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इस्लाम, दीनी तालीम और युवा पीढ़ी / सैयद सलमान
Friday, September 24, 2021 - 9:41:01 AM - By सैयद सलमान

इस्लाम, दीनी तालीम और युवा पीढ़ी / सैयद सलमान
मुस्लिम विवाह अनुबंध और संस्कार का अद्भुत संयोजन है इसे साबित करना नई पीढ़ी की बड़ी ज़िम्मेदारी है
साभार- दोपहर का सामना 24 09 2021

नया तलाक़ क़ानून आने के बाद से मुस्लिम समाज में तलाक़ के मामलों में काफ़ी कमी आई है। अगर पीछे मुड़कर देखें तो वर्ष २०११ में हुई जन गणना के आंकड़े बताते हैं कि मुसलमानों के तलाक़ के मामले सबसे ज़्यादा होते रहे हैं। जनगणना विभाग के आंकड़ों के अनुसार २० से ३४ वर्ष की मुस्लिम महिलाओं का तलाक़ सबसे ज्यादा हुआ है। जबकि यही उम्र शादी-ब्याह कर घर को व्यवस्थित रूप से चलाने की होती है। इसका सबसे बड़ा कारण ‘तीन तलाक़ ’ प्रथा के अंधानुकरण को माना जा सकता है। तीन तलाक़ के अलावा मुस्लिम समाज में हलाला, ख़र्चीली शदियां, शादी-ब्याह सहित अन्य आयोजनों की ऊल जुलूल रस्में और दहेज जैसी सामाजिक बुराइयां भी बड़े पैमाने पर अपना प्रभाव रखती हैं। हालांकि इनका इस्लाम की असल शिक्षा से कोई वास्ता नहीं है। इस्लाम तो महिलाओं के हुक़ूक़, उनकी सुरक्षा, उनकी शिक्षा के साथ ही सादगीपूर्ण विवाह को प्रोत्साहन देता है। यह अलग बात है कि बड़ी संख्या में मुस्लिम धर्मगुरुओं ने इसे सिखाने के बजाय ‘बहती गंगा में हाथ धो लेने’ की मानिंद दिखावे वाले इस्लाम को बढ़ा-चढ़ाकर न सिर्फ पेश किया बल्कि उसका हिस्सा भी बने। तड़क-भड़क और दिखावे में शामिल होने, एक साथ तीन तलाक़ को मान्यता देने, हलाला को जायज़ ठहराने वाले ऐसे ही मुसलमानों ने इस्लाम की ख़राब छवि पेश की है।

मुस्लिम समाज पर लगातार रूढ़िवादिता को अपनाने और बढ़ावा देने के आरोप भी लगते रहे हैं। लेकिन अब इस समाज ने धीरे-धीरे अपनी छवि को बदलने की दिशा में प्रयास करने शुरू कर दिए हैं। निकाह की रस्मों, वैवाहिक जीवन और अन्य मान्यताओं में धीरे-धीरे बदलाव लाने के प्रयास शुरू हो गए हैं। मुस्लिम समाज में नाकाम होती शादियों पर गंभीरता दिखाई जा रही है। अब ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड मुस्लिम युवाओं और युवतियों को सफल वैवाहिक जीवन जीना सिखाने के लिए छह माह का प्रशिक्षण कोर्स तैयार कर रहा है। इस कोर्स में उन्हें निकाह से पहले इस्लाम से जुड़े शिष्टाचार सिखाए जाएंगे ताकि बेवजह तलाक़ और तकरार के मामले रोके जा सकें। इस कोर्स के माध्यम से शरीयत की रोशनी में ज़िंदगी गुज़ारने के तरीक़े बताने के लिए हर शहर में कार्यशालाएं आयोजित की जाएंगी। यूं भी मोहल्लों में, क़स्बों में और शहरी स्तर पर इस्लाम से जुड़ी जानकारियां देने, दीन-इस्लाम की बात करने, उनका मार्गदर्शन करने के लिए मुस्लिम समाज के विभिन्न फ़िक़ह के प्रतिनिधियों से जुड़े इज्तेमा का आयोजन होता रहता है। महिलाओं के लिए भी अलग से दीनी इज्तेमा अब कोई अनूठी बात नहीं रही। लेकिन अब इस्लाम की सफल वैवाहिक जीवन से जुड़ी तरबियत देने के लिए महिलाओं के लिए विशेष रूप से दीनी इज्तेमा भी आयोजित किए जाएंगे। मुस्लिम बुद्धिजीवी इस से पहले अक्सर निकाह को आसान बनाने, ग़लत रस्मों को ख़त्म करने और समाज में व्यापक रूप से सुधार लाने की काफ़ी समय से मांग करते रहे हैं। अब इस विषय की गंभीरता को ध्यान में रखते हुए सादगी से निकाह करने और दहेज का लेनदेन बंद करने को लेकर लोगों को जागरूक किया जाएगा। इतना ही नहीं शादी के बाद भी ज़िंदगी को ख़ुशहाल रखने, तलाक़ और तकरार की नौबत को रोकने जैसे मुद्दों पर भी प्रशिक्षण दिया जाएगा।

