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कट्टरवाद, रूढ़िवाद और इस्लाम / सैयद सलमान
Friday, October 1, 2021 - 10:19:37 AM - By सैयद सलमान

कट्टरवाद, रूढ़िवाद और इस्लाम / सैयद सलमान
मुसलमानों को सबसे पहले अपने समाज में होने वाली सभी ग़लत बातों के लिए बोलने का जज़्बा पैदा करना होगा
साभार- दोपहर का सामना 01 10 2021

मुस्लिम समाज किसी न किसी कारण विश्व पटल पर चर्चा में रहता है। दुर्भाग्य से उसकी चर्चा अधिकांश रूप से नकारात्मक ही होती है। लेकिन जब इस्लाम को लेकर मुस्लिम समाज के बीच ही दो धाराएं एक दूसरे के विपरीत जाती दिखती हैं तो आम मुसलमान ख़ुद भी भ्रमित हो जाता है कि असल इस्लाम कौन सा है। इस्लाम की अलग-अलग देशों में अलग अलग तरह से व्याख्या की जाती है। एक अटल सत्य यह है कि इस्लाम की तीन मान्यताओं पर लगभग सभी मुसलमान एकमत हैं कि, अल्लाह एक है, क़ुरआन एक है और मोहम्मद साहब अल्लाह के नबी हैं। अगर इन तीन बातों के माध्यम से मुसलमानों को कोई बात सिखाई या समझाई जा रही हो तो वह अलग-अलग लोगों के लिए अलग-अलग भूमिका में कैसे हो सकती है? देश और व्यक्ति के हिसाब से उसमें परिवर्तन कैसे आ सकता है? यानी अल्लाह, उसकी किताब और उसके रसूल की सही शिक्षा को ठीक से आम जनों तक पहुंचाने में कहीं न कहीं कोताही हुई है इसे स्वीकार करना होगा। जैसे अरब और अन्य खाड़ी देशों में इस्लाम का अगर एक रूप नज़र आता है तो यूरोप में अलग और एशिया में अलग। हां, इतना ज़रूर है कि तौहीद, नमाज़, रोज़े, हज, ज़कात जैसी बातों में समानता है लेकिन उसके बाद की अनेक भूमिकाओं में बहुत बड़ा फ़ासला सा नज़र आता है।

इस्लाम में किसी तरह की भेदभाव की कोई गुंजाइश नहीं होती। इस बात का असर सभी मुस्लिम देशों में एक जैसा नज़र आना चाहिए। इस बात को समझने के लिए पैग़ंबर मोहम्मद साहब के दौर के उस उदहारण को समझना होगा जब नमाज़ से पहले नमाज़ के लिए आवाज़ लगाने के लिए दी जाने वाली अज़ान हज़रत बिलाल के ज़िम्मे थी। हर मुसलमान पर फ़र्ज़ की गई नमाज़ को पढ़ने से पहले अज़ान रूपी पवित्र कार्य को करने की ज़िम्मेदारी पैग़ंबर मोहम्मद साहब ने एक हब्शी को सौंपी। जबकि ख़ुद मोहम्मद साहब नबी थे, उनके नज़दीकी दोस्त हज़रत अबू बकर थे, उनके ख़ानदान के ही हज़रत अली साए की तरह उनके साथ थे। इनमें से कोई भी अज़ान दे सकता था। लेकिन एक हब्शी को अज़ान के लिए तैनात कर इस्लाम में गोरे-काले, ऊंच-नीच जैसे अनेक भेद मिटा दिए गए। लेकिन दुर्भाग्य से इस्लाम की यह ख़ूबसूरती बाद में बरक़रार नहीं रही पाई। अनेक देशों में इसका सही तरह से पालन नहीं हुआ। हालांकि खाड़ी देशों की तरह एशियाई देशों में भी पहले के मुक़ाबले यह भेदभाव कम हुआ है लेकिन समाजी तौर पर यह क़ायम है। हमारे अपने देश में भी यह मुस्लिम अशराफ़, अज़लाफ़, अरज़ाल, राजपूत, व्यावसायिक और अशुद्ध वर्गों के रूप में विभाजित है। तो किसे सही माना जाए? इस वर्गीकरण को या इस्लाम, क़ुरआन और मोहम्मद साहब की सीख को? आखिर क्या कारण है कि मुसलमानों ने अल्लाह के नबी के क़ौल को अनदेखा किया? क्या यह उनकी शिक्षा के विरोध में जाना नहीं हुआ? अगर ऐसा हुआ है तो इस भेद को क़ायम रखने वालों पर किसी तरह का फ़तवा क्यों नहीं लगता?

दरअसल भारतीय उपमहाद्वीप जिसे हिंद महाद्वीप भी कहते हैं, जिसमें भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल, भूटान, मालदीव और श्रीलंका जैसे देश शामिल हैं वहां के इस्लाम में, यूरोप के इस्लाम में और खड़ी देशों के इस्लाम में फ़र्क़ देखने को मिल जाएगा। भारत में इस्लाम या भारतीय समाज में मुसलमान होने की अवधारणा को समझना बेहद मुश्किल काम है। अरब, यूरोप, एशिया, मध्य एशिया के अन्य देशों के विपरीत भारत में अनेक सांस्कृतिक विविधताएं और विभिन्‍नताएं देखने को मिलती हैं। आज भी भारत के कई इलाक़ों में जाति प्रथा को बेहद गंभीर होकर माना जाता है। हालांकि इस्लाम इसकी इजाज़त नहीं देता, लेकिन यह वर्षों से चल रहा है। यह मुग़लों के काल में भी चला। मुग़ल तो मुसलमान थे। आख़िर उन्होंने कैसे इस प्रथा को क़ायम रहने दिया जबकि इस्लाम तो बराबरी का संदेश देता है। कुल मिलाकर यह सत्ता का खेल था जिसका इस्लाम से कोई वास्ता नहीं था। इन सबके पीछे इस्लाम की अलग-अलग व्याख्या करने वालों की बड़ी भूमिका रही है। कट्टरवाद, रूढ़वादिता और अशिक्षा के कारण मुसलमान इस्लाम की सही जानकारी ले ही नहीं पाए। उन्हें इस्लाम का वह रूप दिखाया गया जो विभिन्न फ़िरक़ों से जुड़े मौलवियों ने बताया। आख़िर जब अल्लाह, कुरआन और नबी पर पूरा यक़ीन है तो मतभेद कैसा? लेकिन दुर्भाग्य से यह है।

