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जयंती विशेष: आज भी हैं प्रासंगिक मौलाना आज़ाद / सैयद सलमान
Friday, November 12, 2021 - 10:22:39 AM - By सैयद सलमान

जयंती विशेष: आज भी हैं प्रासंगिक मौलाना आज़ाद / सैयद सलमान
जिन महत्वपूर्ण शिक्षण संस्थानों की मौलाना आज़ाद ने नींव रखी वह आज भी देश के शैक्षणिक और तकनीकी विकास की परिचायक हैं
साभार- दोपहर का सामना 12 11 2021

११ नवम्बर को देश के महान स्वतंत्रता सेनानी मौलाना अबुल कलाम आज़ाद की जयंती मनाई गई। शिक्षा के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले देश के पहले शिक्षा मंत्री मौलाना अबुल कलाम आज़ाद की स्मृति में उनकी जयंती को देश में 'राष्ट्रीय शिक्षा दिवस' के रूप में मनाया जाता है। मौलाना आज़ाद की जयंती के बहाने उनका ज़िक्र इसलिए भी ज़रूरी है,क्योंकि मुस्लिम समाज के कुछ कट्टरपंथी तत्वों की करतूतों के नाम पर जब आम मुसलमानों को भी देशद्रोह से जोड़ा जाता है तब मौलाना आज़ाद जैसी शख़्सियात के उदाहरण ही देशप्रेमी मुसलमानों का संबल बनते हैं। महान स्वतंत्रता सेनानी कहे जाने वाले मौलाना आज़ाद का आज़ादी की लड़ाई में बड़ा योगदान रहा। बंटवारे के दौरान सांप्रदायिक तनाव को शांत करने में भी उनकी ख़ास भूमिका रही। यह मौलाना आज़ाद ही थे जो अल्पसंख्यकों को भरोसा दिलाने में कामयाब रहे कि 'यह देश तुम्हारा है और इसी देश में तुम रहो।' एक संयोग यह भी है कि ११ तारीख को पैदा होने वाले मौलाना आज़ाद जब मात्र ११ साल के थे तभी उनकी माता का देहांत हो गया। उनकी आरंभिक शिक्षा इस्लामी तौर-तरीक़ों से हुई। घर पर और मस्जिद में उन्हें उनके पिता और बाद में अन्य विद्वानों सहित अनेक मौलवियों ने पढ़ाया। शायद शिक्षा के प्रति समर्पण का भाव उनमें वहीं से जागृत हुआ।

मौलाना आज़ाद शिक्षा को लेकर बहुत गंभीर थे। उनका मानना था कि अंग्रेजों के जमाने में मिलने वाली शिक्षा में संस्कृति को सही तरीके से शामिल नहीं किया गया है। शिक्षामंत्री बनने पर उन्होंने पढ़ाई-लिखाई और संस्कृति के मेल पर विशेष ध्यान दिया। मौलाना आजाद की अगुवाई में १९५० के शुरुआती दशक में 'संगीत नाटक अकादमी', 'साहित्य अकादमी' और 'ललित कला अकादमी' का गठन हुआ। इससे पहले वह १९५० में ही 'भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद' बना चुके थे। 'केंद्रीय शिक्षा बोर्ड' के चेयरमैन रहते हुए उन्होंने केंद्र और राज्य के स्तर पर शिक्षा का उल्लेखनीय प्रसार किया। उन्होंने आज़ाद भारत में धर्म, जाति और लिंग से ऊपर उठ कर १४ साल तक सभी बच्चों को निःशुल्क और अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा दिए जाने की ​सख़्ती से वकालत की। जिस दौर में मुस्लिम समाज महिलाओं की शिक्षा के प्रति उदासीन रु​ख़ रखता था उस दौर में अबुल कलाम आज़ाद ने महिला शिक्षा को ख़ास अहमियत दी। उनकी पहल पर ही १९५६ में 'यूनिवर्सिटी ग्रांट कमीशन' की स्थापना हुई थी। बतौर शिक्षामंत्री मौलाना आज़ाद ने कन्याओं की शिक्षा, व्यावसायिक प्रशिक्षण, कृषि शिक्षा और तकनीकी शिक्षा जैसे सुधारों की न सिर्फ़ हिमायत की बल्कि उसको अमली जामा पहनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। मौलाना आज़ाद परंपरागत शिक्षा के हिमायती होने के साथ-साथ एक दूरदर्शी विद्वान भी थे। उन्होंने १९५० के दशक में ही सूचना और तकनीक के क्षेत्र में शिक्षा पर ध्यान देना शुरू कर दिया था। शिक्षामंत्री के तौर पर उनके कार्यकाल में ही देश में 'आईआईटी' का गठन किया गया। मौलाना आज़ाद की विरासत आज भी देश को विकास के पथ पर लगातार अग्रसर बनाए हुए है। जिन महत्वपूर्ण शिक्षण संस्थानों की उन्होंने नींव रखी वह आज भी देश के शैक्षणिक और तकनीकी विकास की परिचायक हैं। मौलाना आज़ाद के अनेक महत्वपूर्ण योगदान को देखते हुए सरकार ने १९९२ में उन्हें मरणोपरांत देश के सर्वोच्च पदक ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया।

