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खोलें सोच और मस्जिद के दरवाज़े / सैयद सलमान
Friday, December 17, 2021 - 9:15:35 AM - By सैयद सलमान

खोलें सोच और मस्जिद के दरवाज़े / सैयद सलमान
मस्जिदों में संवाद करने से आने वाले ग़ैर-मुस्लिम भाई इस्लाम के बारे में अपनी सारी शंकाएं दूर कर सकेंगे
साभार- दोपहर का सामना 17 12 2021

कुछ वर्ष पहले मुस्लिम समाज ने एक बहुत अच्छी पहल की थी। न जाने क्यों उस पर विराम लग गया है। या फिर इक्का-दुक्का कहीं ऐसे कार्यक्रम हो भी रहे हों तो उसका कहीं जिक्र देखने-सुनने को नहीं मिलता। वह कार्यक्रम था, मुसलमानों द्वारा मस्जिदों में ग़ैर-मुस्लिमों को आमंत्रित करना, उन्हें मस्जिदों के बारे में जानकारी देना, दीन से जुड़े हुए किसी भी मसले को समझाना और मुसलमानों के प्रति किसी भी तरह की ग़लतफ़हमी को दूर करना। उन्हें यह बताना कि मस्जिद भी एक इबादतगाह ही है, जहां सभी धर्मानुसार समझाए गए केवल सबके पालनहार रब की इबादत की जाती है, इस्लाम में उसी परमेश्वर को संबोधित किये जाने वाले अल्लाह की शान में नमाज़ पढ़कर उसे याद किया जाता है और उसके प्रति शुक्र अदा किया जाता है कि, उसने जो भी जीवन दिया वह उसी के लिए और उसके द्वारा निर्मित मानव सहित तमाम प्राणियों की सुरक्षा के लिए समर्पित है। ग़ैर-मुसलमानों को मस्जिद में आने के लिए आमंत्रित करना इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि, कुछ नामधारी इस्लामी कट्टरपंथी संगठनों ने इस्लाम की छवि को धूमिल कर दिया है। मस्जिदों में संवाद करने से आने वाले ग़ैर-मुस्लिम भाई इस्लाम के बारे में अपनी सारी शंकाएं दूर कर सकेंगे। उनके दिलों में मुसलमानों और इस्लाम के प्रति बसी इसी ग़लतफ़हमी को ख़त्म करना बेहद ज़रूरी है।

आख़िर इस्लाम है क्या? अरबी शब्द 'इस्लाम' का मूल अर्थ और भावार्थ है आज्ञापालन, सलामती और शांति। यानी सृष्टि के सृजनकर्ता के आदेशानुसार जीवन जीने का मार्ग। इस्लाम की आज्ञा का पालन करने वाले इस्लाम के अनुयायी को 'मुस्लिम' कहते है। गहराई से इस बात को अगर समझा जाए तो इस्लाम कोई ख़ास युग, ख़ास जगह या ख़ास क़ौम का धर्म नहीं बल्कि हज़ारों सालो से हर ज़माने, हर प्रदेश में जो लोग भी सच्चे दिल से एक ईश्वर के आदेशों का पालन करते रहे हैं, उन तमाम लोगों का धर्म है। इसकी परिभाषा स्थान, काल, पात्र के हिसाब से अलग-अलग हो सकती है, लेकिन मानवता के संदेश से सभी को एकजुट करती है। मुसलमानों द्वारा इस मिथ्या को भी दूर करना ज़रूरी है कि नबी, रसूल और पैग़ंबर जैसे विशेषणों से संबोधित किए जाने वाले मोहम्मद साहब इस्लाम को शुरू करने वाले या उसके प्रवर्तक नहीं बल्कि, अल्लाह के सबसे आख़िरी पैग़ंबर यानी संदेशवाहक हैं। सामान्य शब्दों में उन्हें ईशदूत कहा जाता है। मोहम्मद साहब ने तमाम मानव जाति को इंसानियत और मानव जीवन पद्धति की शिक्षा को बहुत ही गहराई, सुंदरता और आख़िरी स्वरूप के साथ समझाने का काम किया। इतना ही नहीं पवित्र धर्मग्रंथ क़ुरआन में कई जगह यह उल्लेख है और मोहम्मद साहब की शिक्षा भी यही बताती है कि हर ज़माने और हर युग में धरती के अलग-अलग देशों ओर हिस्सों में अलग-अलग वर्गों में अल्लाह की तरफ़ से पैग़ंबर यानी पैग़ाम देने वाले संदेशवाहक या ईशदूत का आना होता रहा है। इन तमाम पैग़ंबरों ने मानवजाति को सिर्फ़ एक पालनहार के आज्ञापालन, शांति और सलामती का संदेश दिया है।