मुस्लिम समाज के ताजा आपसी मतभेद, टकराव और भटकाव को समझना हो तो इस्लाम की जन्मस्थली सऊदी अरब और वर्तमान दौर के सबसे विवादित मुल्क अफ़ग़ानिस्तान के माध्यम से समझा जा सकता है। एक तरफ जहां सऊदी अरब सामाजिक सुधारों का हिस्सा बन रहा है वहीं अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान पूरी तरह से कट्टरवाद को बढ़ावा दे रहा है। सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस सलमान अपने देश की कट्टर इस्लामी छवि को बदलना चाह रहे हैं जबकि अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान क्रूरता की सारी हदें पार कर रहा है। अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान की क्रूरता का रोज़ नया चेहरा सामने आ रहा है। कभी सुनने में आता है कि तालिबान ने किसी अफ़ग़ान सैनिक को पकड़ने के बाद उसका सिर क़लम कर दिया, कभी ख़बर आती है कि किसी बच्चे की बेरहमी से हत्या कर दी, कभी भीड़ पर अंधाधुंध फ़ायरिंग की ख़बर आती है। तालिबान ने ख़ासकर महिलाओं के ख़िलाफ़ सबसे अधिक फ़ैसले लिए हैं। पढ़ने से लेकर उन्हें घर से बाहर निकलने तक में पाबंदियों को सामना करना पड़ रहा है। अफ़ग़ानिस्तान में कई वर्षों से जारी महिला आर्थिक सशक्तिकरण और ग्रामीण विकास कार्यक्रम को ज़मीनी स्तर पर बंद कर दिया गया है। स्कूली शिक्षा से लड़कियों को दूर रखने की पूरी कोशिश हो रही है। तालिबान के आतंक का आलम यह है कि आतंकियों से बचने के लिए बड़ी संख्या में महिलाएं अपना घर छोड़ चुकी हैं। तालिबान के इस रुख़ के विपरीत सऊदी अरब में तेज़ी से महिलाओं को विभिन्न क्षेत्रों की अलग-अलग ज़िम्मेदारी सौंपी जा रही है। सऊदी अरब में महिला सशक्तिकरण के तहत दो अति महत्वपूर्ण मस्जिदों मक्का और मदीना में ६०० प्रशिक्षित महिला सैनिकों को तैनात कर इन मस्जिदों की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी सौंपी गई है। सऊदी अरब का यह उदारवादी निर्णय तालिबान की कट्टरवादी सोच को मुंह चिढ़ाता नज़र आता है।

एक बात समझने की ज़रूरत है कि मुस्लिम समाज में सहज मानवीय भावनाएं भी होती हैं। उस पर ग़ैर-मुस्लिम समाज से जुड़ी नैतिकता और रीति-रिवाजों का प्रभाव भी होता है। सभी धर्मों, सभी संस्कृतियों और सभी समाजों में परिवर्तन भी आता रहता है। इस्लाम अपने एक अल्लाह, एक क़ुरआन, एक नबी, इस्लाम के पांच फ़र्ज़ जैसे मूल पर क़ायम रहते हुए स्थान और संस्कृति के हिसाब से अपने आप को ढालने के लिए स्वतंत्र हो सकते हैं बशर्ते इसके लिए मुस्लिम समाज के सुशिक्षित और इस्लाम की सही व्याख्या करने वाले धर्मगुरु सामने आएं। मुस्लिम समाज की कट्टरवादी मानसिकता में परिवर्तन लाना समय की मांग है। मुस्लिम समाज को धार्मिक आस्था के साथ आधुनिक शिक्षा को लेकर अपनी सोच के दरवाज़े खोलने की ज़रूरत है। हालांकि यह भी सच है कि हर समाज में कुछ लोग परिवर्तन विरोधी होते हैं। जिस समाज में परिवर्तन विरोधी लोग कम होते हैं, वह समाज आगे बढ़ता है। जिस समाज में कट्टरवाद और रूढ़िवाद का वर्चस्व होता है, वह समाज पिछड़ा ही रह जाता है। ऐसे में मुसलमानों से अपेक्षा की जाती है कि वह इस्लाम की मूल शिक्षा का गहराई से अध्ययन करें। मोहम्मद साहब की जीवनी को समझें। इसकी शुरुआत के लिए, मुसलमानों को सबसे पहले अपने समाज में होने वाली सभी ग़लत बातों के लिए बोलने का जज़्बा पैदा करना होगा। तभी इस्लाम का मूल सभी जगह एक जैसा नज़र आएगा वरना यही संदेश जाएगा कि मुसलमानों के लिए 'मेरे लिए मेरा इस्लाम तुम्हारे लिए तुम्हारा इस्लाम' जैसी व्यवस्था है। जबकि सभी जानते हैं यह पूरी तरह ग़लत है।




(लेखक मुंबई विश्वविद्यालय, गरवारे संस्थान के हिंदी पत्रकारिता विभाग में समन्वयक हैं। देश के प्रमुख प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं।)