Saturday, April 20, 2024

न्यूज़ अलर्ट
1) मल्टी टैलेंटेड स्टार : पंकज रैना .... 2) राहुल गांधी की न्याय यात्रा में शामिल होंगे अखिलेश, खरगे की तरफ से मिले निमंत्रण को स्वीकारा.... 3) 8 फरवरी को मतदान के दिन इंटरनेट सेवा निलंबित कर सकती है पाक सरकार.... 4) तरुण छाबड़ा को नोकिया इंडिया का नया प्रमुख नियुक्त किया गया.... 5) बिल गेट्स को पछाड़ जुकरबर्ग बने दुनिया के चौथे सबसे अमीर इंसान.... 6) नकदी संकट के बीच बायजू ने फुटबॉलर लियोनेल मेस्सी के साथ सस्पेंड की डील.... 7) विवादों में फंसी फाइटर, विंग कमांडर ने भेजा नोटिस....
मेकअप, अफ़ग़ान और मुस्लिम महिलाएं / सैयद सलमान
Friday, September 17, 2021 - 9:13:21 AM - By सैयद सलमान

मेकअप, अफ़ग़ान और मुस्लिम महिलाएं / सैयद सलमान
अफ़ग़ानिस्तान के पारंपरिक परिधान पांच हज़ार साल की समृद्ध संस्कृति और इतिहास का प्रतिनिधित्व करते हैं।
साभार- दोपहर का सामना 17 09 2021

जब से तालिबान की सत्ता वापसी हुई है तब से किसी न किसी बहाने अफ़ग़ानिस्तान चर्चा में है। पहले अमरीका की वापसी और उसके बाद देश भर में मची भगदड़ की ख़बरों से मीडिया का हर प्लेटफ़ॉर्म भरा हुआ है। बीस साल पहले सत्ता से बेदखल किए गए तालिबान ने पूरी ताक़त के साथ देश के लगभग सभी हिस्सों पर क़ब्ज़ा कर लिया है। लड़ाई के डर से कई अफ़ग़ान सैनिक पड़ोसी देशों में भाग गए हैं। कुछ को यूरोपीय या अन्य देश शरण देने की प्रक्रिया में हैं। जो अफ़ग़ान परिवार किसी अन्य देश में जा सकते थे वो देश छोड़कर निकल गए क्योंकि यहां एक बार फिर गृहयुद्ध जैसा माहौल बनना शुरू हो गया था। सत्ता प्राप्ति के बाद तालिबान ने चुनाव प्रक्रिया में शामिल होने का प्रस्ताव ठुकराते हुए कट्टर इस्लामी क़ानून पर आधारित अफ़ग़ानिस्तान बनाने की शुरुआत कर दी। इस्लामिक क़ानून को शरिया कानून कहा जाता है जिसके आधार पर अफ़ग़ानी जनता को प्रताड़ित करते रहने का तालिबान पर पहले ही आरोप लगता रहा है। अब उसी शरिया कानून को तालिबान सरकार लागू कर रही है। विश्व बिरादरी भी इस पर नज़र रख रही है क्योंकि अगर इस्लामी नज़रिए की आड़ में कोई क़ानून लागू होता है तो कई देश इस से परोक्ष-अपरोक्ष प्रभावित होंगे। एक बात नहीं भूलना चाहिए कि शरिया क़ानून का सबसे ज़्यादा दमनकारी असर अफ़ग़ानिस्तान की महिलाओं पर पड़ा था। तब तालिबान की आलोचना की यह सबसे बड़ी वजह बनी थी। एक बार फिर इतिहास खुद को थोड़े हेर-फेर के साथ दोहराता नजर आ रहा है।