मौलाना आज़ाद को केवल एक मुस्लिम नेता के रूप में ही नहीं बल्कि एक अच्छे कवि, लेखक, पत्रकार और स्वतंत्रता सेनानी के रूप में याद किया जाना चाहिए। वे महात्मा गांधी के सिद्धांतो का समर्थन करते थे। उन्हें हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए कार्य करने वाले नेता के रूप में भी ज़्यादा याद किया जाना चाहिए। वह उन पहले मुस्लिम नेताओं में शामिल थे जिन्होंने धर्म के आधार पर एक अलग देश पाकिस्तान के निर्माण के प्रस्ताव को ​ख़ारिज किया और मुस्लिम राजनीतिज्ञों से राष्ट्र हित के लिए क्रांतिकारी गतिविधियों में हिस्सा लेने की अपील की। १९२३ में मौलाना ​आज़ाद भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सबसे कम उम्र के अध्यक्ष बने। तब उनकी उम्र मात्र ३५ वर्ष थी। कई दिग्गजों के रहते उनका स्वतंत्रता आंदोलन की लड़ाई लड़ रहे राष्ट्रीय संगठन का कम उम्र में अध्यक्ष बनना इस बात का सबूत है कि उन्हें बड़े नेताओं और आम जनता का भरपूर समर्थन प्राप्त था। उन्हें मोतीलाल नेहरू, सरदार पटेल, हकीम अजमल खान, सीआर दास, राजेंद्र प्रसाद जैसे सरीखे नेताओं का भी समर्थन मिला। जवाहरलाल नेहरू के साथ उनकी दोस्ती के अनेक क़िस्से मशहूर हैं।