बोर्ड इस तरबियती कोर्स के माध्यम से देश के हर शहर में युवक-युवतियों को जोड़ने का काम करेगा। ख़ासकर यह कोर्स उन लोगों के लिए महत्वपूर्ण होगा जिनका निकाह होने वाला है या कुछ दिन पहले ही हो चुका है। कोर्स के माध्यम से शरीयत की रोशनी में मार्गदर्शन कर छोटे-छोटे झगड़ों और मतभेद से मामला तलाक़ तक पहुंचने से रोका जाएगा। शादीशुदा ज़िंदगी बेहतर बनाने की कोशिश होगी। इन कार्यशालाओं में नव विवाहित जोड़ों या जिन जोड़ों का निकाह होना है उनकी काउंसलिंग की जाएगी, ताकि और बेहतर समाज का निर्माण हो सके। इसमें आपसी मतभेद दूर कर ज़िंदगी बेहतर तरीक़े से गुज़ारने के तरीक़े बताए जाएंगे। विवाह के पूर्व ऐसी व्यवस्था से मुस्लिम युवाओं और युवतियों को विवाह से जुड़ी असल इस्लामी शिक्षा मिल सकेगी जिसकी उन्हें ज़रूरत होती है। अक्सर मुस्लिम जोड़ों में घरेलू झगड़ों की शुरुआत शादी के कुछ दिनों बाद ही शुरू हो जाती है। तभी उस पर ध्यान दिया जाए तो मामले का हल निकल सकता है, लेकिन इस्लाम की सही शिक्षा के आभाव में मामला तलाक़ तक पहुंच जाता है। ऐसे लोगों को शिष्टाचार कोर्स के माध्यम से समझाया जा सकेगा। अभी फ़िलहाल छह माह का कोर्स तैयार किया जा रहा है जल्द ही इसे पढ़ाने की शुरुआत की जाएगी। कोर्स करने वाले युवक-युवतियों को प्रमाण पत्र भी दिया जाएगा।