आज की स्थिति में जिस शरिया क़ानून का सहारा लेकर अफ़ग़ानिस्तान में सरकार चलेगी उसका सबसे ज़्यादा प्रभाव महिलाओं की शिक्षा पर पड़ेगा। तालिबान का फ़रमान है कि महिलाएं पढ़ाई तो कर पाएंगी लेकिन तालिबान की शर्तों पर। शिक्षा पाने के लिए उन्हें कुछ विशेष नियमों का पालन करना होगा। अब न जाने तालिबान का यह हृदय परिवर्तन है या मजबूरी कि उसने महिलाओं को यूनिवर्सिटी में पढ़ने की इजाज़त तो दी है लेकिन कई पाबंदियों और शर्तों के साथ। तालिबान की तरफ़ से यह आभास देने की कोशिश हो रही है कि जैसा देश आज है, उसी के आधार पर नए अफ़ग़ानिस्तान का निर्माण किया जाएगा ना कि २० साल पहले के तालिबानी शासन के आधार पर फ़ैसले होंगे। नई व्यवस्था के तहत महिला छात्रों को लड़कों से अलग पढ़ाया जाएगा। उन्हें इस्लामिक क़ानून के आधार पर कपड़े पहनने होंगे। उन्हें सिर से पांव तक खुद को ढंक कर रखना होगा। तालिबानी हुकूमत की तरफ़ से कोशिश हो रही है कि छात्राओं को पढ़ाने की ज़िम्मेदारी जहां तक संभव हो शिक्षिकाओं को ही दी जाए। देश में काफ़ी महिला शिक्षक हैं जो इस ज़िम्मेदारी को उठा सकेंगी। तालिबानी शासकों के लिए यह राहत भरी बात है और उन्हें अपनी पूर्ववर्ती सरकारों का शुक्र अदा करना चाहिए। हालांकि जहां महिलाएं उपलब्ध नहीं होंगी, वहां पुरुष शिक्षकों को भी पढ़ाने की अनुमति दी गई है। ऐसी परिस्थिति में विश्वविद्यालयों में छात्र-छात्राओं को अलग-अलग बैठना होगा और पर्दे में रहना होगा। पुरुष और महिला छात्राओं के बीच में पर्दे लगाए जाएंगे या फिर स्ट्रीमिंग के ज़रिए भी पढ़ाई कराई जा सकती है।

इन फैसलों से तालिबान यह संकेत देने की कोशिश कर रहा है कि उसमें बदलाव आया है। लेकिन यह बदलाव नाकाफ़ी है, यह मुस्लिम जगत भी जानता है। भले ही वह इसे स्वीकार करने से परहेज़ करे। इसकी छोटी सी झलक कुछ इस तरह पेश की गई है कि तालिबान ने इस बार अफ़ग़ानिस्तान में महिलाओं के लिए बुर्क़ा पहनना अनिवार्य नहीं किया है। नई व्यवस्था में महिलाएं केवल हिजाब पहनकर रह सकती हैं। महिलाओं के ड्रेस कोड को लेकर तालिबान का दावा है कि यह बड़ा बदलाव है। पिछली बार १९९६ से २००१ के बीच जब अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान का राज था तब लड़कियों की पढ़ाई-लिखाई बंद कर दी गई थी और महिलाओं को कामकाज करने या यात्रा करने से रोक दिया गया था। उन्हें खुले स्थानों पर सिर से लेकर पैर तक बुर्क़ा ओढ़कर ही आना-जाना पड़ता था। वे किसी पुरुष के साथ के बिना अकेले बाहर कहीं आ जा नहीं सकती थीं। पुरुष के लिए भी महरम होना ज़रूरी था। इस्लामी शरीयत में महरम उस क़रीबी रिश्तेदार को कहते हैं जिनके साथ किसी भी स्थिति में निकाह जायज़ न हो। इस फ़ेहरिस्त में बेटा, भाई, मामू, चचा, भांजा, भतीजा, ताऊ, दादा, नाना, पोता, नाती जैसे रिश्ते शामिल हैं, जिनसे सीधे रक्त का रिश्ता हो। शरीयत के मुताबिक़ इन क़रीबी रिश्तेदारों के अलावा दूसरे रिश्तेदारों, जानकारों और अनजान पुरुषों से किसी महिला का बग़ैर ज़रूरत मिलना अच्छा नहीं माना जाता। तालिबान ने उस में इस बार ढील देने की पहल की है। लेकिन यह बदलाव भी तालिबान बंदूक की नोक पर ही लाने पर आमादा है।