अमन और शांति का धर्म होने के बावजूद इस्लाम को लेकर समाज में फैली नकारात्मकता के पीछे का सबसे बड़ा कारण दूसरे मज़हब के लोगों तक इस्लाम के रहन-सहन और इबादत करने के तौर-तरीक़ों के बारे में कोई जानकारी नहीं पहुंच पाना है। होना तो यह चाहिए कि ग़ैर-मुस्लिम भाइयों को मस्जिद में बुलाकर उन्हें नमाज़ का मक़सद, पांच वक़्त की नमाज़, जुमा, ईद, तहज्जुद, सदक़ा, ज़कात, जनाज़े की नमाज़ और हज वग़ैरह के बारे में बताया जाए। जब मुंबई सहित महाराष्ट्र के कई इलाक़ों और गुजरात के भी कई जिलों में इस तरह के कार्यक्रमों की श्रृंखला शुरू की गई थी तो ग़ैर-मुस्लिम भाइयों की उत्सुकता देखते ही बनती थी। मस्जिद को जानिए कार्यक्रम में आए लोग वज़ू करते और नमाज़ पढ़ते मुसलमानों को देखते, नमाज़ में क्या पढ़ा जाता है जैसे सवाल पूछते, एक ही सफ़ में 'महमूद-ओ-अयाज़' या अमीर से अमीर और ग़रीब से ग़रीब नमाज़ के लिए कंधे से कंधा मिलाकर कैसे खड़े होते हैं जैसी जानकारी लेते और दुआ कैसे होती है जैसे सवाल करते। उनमें यह जानने की उत्सुकता होती कि, अगर इतनी समानता और आध्यात्मिकता इस मज़हब में है, तो सड़कों पर हिंसा फैलाते, मज़हब के नाम पर आतंकवाद का समर्थन करते या जिहाद के नाम पर बेक़सूरों का ख़ून बहाने वाले कौन हैं? तब उनकी ग़लतफ़हमियों को दूर करना ही ऐसे कार्यक्रमों की सार्थकता को साबित करता है। तब ग़ैर-मुस्लिम मस्जिदों से जवाब लेकर निकलते और उन्हें समझ में आ जाता कि दरअसल इस्लाम है क्या और मुट्ठी भर मुसलमानों ने उसे बना क्या दिया है।

दुर्भाग्यवश आज के दौर में इस्लाम और मुसलमानों को लेकर एक अजीब सा भय का वातावरण तैयार किया गया है। ऐसा समझा जाता है कि इस्लाम में बहुत सी ग़लत चीज़ें हैं और सभी मुसलमान आतंकवादी होते हैं। उदाहरणतः, एक बहुत बड़ा मिथ है कि मुसलमान मस्जिदों में हमेशा हथियार रखते हैं। ऐसे में इस शक को दूर करना भी मुसलमानों की ही ज़िम्मेदारी है। इस शक को दूर करने के लिए मस्जिद के ज़िम्मेदारों को मस्जिदों की सारी अलमारियों सहित सारे कमरों के हर कोने को खोलकर ग़ैर-मुस्लिम भाइयों को दिखाना चाहिए। मुसलमानों के इस क़दम से शक करने वाले ग़ैर-मुस्लिम भाइयों को पूरी तसल्ली हो जाएगी। वह भी ऐसा नहीं कि किसी ख़ास कार्यक्रम के दौरान, बल्कि जब चाहें तब। कुछ मुसलमानों को शायद यह खुलापन नागवार गुज़रे, लेकिन यही ग़लतफहमी को दूर करने का सबसे सरल और कारगर तरीक़ा है। छुपाने से जिज्ञासा बढ़ती है, शक गहराता है, जबकि सब कुछ खोलकर बता देने से शक-ओ-शुब्हे की गुंजाईश ख़त्म हो जाती है। मज़े की बात यह है कि इस्लाम ख़ुद इसकी इजाज़त देता है कि, अल्लाह, उसके नबियों और क़ुरआन से जुड़ी सभी जानकारी किसी भी भेदभाव के बिना सबसे साझा किया जाए ताकि लोग सच्चाई से वाक़िफ़ रहें। हां, यह बात भी सही है कि ऐसी पहल करने से इस बात का डर बना रहता है कि सामने वाला इसे स्वीकार करेगा या नहीं। फिर यह भी डर होता है कि खुद अपना समुदाय और समाज क्या सोचेगा। शायद यही अहम समस्या है। लेकिन, जब तक मुस्लिम समाज ग़ैर-मुस्लिमों को अपनी मस्जिदों में नहीं बुलाएंगे, अपने धार्मिक कार्यक्रमों का न्योता नहीं देंगे, जब तक उन्हे अपने तौर-तरीक़े नहीं बताएंगे, अपनी सोच के दरवाज़े नहीं खोलेंगे तब तक उन्हें पता ही नहीं चलेगा कि इस्लाम की मूल शिक्षा क्या है। और ऐसा न हो पाने की सूरत में दूरियां बनीं रहेंगी।

चरमपंथ से लड़ने और विश्व में इस्लाम की छवि में सुधार करने के प्रयास के तहत ही शायद सऊदी अरब जैसे महत्वपूर्ण इस्लामी मुल्क ने भी जेद्दाह की अल-रहमा, अल-तक़वा, किंग फ़हद और किंग सऊद जैसी चार मस्जिदों में ग़ैर-मुसलमानों को प्रवेश की अनुमति दे रखी है। मुस्लिम बुद्धिजीवी और उदारवादी मुस्लिम उलेमा भी कहते रहे हैं कि ग़ैर-मुस्लिमों का मस्जिदों में प्रवेश इस्लाम के ख़िलाफ़ नहीं है और न ही यह शरिया का उल्लंघन है। मोहम्मद साहब के दौर में यह होता ही था। जिस तरह के नकारात्मक माहौल में आज समाज पहुंच गया है, वहां ज़रूरत इस बात की है कि, अलग-अलग आस्थाओं के लोग साथ आएं और एक दूसरे के प्रति जो भी ग़लतफ़हमियां हैं, उन्हे दूर करें। सामाजिक एकता और भाईचारे के लिए यह बेहद ज़रूरी है। ग़ैर-मुस्लिमों को भी मस्जिद में मुसलमानों से मिलकर उन्हें जानने की कोशिश करनी चाहिए और आपसी सौहार्द को बढ़ावा देने वाले इस क़दम का दिल से समर्थन करना चाहिए।



(लेखक मुंबई विश्वविद्यालय, गरवारे संस्थान के हिंदी पत्रकारिता विभाग में समन्वयक हैं। देश के प्रमुख प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं।)