विवाह हर समाज और धर्म की आवश्यकता है। मुस्लिम विधि में भी विवाह जिसे निकाह कहा गया है, इसकी अवधारणा रखी गयी है। दांपत्य जीवन जीने के लिए विवाह की अनिवार्यता पर प्रत्येक समाज और व्यवस्था ने जोर दिया है। इसी प्रकार से मुस्लिम विधि में भी निकाह पर बल दिया गया है। अनेक मुस्लिम क़ानूनविदों ने और देश की न्याय व्यवस्था ने निकाह की परिभाषा तय की है। कुछ मुस्लिम क़ानूनविदों ने मुस्लिम विवाह को केवल अनुबंध क़रार दिया है और कुछ ने अनुबंध के साथ संस्कार भी कहा है। निकाह के समय अनुष्ठान तो किए जाते हैं लेकिन किसी धार्मिक कर्मकांड की कोई आवश्यकता नहीं होती है। यहां तक कि विवाह के समय क़ाज़ी की उपस्थिति भी आवश्यक नहीं है। निकाह से जुड़ी क़ुरआनी आयतें और दुआओं का आना ही काफ़ी है। जिसे इसका इल्म है वह निकाह पढ़ा सकता है। अरब में इस्लाम धर्म से पहले स्त्री केवल वासना तृप्ति की वस्तु और पति की संपत्ति मानी जाती थी। इस्लाम ने पहली बार स्त्री को विवाह में सहमति का अधिकार दिया। इसका उदहारण पैग़ंबर मोहम्मद साहब की बेटी हज़रत फ़ातिमा के विवाह से मिलता है। हज़रत अली के साथ निकाह से पहले हज़रत फ़ातिमा की सहमति ख़ुद मोहम्मद साहब ने ली थी। उस समय समाज में अजीब तरह के विवाह प्रचलित हुआ करते थे। पैग़ंबर मोहम्मद साहब ने अरब समाज की बहुत सी कुरीतियों को दूर करते हुए स्त्री सहमति को विवाह के लिए आवश्यक कर दिया। आज भी निकाह में जब तक स्त्री द्वारा विवाह को क़ुबूल करने की सहमति नहीं मिल जाती तब तक पुरुष से पूछा ही नहीं जाता। पुरुष के अकेले क़ुबूल कर लेने को वैवाहिक मान्यता ही नहीं मिलती। इतने आसान से वैवाहिक आयोजन को मुसलमानों ने दिखावा और प्रपंच बनाकर रख दिया है। इसलिए ज़रूरी भी था कि मुस्लिम युवाओं को दीनी तालीम देते हुए निकाह से पहले की और बाद की ज़िम्मेदारियों को लेकर प्रशिक्षित किया जाए।

इस्लाम में मुसलमानों को यह संदेश दिया गया है कि बच्चों के बालिग़ होने पर फ़ौरन विवाह कर दिया जाए जिससे उन्हें व्यभिचार से बचाया जा सके और उन्हें गृहस्थ जीवन शुरू करने में आसानी हो। अगर कोई व्यक्ति विवाह करने के क़ाबिल नहीं है तो उसको विवाह करने से रोका भी गया है। मुस्लिम विधि के अनुसार किसी भी स्त्री का विवाहोपरांत अपने अस्तित्व को पति के अस्तित्व में मिलाना ज़रूरी नहीं। वह विवाह के बाद भी अपनी अलग क़ानूनी स्थिति बनाए रखती है। अज्ञानी मुस्लिम पुरुष इन बातों को भूल जाते हैं और कलह बढ़ती जाती है। ऐसी छोटी-छोटी बातें तलाक़ का कारण बनती हैं कि सोचकर शर्म आती है। मुस्लिम नौजवानों को इन बुराइयों से बचते हुए सही इस्लामी तरीक़े से वैवाहिक कार्यक्रमों के आयोजन को बढ़ावा देना होगा। मुस्लिम बच्चियों को भी उम्मुल मोमिनीन और मोहम्मद साहब की लाड़ली बेटी हज़रत फ़ातिमा की जीवनी से सीख लेनी होगी। उनके संस्कारों को अपनाना होगा। मुस्लिम विवाह अनुबंध और संस्कार का अद्भुत संयोजन है इसे साबित करना नई पीढ़ी की बड़ी ज़िम्मेदारी है।


(लेखक मुंबई विश्वविद्यालय, गरवारे संस्थान के हिंदी पत्रकारिता विभाग में समन्वयक हैं। देश के प्रमुख प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं।)