मौलाना आज़ाद अंग्रेजी हुकूमत को आम आदमी के शोषण के लिए ज़िम्मेदार मानते थे। उन्होंने अपने समय के मुस्लिम नेताओं की आलोचना से भी परहे​ज़​ नहीं किया जो देशहित के बजाय सांप्रदायिक हित को प्राथमिकता देते थे। अन्य मुस्लिम नेताओं से अलग उन्होने १९०५ में बंगाल के विभाजन का विरोध किया। उन्होंने ऑल इंडिया मुस्लिम लीग की अलगाववादी विचारधारा को ख़ारिज किया। मौलाना आज़ाद की शिक्षा उन्हें किसी भी आला सरकारी-​ग़ैर सरकारी ओहदे पर ले जा सकती थी लेकिन राजनीति के प्रति उनके झुकाव ने उन्हें पत्रकार बना दिया। जब वह १२ साल के थे तभी से बाल पत्रिकाओं में लेख लिखने लगे। १८९९ में ११ वर्ष की आयु में, उन्होंने 'नौरंगे-आलम' नामक एक प्रकाशन शुरू किया, जिसमें उस समय के कवियों की कविताएँ छापी गईं। १९०४ में मौलाना आज़ाद ने साप्ताहिक 'अल-मिस्बाह' शुरू किया जिसने राष्ट्रीय अखंडता और एकता के बारे में जागरूकता पैदा की। उनके लेख 'मखज़ान' और 'अहसूल' अख़बार में भी दिखाई देते थे। १९१२ में आज़ाद ने २४ वर्ष की आयु में ही 'अल-हिलाल' नामक अख़बार निकालकर लोगों को चौंका दिया था। अल​-​हिलाल के माध्यम से उन्होंने सांप्रदायिक सौहार्द और हिंदू मुस्लिम एकता को बढ़ावा देने के साथ ही साथ ब्रिटिश शासन पर प्रहार करना शुरू किया। अपनी आलोचना और हिंदू-मुस्लिम एकता की संकल्पना से परेशान ब्रिटिश सरकार ने अल-हिलाल को प्रतिबंधित कर दिया। मौलाना भी आख़िर कहां मानने वाले थे। ‘अलहिलाल’ को प्रतिबंधित किए जाने के उपरांत उन्होंने क्रांतिकारी विचारधारा से अभिप्रेरित ‘अल​-​बलाग़’ नामक अख़बार निकाला। इसके माध्यम से भी उन्होंने राष्ट्रवाद और हिंदू-मुस्लिम एकता के अपने मिशन को आगे बढ़ाना जारी रखा।

आखिरी समय तक मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ने विभाजन की ​क़ीमत पर देश की आज़ादी का विरोध किया जिसको लेकर उनका उनके क़रीबियों से काफ़ी मतभेद भी रहा। साल १९२३ में कांग्रेस के विशेष अधिवेशन में अपने अध्यक्षीय संबोधन में हिंदू-मुस्लिम एकता के इस सबसे बड़े पक्षधर ने कहा था कि, ''आज अगर कोई देवी स्वर्ग से उतरकर भी यह कहे कि वह हमें हिंदू-मुस्लिम एकता की ​क़ीमत पर २४ घंटे के भीतर स्वतंत्रता दे देगी, तो मैं ऐसी स्वतंत्रता को त्यागना बेहतर समझूंगा। स्वतंत्रता मिलने में होने वाली देरी से हमें थोड़ा नु​क़​सान तो ज़रूर होगा लेकिन अगर हमारी एकता टूट गई तो इससे पूरी मानवता का नु​क़​सान होगा।" मौलाना ​आज़ाद को समझने के लिए उनकी एक तक़रीर का यह हिस्सा ​ग़ौर करने लाय​क़​ है जब उन्होंने दिल्ली की जामा मस्जिद से पाकिस्तान पलायन के इच्छुक मुसलमानों को संबोधित करते हुए ख़िताब किया था और कहा था कि, "आख़िर कहां जा रहे हो? और क्यों जा रहे हो? ये देखो मस्जिद की मीनारें तुमसे उचक कर सवाल कर रही हैं कि तुमने अपनी तारीख़ के सफ़हात को कहां गुम कर दिया है? अभी कल की बात है कि यहीं जमुना के किनारे तुम्हारे क़ाफ़िलों ने वज़ू किया था और आज तुम हो कि तुम्हें यहां रहते हुए ख़ौफ़ महसूस होता है? हालांकि दिल्ली तुम्हारे ख़ून की सींची हुई है।" मौलाना आज़ाद का यह जुमला इस देश की मिट्टी में रची-बसी हिंदुस्तानियत को दर्शाता है जिसमें वह कहते हैं, "आओ अहद करो कि ये मुल्क हमारा है। हम इसी के लिए हैं और उसकी तक़दीर के बुनियादी फ़ैसले हमारी आवाज़ के ​बग़ैर अधूरे ही रहेंगे।" क्या आज के मुसलमान मौलाना आज़ाद के उस जज़्बात को आज भी अपना आदर्श नहीं बना सकते?


(लेखक मुंबई विश्वविद्यालय, गरवारे संस्थान के हिंदी पत्रकारिता विभाग में समन्वयक हैं। देश के प्रमुख प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं।)