाचार, फ़ितना-फ़साद और ग़लत धंधे-कारोबार की कोई अनुमति नहीं होनी चाहिए। कुछ मामलों को लेकर शरीयत के क़ानून थोड़े सख़्त हो सकते हैं जैसे कि शराब का कारोबार न हो, वेश्यावृत्ति या सेक्स से जुड़ा व्यापार न हो, ब्याज मुक्त आर्थिक और बैंकिंग व्यवस्था विकसित हो, विवाह केवल मर्दों और औरतों के बीच ही मान्य हो वग़ैरह-वग़ैरह। लेकिन इसके पीछे छुपे नैतिक फ़ायदों को पूरी तरह नकारा भी नहीं जा सकता। पहले की सख़्ती को अगर देखा जाए तो फ़िल्म देखने तक की अनुमति नहीं थी, लेकिन अब किसी भी थिएटर से निकलते दाढ़ी-टोपी वाले मर्द या बुर्क़ा-हिजाब पहने ख़वातीन को देखकर कोई नाक भौं नहीं सिकोड़ता। अब तो कई इस्लामी मुल्कों में नैतिकता को बढ़ाने वाले मनोरंजन से जुड़े कार्यक्रम करने या फ़िल्म बनाने की अनुमति आसानी से मिल जाती है। हां, यह अलग बात है कि अनैतिक फ़िल्में बनाने की अनुमति किसी भी सूरत में नहीं मिल सकती। और यह कोई बुरी बात भी नहीं है क्योंकि कई प्रजातांत्रिक देशों में इसी से मिलते-जुलते क़ानून पर अमल किया जाता है।

दरअसल इस्लाम की बिगड़ी छवि को सुधारने की ज़िम्मेदारी मुसलमानों को ही उठानी होगी। कोई आख़िर क्यों आपके किए पापों का हिसाब दे। इसके लिए अभिव्यक्ति और आस्था की आज़ादी के साथ-साथ लोकमत बनाने के लिए प्रचार और संचार करने की आज़ादी में यक़ीन रखने वाली आज की उदार दुनिया को इस्लाम के हर पहलू को समझना होगा। हमारे देश में मुस्लिम जनसंख्या लगभग २० करोड़ है जिसका राजनीति में प्रतिनिधित्व बेहद कम है। सार्वजनिक क्षेत्र और सरकारी नौकरियों में भी इसका प्रतिनिधित्व कम है और माना जाता है कि भारत के अन्य धार्मिक समूहों की तुलना में मुस्लिमों का जीवन स्तर भी नीचा है। सच्चर कमिटी ने भी इस बात का ख़ुलासा किया है। इतने सब के बावजूद मुस्लिम समाज सकारात्मक सोच के साथ आगे बढ़ने के लिए न जाने क्यों तैयार नहीं होता। इस्लामी शरीयत के लिए मरने-मारने वालों को सोचना होगा कि इस्लाम कहना क्या चाहता है और हक़ीक़त में मुसलमान समझ क्या लेता है। इस्लाम और मुसलमानों के ख़िलाफ़ दुष्प्रचार करना अगर पूरी दुनिया में एक फैशन बन गया है तो इस से बाहर निकलने के लिए मुसलमानों को पहले बेहतर इंसान बनकर सामने आना होगा।



(लेखक मुंबई विश्वविद्यालय, गरवारे संस्थान के हिंदी पत्रकारिता विभाग में समन्वयक हैं। देश के प्रमुख प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं।)