मुस्लिम महिलाएं तालिबान के इस आधे-अधूरे छूट वाले फ़ैसले से भी ख़ुश नहीं हैं। इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ अफ़ग़ानी महिलाओं ने तालिबान के नए ड्रेस कोड के ख़िलाफ़ मुहिम शुरू कर दी है। फ़ैसले के ख़िलाफ़ आंदोलन हो रहे हैं और सैकड़ों अफ़ग़ान महिलाएं इससे जुड़ रही हैं। तालिबान क़ानून का विरोध करते हुए अफ़ग़ानिस्तान की अनेक महिलाएं अपनी तस्वीरें और पोस्ट सोशल मीडिया पर शेयर कर रही हैं। अनेक यूनिवर्सिटी में पढ़ रही छात्राओं ने काले कपड़े पहनकर तालिबानी झंडे लहराते हुए फ़ोटो खिंचवाई है और उसे बेधड़क सोशल मीडिया पर पोस्ट भी कर रही हैं। कई अफ़ग़ान महिलाओं ने तालिबान द्वारा अनिवार्य किये गए काले हिजाब के विरोध में देशभर से रंगीन पारंपरिक पोशाक में अपनी तस्वीरें शेयर करते हुए तालिबान की आंख से आंख मिलाने की हिम्मत दिखाई है। तालिबान के ख़िलाफ़ शायद इस तरह अफ़ग़ानी महिलाएं न उतरतीं अगर वहां की महिलाओं का तालिबान समर्थक समूह तालिबानी ड्रेस कोड के समर्थन में न उतरता। दरअसल पूरे जिस्म को ढंकने वाले काले रंग का अबाया पहनी महिलाओं ने पहले काबुल में तालिबान के समर्थन में एक रैली निकाली थी। इस रैली में हिस्सा लेने वाली तालिबान समर्थक महिलाओं ने यह संकेत देने का प्रयास किया था कि मॉडर्न कपड़े पहनने और मेकअप करने वाली अफ़ग़ान महिलाएं देश की मुस्लिम औरतों का प्रतिनिधित्व नहीं करती हैं। उनका मानना था कि वह ऐसे कपड़े और अधिकार नहीं चाहतीं जो विदेशी हों और शरिया क़ानून से मेल न खाते हों।

तालिबान ड्रेस कोड के समर्थन में एक समूह द्वारा उसे स्वीकार करने के लिए निकाली गई रैली के बाद आज़ाद ख़्याल महिलाओं के आंदोलन ने ज़ोर पकड़ा। इन महिलाओं ने इस्लाम की कट्टरवादी छवि को तोड़ते हुए इस्लाम और अफ़ग़ान की संस्कृति को दर्शाया और परंपरागत कपड़ों के ज़रिए विरोध किया। उन्होंने पाकिस्तान में एक समय में चली 'मेरा जिस्म मेरी मर्ज़ी' जैसी फूहड़ता नहीं दिखाई। उन्होंने 'अफ़ग़ानिस्तान कल्चर' हैशटैग के साथ रंग-बिरंगे आकर्षक अफ़ग़ानी कपड़ों के ज़रिए अपने आंदोलन को जनांदोलन बनाया। अफ़ग़ान इतिहास इस बात का साक्षी रहा है कि अफ़ग़ान महिलाएं ख़ूबसूरत रंगीन और सलीक़ेदार कपड़े पहनती रही हैं। यह बात सत्य है कि अफ़ग़ानी संस्कृति में काले रंग का बुर्क़ा कभी भी पारंपरिक परिधान नहीं माना गया। अपने आंदोलन के दौरान कई महिलाओं ने अपनी तस्वीर शेयर करते हुए यही लिखा भी कि वह और उनके पूर्वज सदियों से एक इस्लामिक मुल्क में रहे हैं और उनके ख़ानदान की महिलाएं अपने पारंपरिक और शालीन परिधान पहनती रही हैं। वे न तो फ़ैशनेबल बुर्क़ा पहनती थीं, न ही अरब देशों में प्रचलित काला बुर्क़ा और न ही किसी प्रकार की चादर का प्रयोग करती थीं। इन महिलाओं का दावा है कि अफ़ग़ानिस्तान के पारंपरिक परिधान पांच हज़ार साल की समृद्ध संस्कृति और इतिहास का प्रतिनिधित्व करते हैं। अफ़ग़ानी महिलाओं ने यह साबित कर दिया है कि सांस्कृतिक विरासत को थाम कर भी क्रूरता के ख़िलाफ़ लड़ा जा सकता है। संगीनों के साए में भी हिंसक तत्वों के विरोध में उतरी अफ़ग़ानी महिलाओं की यह दिलेरी क़ाबिल-ए-तारीफ़ है।




(लेखक मुंबई विश्वविद्यालय, गरवारे संस्थान के हिंदी पत्रकारिता विभाग में समन्वयक हैं। देश के प्रमुख प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं।)